नई दिल्ली, 12 अगस्त 2019. चर्चित एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी का कहना है कि अब लोकतंत्र का मतलब खौफ में रहना है और धारा 370 के हटने का पहला शिकार लोकतंत्र हुआ है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अपने ब्लॉग पर जो लंबी टिप्पणी लिखी है, उसके संपादित अंश हम यहां साभार दे रहे हैं –
धारा 370 के हटने का पहला शिकार लोकतंत्र
” डायल किये गये नंबर पर इस समय इन-कमिंग काल की सुविधा नहीं है….” इधर लोकतंत्र के मंदिर संसद में धारा 370 खत्म करने का एलान हुआ और उधर कशमीर से सारे तार काट दिये गये। घाटी के हर मोबाइल पर संवाद की जगह यही रिकार्डेड जवाब 5 अगस्त की सुबह से जो शुरु हुआ वह 6 अगस्त को भी जारी रहा। यूं भी जिस कश्मीरी जनता की ज़िन्दगी को संवारने का वादा लोकतंत्र के मंदिर में किया गया उसी जनता को घरों में कैद रहने का फरमान भी सुना दिया गया।
तो लोकतंत्र को लाने के लिये लोकतंत्र का ही सबसे पहले गला जिस तरह दबाया गया उसके अक्स का सच तो ये भी है कि ना कशमीरी जनता से कोई संवाद या भरोसे में लेने की पहल। ना ही संसद के भीतर किसी तरह का संवाद। और सीधे जिस अंदाज में जम्मू कशमीर राज्य भी केन्द्र शासित राज्य में तब्दील कर दिल्ली ने अपनी शासन व्यवस्था में ला खडा किया उसने पहली बार खुले तौर पर मैसेज दिया अब दिल्ली वह दिल्ली नहीं जो 1988 की तर्ज पर जम्मू कश्मीर चुनाव को चुरायेगी। दिल्ली 50 और 60 के दशक वाली भी नहीं जब संभल-संभल कर लोकतंत्र को जिन्दा रखने का नाटक किया जाता था। अब तो खुले तौर पर संसद के भीतर बाहर कैसे सांसदों और राजनीतिक दलों को भी खरीद कर या डरा कर लोकतंत्र जिन्दा रखा जाता है, ये छुपाने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि लोकतंत्र की नाटकीयता का पटाक्षेप किया जा चुका है।
अब लोकतंत्र का मतलब खौफ में रहना है।
अब लोकतंत्र का मतलब राष्ट्रवाद का ऐसा गान है जिसमें धर्म का भी ध्रुवीकरण होना है और किसी संकट को दबाने के लिये किसी बडे संकट को खडा कर लोकतंत्र का गान करना है।
पर इसकी जरूरत अभी ही क्यों पडी या फिर बीते दस दिनों में ऐसा क्या हुआ जिसने मोदी सत्ता को भीतर से बैचेन कर दिया कि वह किसी से कोई संवाद बनाये बगैर ही ऐसे निर्णय ले लें जो भारत के भीतर और बाहर के हालात के केन्द्र में देश को ला खडा करें।
तो संकट आर्थिक है और उसे किस हद तक उभरने से रोका जा सकता है, इस सवाल का जवाब मोदी सत्ता के पास नहीं है। क्योंकि खस्ता अर्थव्यवस्था के हालात पहली बार कारपोरेट को भी सरकार विरोधी जुबां दे चुके हैं। और कारपोरेट प्रेम भी जब सेलेक्टिव हो चुका है तो फिर संलेक्टिव को सत्ता लाभ तो दिला सकती है लेकिन सेलेक्टिव कारपोरेट के जरिये देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर ला नहीं सकती।
और किसान-मजदूर-गरीबों को लेकर जो वादे लगातार किये हैं उससे हाथ पीछे भी नहीं खिंच सकते।
यानी बीजेपी का पारंपरिक साथ जिस व्यापारी-कारपोरेट का रहा है उस पर टैक्स की मार मोदी सत्ता में सबसे भयावह तरीके से उभरी है। तो आर्थिक संकट से ध्यान कैसे भटकेगा। क्योंकि अगर कोई ये सोचता है कि अब कश्मीर में पूंजीपति जमीन खरीदेगा तो ये भी भ्रम है। क्योंकि पूंजी कभी वहां कोई नहीं लगाता जहा संकट हो। लेकिन कशमीर की नई स्थिति रेडिकल हिन्दुओं को घाटी जरूर ले जायेगी।
यानी लकीर बारीक है लेकिन समझना होगा कि नये हालात में हिन्दू समाज के भीतर उत्साह है और मुस्लिम समाज के भीतर डर है।
यानी 1989-90 के दौर में जिस तरह कशमीरी पंडितों का पलायन घाटी से हुआ अब उनके लिये घाटी लौटने से ज्यादा बडा रास्ता उन कट्टर हिन्दुओं के लिये बनाने की तैयारी है जिससे घाटी में अभी तक बहुसंख्यक मुसलमान अल्संख्यक भी हो जाये। दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी बढ़ जाये।
और सबसे बडी बात तो ये है कि अब कशमीर के मुद्दों या मुश्किल हालात का समाधान भी राज्य के नेता करने की स्थिति में नहीं होंगें। क्योंकि सारी ताकत लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास होगी। जो सीएम की सुनेगा नहीं। यानी सेकेंड ग्रेड सिटीजन के तौर पर कश्मीर में भी मुस्लिमों को रहना होगा। अन्यथा कट्टर हिन्दओं की बहुतायत सिविल वार वाले हालात पैदा होंगें ।
दरअसल कश्मीर की नई नीति ने आरएसएस को भी अब बीजेपी में तब्दील होने के लिये मजबूर कर दिया।
यानी अब मोदी सत्ता को कोई भय आर्थिक नीतियों को लेकर या गवर्नेंस को लेकर संघ से तो कतई नहीं होगा क्योंकि संघ के एंजेडे को ही मोदी सत्ता ने आत्मसात कर लिया है।
याद कीजिये 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध ने संघ की साख खत्म कर दी थी और जब संघ से बैन खत्म हआ तो सामने मुद्दों का संकट था। ऐसे में 21 अक्टूबर 1951 में जब जंनसघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ तब पहले घोषणापत्र में जिन चार मुद्दों पर जोर दिया गया उसमें धारा 370 का विरोध यानी जम्मूकश्मीर का भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण औऱ अल्पसंख्यकों को किसी भी तरह के विशेषाधिकार का विरोध मुख्य था।
औऱ ध्यान दें तो जून 2002 में कुरुक्षेत्र में हुई संघ के कार्यकारी मंडल की बैठक में जम्मू कश्मीर के समाधान के जिस रास्ते को बताया गया और बकायदा प्रस्ताव पास किया गया। संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने शब्दशः उसी प्रस्ताव का पाठ किया। सिवाय जम्मू को राज्य का दर्जा देने की जगह केन्द्र शासित राज्य के दायरे में ला खड़ा किया।
तो आखरी सवाल यही है कि क्या कश्मीर के भीतर अब भारत के किसी भी प्रांत से किसी भी जाति धर्म के लोग देश के किसी भी दूसरे राज्य की तरह जाकर रह सकते हैं? बस सकसे है? तो क्या कश्मीरी मुसलमानों को भी देश के किसी भी हिस्से में जाने-बसने या सुकून की ज़िन्दगी जीने का वातावरण मिल जायेगा? क्योंकि कश्मीर में अब सत्ता हर दूसरे राज्य के व्यक्तियों के लिये राह बनाने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल को भेज चुकी है। लेकिन कश्मीर के बाहर कश्मीरियों के लिये जब शिक्षा-रोजगार तक को लेकर संकट है तो फिर उसका रास्ता कौन बनायेगा?
Democracy is the first victim of the removal of Article 370, now democracy means to remain in awe