/hastakshep-prod/media/post_banners/JLFt3m2yqzybcExvT8FG.jpg)
तीन काले कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में आंदोलनरत किसानों को समर्पित एक रचना :-
ठण्ड मुझे भी लगती है,
खुला आसमान, ठंडी हवाएँ,
मुझे भी सताती हैं
यह अलग बात है,
जब मैं सृज़न करता हूँ
मिट्टी से जाने क्या क्या रचता हूँ,
तो मेरे लिए ठण्ड बेमानी हो जाती है,
धरती मेरा कर्मक्षेत्र और
आकाश मेरे कर्म का साक्षी बन जाता है,
घोर ठिठुरन में भी हाथ की अंगुलियों में
अजीब सा जोश होता है,
जिस्म में अजीब सी गर्माहट और
सारी ठिठुरन काफूर हो जाती है,
हम किसान कड़कती धूप और
हाड़ कंपाती ठंड में,
धरती प्रकृति और आकाश से
एकाकार हो जाते हैं,
जिस्म से साकार होते हुए भी,
समाधिस्थ और निराकार हो जाते हैं।
आज दिल्ली की सड़कों पर
ठिठुरन में बैठे हुए हम,
कोई हंगामा नहीं खड़ा कर रहे हैं,
कोई आंदोलन नहीं कर रहे हैं,
खेतों में न सही,
राजमार्ग में बो रहे हैं,
भविष्य के सपने,
यहाँ भी हम सृजन कर रहे हैं
आने वाली नस्लों का मुस्तकबिल,
ताकि उनके श्रम की पूंजी,
कोई चुरा न सके,
कोई लूट न सके,
उनके पसीने की क़ीमत और
उन्हें भी इस देश में शिक्षा,स्वास्थ्य,
मकान, समृद्धि और सम्मान पाने का हक़ हो,
सबसे बढ़कर एक भारतीय के रूप में,
हँसने मुस्कुराने खिलखिलाने,
आगे बढ़ने का हक़ हो।
सड़कों पर बैठे हम किसान ही भारत हैं,
हम ही भारत का वर्तमान हैं,
हमीं भारत का भविष्य हैं,
हम भी किसी के बाप हैं,
किसी की माँ हैं
किसी के बेटे हैं
किसी की बेटी हैं
हमें भी अपनी व्यथा प्रकट करने का अधिकार है,
हमें भी रूठ जाने का अधिकार है,
और जो सरकार हमें मना नहीं सकती,
वह सरकार हमारी हो नहीं हो सकती।
चंद इजारेदारों के कदमों में,
नहीं देख सकते हम बंधक,
अपने देश की संसद और सरकार,
लोकतंत्र की ख़ूबसूरती इसी में है
कि जो लोक कहे
वही करे संसद और सरकार।
/hastakshep-prod/media/post_attachments/FvXHEMO5Wvt4PIF67CjF.jpg)