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Acche Din: Increase in drug prices from Rs 5 to more than Rs 5000
भारत जैसे देश में दवा की महंगाई (Drug inflation in India) बाजार की बनाई हुई है, लागत की नहीं। दवाइयों की महंगाई का हाल ऐसा है कि कई लोग महंगी दवाइयों के अभाव में दम तोड़ देते हैं। कई मजबूर लोग दवा खरीद ही नहीं पाते और बीमारी से जूझते रहते हैं।
वर्ल्ड इनिक्वालिटी डेटाबेस की रिपोर्ट (World Inequality Database report) बताती है कि भारत की 50 प्रतिशत गरीब आबादी की महीने की औसत आमदनी मुश्किल से तकरीबन 4500 रूपये है। ऐसे देश में कुछ जरूरी दवाइयों की कीमत (cost of essential medicines) 5 हजार रूपये से ज्यादा की कीमत पर बिक रही है, तो आप खुद सोच सकते हैं कि सरकार चलाने वाले किस तरह से देश चला रहे हैं।
कमाई और रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं और महंगाई बढ़ती जा रही है। साबुन, तेल, रसाई गैस, पेट्रोल सहित रोजमर्रा की जिंदगी में खपत होने वाला हर सामान की कीमत बढ़ना तो भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृत्ति बन चुकी है। बीमारी से निजात दिलाने वाली दवाओं का हाल ऐसा है कि उनकी कीमतों में अचनाक 5 रूपये से लेकर 5 हजार रूपये तक का इजाफा हो जाता है।
दवाओं और मेडिकल मशीनों की कीमतों को कौन तय करता है? | Who decides the prices of medicines and medical machines? | महँगाई से भी तेज़ी से बढ़ रही जीवन रक्षक दवाओं की क़ीमत (Cost of lifesaving drugs rising faster than inflation)
मेडिकल दवाओं और मशीनों की कीमतों को तय करने का काम नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (National Pharmaceutical Pricing Authority - NPPA) करती है। 22 मार्च को एनपीपीए ने तय किया कि 800 आवश्यक दवाओं और मशीनों की कीमतों में 10.77 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की जाएगी। यह खबर चौंकाने वाली थी क्योंकि पिछले आठ साल में जरूरी दवाओं में कीमतों में औसतन 2.5 प्रतिशत वार्षिक दर से इजाफा हुआ था और अचनाक से 10 प्रतिशत से अधिक का इजाफा हो गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देखा जाए तो खुदरा महंगाई दर जिस रफ़्तार से बढ़ रही है, उससे ज्यादा तेज रफ़्तार से दवाओं की महंगाई बढ़ रही है।
किन आवश्यक दवाओं की कीमतें बढ़ीं? | The prices of which essential medicines increased?
एक अप्रैल से जिन 800 आवश्यक दवाओं की कीमतें बढ़ीं, उसमें एंटीबायोटिक्स, सर्दी-खांसी की दवाएं, कान-नाक और गले की दवाएं, एंटीसेप्टिक्स, एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (anti-inflammatory drugs), दर्द और गैस की दवाएं शामिल हैं। बुखार में काम आने वाली पैरासिटामोल और बैक्टीरियल इंफेक्शन के इलाज वाली एंटीबायोटिक्स एजिथ्रोमाइसिन भी इनमें शामिल है। गर्भवती महिलाओं के लिए फोलिक एसिड, विटामिन और मिनरल्स की कमी को दूर करने वाली दवाएं भी इसी श्रेणी में आती हैं।
यह सब वे दवाइयां हैं जिनका इस्तेमाल हर व्यक्ति कभी न कभी जरूर करता है। या यह कह लीजिये कि यह सब वह दवाइयां हैं जिनका इस्तेमाल सामान्य बुखार से लेकर गंभीर बीमारी के लिए किया जाता है।
एनपीपीए से जारी कीमतों का द हिंदू में विश्लेषण क्या कहता है? What does the analysis of prices released from NPPA say in The Hindu?
अब थोड़ा इसे खुलकर समझने की कोशिश करेंगे तो दिखेगा कि कुछ दवाओं की कीमतों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। द हिन्दु के जस्मिन निहलानी ने एनपीपीए से जारी कीमतों का विश्लेषण कर बताया है कि 384 जरूरी दवाइयों में से तकरीबन 272 दवाइयां ऐसी हैं, जहाँ एक रूपये से लेकर 10 रूपये तक इजाफा हुआ है। 69 दवाइयां ऐसी हैं जिसमें 10 रुपए से लेकर 100 रुपए तक का इजाफा हुआ है। 34 दवाइयां ऐसी हैं जिसमें 100 रूपये से लेकर 1000 रूपये तक का इजाफा हुआ है और 9 दवाइयां एसी हैं जिसमें एक हजार से अधिक का इजाफा हुआ है। इन दवाओं में हृदय रोग, कैंसर, खून की कमी, डायबिटीज, थाइरॉइड, बुखार, संक्रमण के इलाज से जुडी दवाइयां है।
ब्लड प्रोडक्ट और प्लाजमा सब्स्टीट्यूट से जुड़े कुछ दवाओं की कीमत में 100 रूपये से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। एंटीडोट और सांप के जहर से इलाज से जुड़े कुछ दवाओं की कीमत में 60 रूपये से अधिक का इजाफा हुआ है। हेपेटाइटिस बी इम्यूनोग्लोबिन के इलाज (Hepatitis B immunoglobin treatment) में 594 रुपए का इजाफा हुआ है। कैंसर के ट्यूमर के इलाज से जुडी दवा में 171 रूपये का इजाफ़ा हुआ है। कैंसर से जुड़ी इलाज की एक दवा ट्रस्टुज़ूमाब की कीमत में तकरीबन 6500 रूपये का इजाफा हुआ है। दिल का दौरा संबंधित दवा की कीमत (heart attack drug price) में तकरीबन 4200 रूपये का इजाफा हुआ है।
दवा कारोबार के बारे में कहा जाता है कि सरकार अगर चाहें तो जेनेरिक दवाओं की अच्छे से बिक्री हो। ब्रांडेड दवाओं से अकूत मुनाफा कमाने वाला माहौल न बने। लेकिन सरकार, दवाई और इलाज के बीच रिश्ता ऐसा है कि सरकार इस तरह की प्रवृत्ति पर कोई लगाम नहीं लगाती। सरकार चाहें तो जेनेरिक दवाओं का बाजार बड़ा करने में भूमिका निभा सकती है। जेनेरिक दवाओं के तहत दवाओं का केमिकल फोर्मुलेशन वही होता है जो दवा के लिए जरूरी होता है, यह दवाएं सस्ते में भी बिकती हैं। ब्रांड वाले ब्रांड के नाम पर अथाह पैसा लेते हैं। पेटेंट वाले पेटेंट के नाम पर लूटते हैं। जेनेरिक दवाओं की दुकानें कम है। सरकारी जगहों पर भी ब्रांडेड दवाएं बिकती हैं।
जीवन रक्षक दवाओं की कीमतें क्यों बढ़ीं? | Why are life saving drugs so expensive?
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इन दवाओं की कीमत इसलिए बढ़ी है क्योंकि घरेलू दवा कंपनियों के लॉबी समूह (lobby group of domestic pharmaceutical companies) बहुत लम्बे समय से आवश्यक दवाओं की कीमत में 10 प्रतिशत इजाफा के लिए दबाव बना रहे थे। लेकिन इसके कई पहलू हैं, तो चलिए सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं।
आप पूछेंगे कि जब दवा कंपनियां बनाती हैं तो वे कीमत बढ़ाने के लिए सरकार से क्यों कह रही हैं?
इस पर जानकारों का कहना है कि आवश्यक दवाएं यानी एसेंशियल मेडिसिन अनुसूचित लिस्ट के अंदर आती है। ड्रग्स प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013 / औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 (Drugs Price Control Order 2013) के तहत नियम यह है कि आवश्यक दवाओं की कीमत सरकार की अनुमति के बाद थोक बिक्री सूचकांक के आधार पर तय होगी। कीमतों की वार्षिक बढ़ोतरी को सरकार के जरिए नियंत्रित किया जाएगा। अगर थोक बिक्री सूचकांक के आधार पर बढ़ोतरी होगी तो सालाना इजाफा 5 प्रतिशत से अधिक का नहीं हो सकता है। दवाओं के कुल उद्योग में 15 प्रतिशत हिस्सा आवश्यक दवाओं का है। बाकी 85 प्रतिशत दवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी अपने आप 10 प्रतिशत की सालाना दर से की जा सकती है।
फार्मा लॉबी कह रही है कि आवश्यक दवा बनाने के इनपुट कॉस्ट में बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए आवश्यक दवाओं की कीमतों में भी 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी जाए।
दवा कारोबारियों की लागत क्यों बढ़ रही है? Why are drug dealers' costs rising?
इसका जवाब यह है कि जिन घटकों से मिलकर दवा बनती है, जिसे तकनीकी भाषा में एक्टिव फार्मास्यूटिकल ड्रग्स (Active Pharmaceutical Drugs) कहा जाता है उनका लगभग 70 से 80 फीसदी हिस्सा चीन से आता है। दवा की दुनिया से जुड़े कार्यकर्ता कहते हैं कि लगभग 1994 तक भारत इस मामले में स्वनिर्भर था। अधिकतर एपीआई खुद बना लिया करता था, लेकिन वह कंपनियां बर्बाद हो चुकी हैं। भारत चीन पर निर्भर है। अगर कीमतें वहां बढ़ती हैं, तो यहाँ भी बढ़ना तय है। यही हो रहा है।
लेकिन इन सबके बीच भी एक जरूरी पेंच है। दवाई कारोबार को बड़े नजदीक से देखने वाले अमिताभ गुहा बताते हैं कि यह बात ठीक है कि चीन में एपीआई की कीमतें (API prices in China) बढ़ रही हैं, तो दवा बनाने की लागत बढ़ेगी। लेकिन सवाल तो यह भी उठता है कि भारत की एपीआई बनाने वाली कंपनियों को सरकारों ने बर्बाद क्यों कर दिया? इनपुट कॉस्ट बढ़ रही है लेकिन दवा कंपनियों के बैलेंस शीट की छानबीन की जानी चाहिए। उन्होंने खूब कमाई की है। उनका मुनाफा जबरदस्त है। लागत से कई गुना मार्जिन पर वह दवाएं बेचती हैं। कोरोना में जब सब तबाह हो रहा था उस समय भी दवा कंपनियों ने जमकर कमाई की। वह आसानी से बढ़ी हुई कीमतों को सहन कर सकती हैं लेकिन नहीं करना चाहती क्योंकि उन्हें और अधिक मुनाफा कमाना है।
दवाओं का सीलिंग प्राइस कैसे तय होता है?
सीलिंग प्राइस यानी किसी दवाई की सबसे ऊपरी कीमत तय करने के लिए सरकार अमुक दवाई से जुडी उन सभी ब्रांड और जेनेरिक वर्जन की औसत लागत निकालती है जिनका बाजार में हिस्सा एक प्रतिशत से अधिक है। यहाँ पर एक प्रतिशत की शर्त होने की वजह से जेनरिक वर्जन की सभी दवाएं बाहर हो जाती है। डेढ़ लाख करोड़ के दवाओं के कारोबार में 400 करोड़ रूपये का कारोबार जेनेरिक दवाओं का हैं। यानी किसी एक बीमारी से जुड़े किसी एक जेनरिक दवा का शेयर एक प्रतिशत होना नामुमकिन है। इसका मतलब यह हुआ कि केवल ब्रांडेड दवाओं को औसत लागत निकालने में इस्तेमाल किया जाता है। इस औसत लागत के ऊपर 16 प्रतिशत का मार्जिन जोड़कर सीलिंग प्राइस निर्धारित किया जाता है।
सीलिंग प्राइस निर्धारित करने के लिए इस तरीके का विरोध तब से किया जा रहा है जब से यह नियम बना है। दवा कारोबार की बारीकियों को समझने वाले कार्यकर्ताओं की मांग है कि ब्रांडेड कंपनियों की औसत लागत की बजाए किसी भी कम्पनी केवल दवा बनाने से जुड़े तत्वों की लागत के आधार पर मार्जिन जोड़कर सीलिंग प्राइस निर्धारित की जाए। अगर ऐसा नहीं होगा तो अपने आप कीमतें बढ़ जाएंगी।
अमिताभ गुहा कहते हैं कि सरकार को चाहिए कि जेनेरिक दवाओं के लागत पर कीमत निर्धारित करे। जेनरिक दवाएं बहुत कम लागत में बन जाती हैं। उतनी ही असरदार होती हैं जितनी कोई दूसरी दवा। इसलिए सरकार को चाहिए कि जेनेरिक दवाओं की औसत लागत पर सीलिंग प्राइस तय करे। अगर ऐसा होगा तो अपने आप कीमतें कम हो जाएंगी। भारत जैसे देश में दवा की महंगाई बाजार की बनाई हुई है। लागत की नहीं। दवा की महंगाई का हाल ऐसा है कि कई लोग महंगे दवाई के अभाव में दम तोड़ देते हैं। कई लोग दवा खरीद ही नहीं पाते और बीमारी से जूझते रहते हैं। दवा बाजार का आम आदमी विरोधी होना सरकारी नीतियों की ही उपज है। सरकार चाहे तो आम दवा बाजार को आम आदमी लायक बना सकती है, बशर्ते सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो।
अजय कुमार (न्यूज क्लिक)
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