आंध्र प्रदेश की अनदेखी और वहां के सत्ता संघर्ष ने नरेंद्र मोदी की भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं
आंध्र प्रदेश में चल रहे सत्ता संघर्ष ने प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति कमजोर करके वहां पार्टी की खामियों को उजागर कर दिया है. चंद्रबाबू नायडू की तेलगूदेशम पार्टी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा की पुरानी और सबसे बड़ी साथी थी. लेकिन आंध प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलने की वजह से उसे राजग छोड़कर बाहर निकलना पड़ा. विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने में नाकाम रही नायडू सरकार को अब प्रदेश में वाईएस जगन मोहन रेड्डी और 2014 में भाजपा का साथ देने वाले अभिनेता से नेता बने पवन कल्याण की चुनौतियों का सामना करना होगा.
नायडू के मुख्य प्रतिद्वंदी जगन रेड्डी ने नवंबर, 2017 में अपने पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी की तरह एक पदयात्रा निकाली. इसी तरह की गोलबंदी की वजह से नायडू 2004 का चुनाव हारे थे और जिस हार से उबरने में उन्हें एक दशक लग गया. आंध्र प्रदेश में चल रही राजनीतिक खींचतान का अंदाज उस वक्त लगा जब संसद में जगन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया. इसके बाद नायडू को भी अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए बाध्य होना पड़ा. हालांकि, किसी प्रस्ताव पर चर्चा नहीं हुई.
दस सालों तक विपक्ष में रहने के बाद विभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर 2014 में नायडू की वापसी हुई. उनकी आलोचना इस बात के लिए की जाती रही है कि उन्होंने विशेष राज्य के दर्जे के मुद्दे को ठीक से नहीं उठाया और अमरावती में नई राजधानी एवं पोलावरम सिंचाई परियोजना में भूमि अधिग्रहण का ठीक से प्रबंधन नहीं किया. दोनों परियोजनाओं का सिविल सोसाइटी के लोगों ने और प्रभावितों ने काफी विरोध किया. नायडू ने केंद्र सरकार में अपने प्रभाव का ठीक ढंग से इस्तेमाल करके यह सुनिश्चित नहीं किया कि राज्य पुनर्गठन कानून, 2014 ठीक से लागू हो सके और नए राज्य के गठन के लिए पर्याप्त रकम मिल सके. इससे प्रदेश में नायडू के खिलाफ माहौल बना है. इसकी वजह से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में नायडू अच्छा शासन देने वाले नेता की छवि के साथ नहीं जा रहे हैं. इस सदी के शुरुआती सालों में उन्होंने हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देकर यह छवि गढ़ी थी.
नायडू के राजग से बाहर निकलने के बाद आंध्र प्रदेश में भाजपा अपने बूते अपनी स्थिति मजबूत करने में लग गई है. लेकिन पहले के चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन को देखते हुए पार्टी के लिए कोई संभावना यहां नहीं दिखती. 2014 में प्रदेश की 25 सीटों में से भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली थीं. तेलगूदेश को 15 सीटें मिली थीं और वाईएसआर कांग्रेस को आठ. 1999 का चुनाव भाजपा अविभाजित आंध्र प्रदेश में तेलगूदेशम के साथ मिलकर लड़ी थी और अब तक सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए भाजपा ने सात सीटें जीती थीं. आंध्र प्रदेश में भाजपा कभी ताकतवर नहीं रही और अब भी यह प्रदेश में अपनी सहयोगी दल और प्रदेशवासियों की आकांक्षाओं को नहीं पूरा करने की वजह से अलग-थलग ही है. भाजपा के पास यहां कोई समर्पित वोट बैंक नहीं है. टीडीपी के पास कम्मा हैं तो वाईएसआर कांग्रेस के पास रेड्डी, दलित और ईसाई हैं. वहीं पवन कल्याण के पास उनके प्रशंसक और कप्पू समुदाय के लोग हैं.
अपने लिए जगह बनाने की कोशिश में भाजपा कप्पू समुदाय के अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग का फायदा उठाना चाहती है. इसे ध्यान में रखते हुए पार्टी नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करना चाहती है. इसे लगता है कि प्रदेश के कुछ प्रमुख नेता पार्टी के साथ जुड़ सकते हैं. कप्पू समाज के लोगों की गोलबंदी की आखिरी कोशिश पवन कल्याण के बड़े भाई और मशहूर फिल्म अभिनेता चिरंजीवी ने 2009 में प्रजा राज्यम पार्टी बनाकर की थी. चुनावों में इसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और अंततः इस पार्टी का विलय 2011 में कांग्रेस में हो गया. भाजपा यहां मोदी सरकार की वादाखिलाफी के मुद्दे को दबाकर प्रदेश के एक बड़े समुदाय के आरक्षण के मांग को पूरा करने के वादे पर अपनी राजनीति आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है.
भले ही भाजपा के लिए आंध्र प्रदेश में पैर जमाना मुश्किल लग रहा हो लेकिन दक्षिण भारत में वह खुद को मजबूत करना चाहती है. तमिलनाडु को लगता है कि भाजपा उसे धोखा देकर कावेरी जल विवाद में कर्नाटक का साथ दे रही है. क्योंकि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. अधिकांश दक्षिण भारतीय राज्यों को यह लग रहा है कि 15वें वित्त आयोग के भेदभावपूर्ण टर्म आॅफ रिफरेंस की वजह से उन्हें आर्थिक नुकसान होगा.
2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों के पहले भाजपा के लिए स्थानीय नेताओं को आकर्षित करना मुश्किल होगा. क्योंकि आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद मोदी की छवि मजबूत थी तब भी पार्टी को इस काम में दिक्कत हुई थी. अपने सहयोगियों और राज्य सरकारों की मांगों को नहीं मानकर भाजपा अपनी राजनीतिक जमीन सीमित कर रही है. मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों की मौजूदगी में भाजपा के लिए आंध्र प्रदेश में और दूसरे दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करना मुश्किल होगा.
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EPW Hindi Editorials, Economic & Political Weekly EPW
वर्षः 53, अंकः 15, 14 अप्रैल, 2018