वो जो कहा करता था,’सब मिले हुए हैं जी !’ वो भी मिला हुआ था पहले से ही ! !
पर लोग उसके लोकरंजक नारों के चक्कर में आ गए। वह दरअसल हत्यारों की बी टीम था।
यूँ तो रुख से नक़ाब सरकनी ही थी आहिस्ता-आहिस्ता, पर हुआ यूँ कि वह यक-ब-यक जा गिरी ज़मीन पर और वह एकदम नंगा खड़ा मिला अपने कुछ आदर्शों के चीथड़े लपेटे लाज फिर भी ढँकने की नाकाम कोशिश में।
ऐसे ही फिर कोई आयेगा श्रीमान सुथराजी का लबादा ओढ़े और लुभावने नारों की हवा मिठाई बेचते और फिर तुम उसे अपना मसीहा बना लोगे और फिर गच्चा खाओगे और बिसूरोगे।
इसलिए, किसी मसीहा या नायक पर भरोसा मत करो, व्यक्ति या पार्टी की विचारधारा देखो, उसका राजनीतिक प्रोग्राम देखो, उसका आर्थिक-सामाजिक प्रोग्राम देखो, उसका वर्ग-चरित्र देखो, विचारधारा-विहीन राजनीति और राजनीति-विहीन सामाजिक जीवन के जुमलों की ठगी को समझो, कुछ भी विचारधारा और राजनीति से रिक्त नहीं होता।
जो अक्सर कहते हैं कि हमारी कोई विचारधारा नहीं, हम तो सिर्फ़ जनता की भलाई के लिए काम करते हैं, वे अक्सर घोर दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग होते हैं। वे लोकरंजक नारे देते हैं और कुछ सुधार के काम कर भी देते हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में, लोग उनके मुरीद हो जाते हैं और वे लोगों का यह भ्रम बनाए रखने में सफल हो जाते हैं कि इसी व्यवस्था में अगर सही नीयत हो और भ्रष्टाचार न हो, तो लोगों का भला किया जा सकता है।
इस तरह वे पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति की भूमिका निभाते हैं। पहले यह भूमिका सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय वामपंथी निभाते थे, पर अब वे इस लायक भी नहीं रहे। ऐसी सूरत में, पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति की भूमिका निभाने के लिए एनजीओ की साम्राज्यवादी पाठशाला से ट्रेनिंग लेकर केजरीवाल जैसे घोर दक्षिणपंथी लोग आये हैं और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का छद्म-रेडिकल परचम उठाये कुछ लोग आये हैं।
कैसे जन्मी आइडेंटिटी पॉलिटिक्स. How Born Identity Politics?
इस आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की वैचारिकी का जन्म भी 1970 के दशक में अमेरिका के बौद्धिक जगत में ही हुआ था। बाद में, उत्तर-आधुनिकता की वैचारिकी ने उसे और उन्नत बनाया। पहचान की यह राजनीति भी विरोध का छद्म रचते हुए वस्तुतः फासीवाद और दक्षिणपंथी बुर्जुआ राजनीति की ही सेवा करती है।
कविता कृष्णपल्लवी
(लेखिका कवयित्री व एक्टिविस्ट हैं। देर रात के राग… उनका ब्लॉग है। उनकी एफबी टिप्पणी साभार)
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