श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगाया (Mrs. Indira Gandhi imposed Emergency on 25th June, 1975 in the country)। इससे संविधान और लोकतंत्र का बाल भी बांका नहीं हुआ। बल्कि जिनकी औकात चपरासी बनने की नहीं थी, इस नासमिटे आपातकाल की वजह से वे भी सत्ता का स्वाद चखने में सफल रहे। इतना ही नहीं आज जो सत्ता सुख भोग रहे हैं, वे न भूलें कि इसमें भी आपातकाल की ही असीम अनुकम्पा छिपी हुई है।
कुछ खामियों और ज्यादतियों के बावजूद आपातकाल तो वरदान ही साबित हुआ है। मेरा खुद का निजी अनुभव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
आपातकाल घोषणा के एक माह पहले ही मैं सीधी से ट्रांसफर होकर गाडरवारा आया था। गाडरवारा आने के तीन महीने बाद ही मुझे चार्जशीट दी गई कि ‘आप ड्यूटी पर नहीं पाए गए, अत: 24 घंटे में चार्जशीट का लिखित जबाब दें, अन्यथा क्यों न आपको पी & टी विभाग की सेवाओं से बर्खास्त कर दिया जाये?’
आरोप था कि आप नाइट ड्यूटी के दौरान टेलीफोन एक्सचेंज में ताला डालकर घर चले गए। चूँकि उस दिन तत्कालीन संचार मंत्री स्व. शंकरदयाल शर्मा किसी काम से, दिल्ली से जबलपुर जा रहे थे और गाडरवारा रास्ते में ही पड़ता है। उनसे सौजन्य भेंट के लिये इंतजार कर रहे रामेश्वर नीखरा और नीतिराजसिंह चौधरी, कलेक्टर पटवर्धन इत्यादि नेताओं/अफसरों को पता चला कि मंत्रीजी की गाड़ी गाडरवारा नहीं रुकी। तब उन्होंने तुरंत एक्सचेंज से संपर्क किया, किंतु वहां से कोई जबाब नहीं मिला।
क्योंकि मैं नया-नया था, विभागीय नियमों से पूर्णत: अवगत नहीं था एवं मेरे पास तत्काल रहने का कोई ठिकाना भी नहीं था, अत: ड्यूटी खत्म होने के बाद रात्रि वहीं एक्सचेंज के विश्राम गृह में सो गया। अल सुबह नगर में हड़कम मच गया, कि मुझे चार्जशीट मिल गई है।
यह आपातकाल का ही प्रतिफल (Emergency Result) था कि लोग कुछ डरे हुए से थे और सभी विभागों में कसावट आ गई थी।
आपातकाल की उस छोटी सी गफलत की वजह से मुझे कोई सजा नहीं दी गई। सिर्फ एक लाइन की चेतावनी दी गई। कि ‘आइंदा सावधान रहें’ और तत्काल मेरा ट्रांसफर भी इंदौर कर दिया गया।
उस घटना से सबक सीखकर मैने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से 40 साल ड्यूटी की। फिर किसी नेता मंत्री-अफसर से कभी नहीं डरा, बल्कि भ्रष्ट और बदमाश अधिकारी मुझसे डरते थे।
इस घटना से सबक सीखकर न केवल ड्यूटी सावधानी से की अपितु पढ़ना लिखना भी जारी रखा।
चूंकि इंदौर में तब मजबूत ट्रेड यूनियनें हुआ करतीं थीं, अत: सामूहिक हितों के लिये वर्ग चेतना से लैस कामरेडों का अनुशीलन करने का अवसर भी खूब मिला। इसकी बदौलत अपनी शानदार क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन में लोकल से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संघर्षों में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की और उसी की बदौलत आत्म विश्वास बढ़ता चला गया। हर किस्म का भय काफूर हो गया।
मेरे कानों की पुरानी बीमारी का इलाज भी इंदौर में हो गया। आपातकाल लगना और इंदौर ट्रांसफर होना, मेरे लिये वरदान बन गया।
मेरे अनुज डॉ.परशुराम तिवारी के लिये भी इंदौर में ही सीखने और आगे बढ़ने के लिये बहुत कुछ मिला। हम लोग यदि सीधी, गाडरवारा या सागर में होते तो शायद वह संभव नहीं हो पाता, जो इंदौर में बेहतर संभव हुआ।
मेरे लिये तो आपातकाल का भोगा हुआ यथार्थ यही है। हो सकता है कि किसी को आपातकाल में कुछ नुकसान हुआ हो। किंतु मेरी नजर में तो आपातकाल कुछ मामूली खामियों, त्रुटियों के बावजूद वास्तव में मक्कारों, रिश्वतखोरों और जमाखोरों को ठीक करने का अनुशासन पर्व ही था।
श्रीराम तिवारी
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