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Afghanistan: India should give a clear message about its interests!
The latest developments in Afghanistan have sent a complex message
अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम ने कई जटिल संदेश भेजे हैं लेकिन उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि यदि योद्धा लक्ष्य प्राप्ति के लिए लड़ रहे हों तो धन, शस्त्र और सैनिकों की अंतहीन आपूर्ति के बावजूद उबड़-खाबड़ भूमि पर कब्जा करने में मदद नहीं कर सकते। पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत वीपी सिंह (Former Prime Minister Late VP Singh) का कहना था कि 'आप पैसे की कमी के कारण चुनाव हार सकते हैं लेकिन आप कभी चुनाव सिर्फ इसलिए नहीं जीत सकते कि आपके पास पैसा है।,
युद्ध और व्यवसाय के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि आप किसी देश की सीमा को धन, बंदूकों या टेक्नालॉजी के अभाव में हार सकते हैं पर आप उसे सिर्फ इसलिए नहीं जीत सकते क्योंकि आपके पास धन, टेक्नालॉजी या मनुष्य बल या बड़े वेतनभोगी सलाहकारों और भाड़े के सैनिकों की बड़ी तादाद है।
वास्तव में प्रश्न यह है कि एक सेना लड़ने के लिए क्यों तैयार होती है और लड़ाई में क्यों बनी रहती है? एक कहावत है कि किसी लड़ाई में कुत्ते की मौजूदगी कम महत्वपूर्ण है बनिस्बत इसके कि कुत्ते में लड़ाई का कितना जज्बा है। जिस अफगान फौज को अमेरिका ने प्रशिक्षित किया था और आशा की थी कि वह अफगानिस्तान की सुरक्षा के कर्तव्य को निभाएगी, वह इस उम्मीद पर खरी नहीं उतरी कि अब इनकी निगहबानी में तालिबान कभी लौट नहीं पाएंगे। जबरन खड़ी की गई इस फौज का एकमात्र उद्देश्य था कि अमेरिकी धन का प्रवाह लगातार बना रहे और यह धन जितना आता गया इसने फौज को उतना ही भ्रष्ट और कमजोर किया। यह तालिबानियों की तारीफ नहीं है लेकिन उनमें कुछ करने का जज्बा था और एक दिशा भी थी जो उनका लक्ष्य था। अमेरिका के समर्थन से बनी अफगान फौज गोरी अमेरिकी सेना के लिए भाड़े के फौजी बने रहे जिन्हें अमेरिका ने युद्ध को निजी व्यवसाय बनाने के अपने उद्देश्य के लिए आयातित कर रखा था।
अमेरिकियों को ये सारी बातें किसी अन्य से ज्यादा मालूम थीं। अफगानिस्तान से सेना की वापसी के अमेरिकी सरकार के फैसले पर आश्चर्य, गुस्सा या आलोचना करनी हो तो करें पर इस बात पर किसी को संदेह नहीं था कि यहां तालिबानियों की वापसी होगी। कम से कम अमेरिकी दृष्टिकोण से देखें तो भले ही यह तुरंत न हो पर इस स्थिति को टालना असंभव था। जो कुछ भी तत्काल नतीजे सामने आए हैं वे उसके साथ ही रहना चाहते हैं और यह इतना बुरा भी नहीं है जितना पहले संपर्क माध्यमों में बताया जा रहा था। यह इसलिए है क्योंकि अब पता चल गया है कि अमेरिका यह सब समझता था और इसलिए उसने तालिबानी नेताओं से दोस्ताना संपर्क बनाये रखे थे।
Afghanistan: The Perfect Failure
तालिबानियों की वापसी के संकेत दुनिया को आज नहीं बल्कि एक दशक पूर्व ही मिल चुके थे। सैन्य मामलों के विश्लेषक जॉन कुक (Military Affairs Analyst John Cook) ने 2012 में अपनी पुस्तक 'अफगानिस्तान : द परफेक्ट फेलियर', में लिखा था-
'यदि अफगान सिपाही यह महसूस करते हैं कि वे अपनी यूनिट छोड़ सकते हैं तो वह बिना किसी हिचक के छोड़ देंगे और उन्हें इसकी कोई सजा भी नहीं मिलेगी। यदि उनके मन में वापसी की इच्छा होगी तो वे वापस आ जाएंगे। यदि वे लौटते नहीं हैं तो उनकी जगह नए लोगों को भर्ती कर लिया जाएगा। वे फौज में सिर्फ एक कारण से हैं और वह कारण है पैसा।,
उसने लिखा था कि अफगानी फौज और ऊर्जा से भरे प्रतिबद्ध तालिबानियों के बीच का अंतर समझना आसान है लेकिन इसे सही करना असंभव है।
समय के साथ यह स्थिति और बिगड़ती गई। जब ट्रम्प प्रशासन ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अफगानिस्तान से फौज की वापसी के लिए कटिबद्ध है तो पिछले दो वर्षों में पतन की यह रफ्तार और तेज होती गई। अफगानिस्तान में तालिबानियों के आने के पहले ही सेना ने अपनी चौकियां खाली कर दी थीं।
तालिबानियों के पास अफीम के अवैध व्यापार से काफी धन है। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ पीस की 2021 की रिपोर्ट (American Institute of Peace's 2021 report) के अनुसार, अफगानिस्तान विश्व में अवैध अफीम का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है जिसके जरिए वह तीन अरब बिलियन अमेरिकी डॉलर की कमाई कर रहा है। इस धंधे में करीब छह लाख पूर्णकालिक लोग काम कर रहे हैं जो अफगानी सुरक्षा बलों में काम कर रहे लोगों की संख्या से दो गुना ज्यादा है।
तालिबानियों की वापसी की अपरिहार्यता के बारे में विभिन्न अमेरिकी एजेंसियों की रिपोर्ट पढ़ने लायक है। उदाहरण के लिए, सिगार (स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ अफ़गानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन) की 46वीं तिमाही रिपोर्ट में कहा गया है कि अक्टूबर-दिसंबर, 2019 की तिमाही में प्रतिदिन 'दुश्मन, के 90 हमले हुए। इस तिमाही में कुल 8204 हमले हुए जो इस पूरे दशक में सर्वाधिक थे। हमले बढ़ने पर अफगानी फौजों ने अपनी ओर से सिर्फ 31 प्रतिशत हमलों का जवाब दिया। अफगानी फौज अधिकांश समय मादक पदार्थों के सेवन के कारण बेसुध, थकी हुई और नींद लेने की इच्छुक तथा आदेशों के प्रति अनादरपूर्ण रवैया अपनाने वाली थी। 2019 की समाप्ति तक अमेरिकी फौजों ने कमान संभाली और 70 फीसदी हमलों का प्रतिकार किया।
What was New Delhi thinking when the situation in Afghanistan was getting worse?
सवाल यह उठता है कि जब अफगानिस्तान में स्थिति बदतर हो रही थी तो नई दिल्ली की क्या सोच थी? क्या किसी ने इस बात पर ध्यान दिया था? भारतीय उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने अफगानी राष्ट्रपति डॉ. मोहम्मद अशरफ गनी से कहा था कि 'अफगानिस्तान में स्थिरता और समृद्धि तभी आ पायेगी जब वे पिछले 18 वर्षों की उपलब्धियों को सहेज कर रखते हैं।,
गुटनिरपेक्ष देशों के 18वें शिखर सम्मेलन के मौके पर यह बात सामने आई थी कि सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज (Center for Strategic and International Studies) चेतावनी दी थी कि 'अफगानी संसद के चुनाव के बाद अफगान सरकार का अस्तित्व अनिश्चित है और यह वैसी ही कमजोर तथा असरहीन होगी जैसी यह अपने गठन के पहले थी।,
बाद में अमेरिका को यह कहते सुना गया कि 'तालिबान एक अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन नहीं है और उसका अमेरिका पर हमला करने के इरादे के कोई सबूत नहीं हैं।, (अफगानिस्तान स्टडी ग्रुप फाइनल रिपोर्ट, यूएस इंस्टिट्यूट ऑफ पीस, 2021)
भारत सरकार ने पिछले वर्ष तालिबान से बातचीत करने की शुरुआत की थी लेकिन देरी से किए गए प्रयास, बातचीत तेज करने की स्पष्ट अनिच्छा और आधे-अधूरे मन से की गई कोशिशों का नतीजा यह निकला कि आज अफगानिस्तान में तालिबानियों का नेतृत्व कर रहे लोगों पर उसका प्रभाव अच्छा नहीं है जबकि अन्य ताकतों ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है।
पिछले महीने ही विदेश मंत्री पी. जयशंकर ने कहा था कि 'हम इस मामले में बहुत स्पष्ट हैं कि अफगानिस्तान में बातचीत के जरिए राजनीतिक समाधान निकाला जाना चाहिए। अफगानिस्तान में बल प्रयोग के जरिए सत्ता अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। हम ऐसा कोई समाधान स्वीकार नहीं करेंगे जो बल प्रयोग करने का नतीजा हो।, यह वह समय था जब चीन तालिबानियों के साथ औपचारिक बैठकें कर रहा था। अफगान सरकार के तालिबानियों से अकेले लड़ने और जीतने की उम्मीद अमेरिकियों के अफगानिस्तान में बने रहने और सरकार को मदद करने तक ही सीमित थी। भारत सरकार की नीतियां अमेरिका के निजी स्वार्थों और अस्थिर नीतियों के अधीन दिखाई देती हैं।
इस स्तर पर भारत काफी असहज स्थिति में दिखाई दे रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान ने भारत सरकार से कहा है कि वह अफगानिस्तान से अपने नागरिकों को निकालने के पहले वहां अपनी राजनयिक उपस्थिति बनाए रखे।
India should give this clear message to Taliban through talks
तालिबानियों का यह आग्रह एक अच्छा संकेत है। आखिरकार भारत जैसी सैनिक और राजनीतिक शक्ति कब तक खामोश बैठ सकती है जब अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, यहां तक कि रूस ने भी तालिबान से चर्चा आरंभ कर दी है। भारत को वार्ता के जरिए तालिबान को यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि यह उसके हित में है कि वह भारत विरोधी गतिविधियों को किसी प्रकार का समर्थन न करे और इस तरह भारतीय हितों को सुरक्षित किया जाए।
कूटनीति की मांग है कि वार्ता के द्वार हमेशा खुले रखे जाएं और विश्वास का माहौल बनाया जाए तथा प्रत्यक्ष सहयोग के क्षेत्रों को तलाशा जाए, भले ही तालिबान कितनी भी नफरत करने वाले दिखाई देते हों। यही एक मार्ग है जिसके जरिए भारत अफगानिस्तान में अपने हितों एवं वहां की बुनियादी अधोसंरचना में सुधार और अन्य परिसंपत्तियों में किए गए अपने निवेश की रक्षा कर सकता है। यदि ऐसा जल्दी नहीं किया गया तो अमेरिका अफगानिस्तान में लड़ाई हार ही चुका है, भारत भी यह लड़ाई हार जाएगा। उसे अपने हितों को छोड़ देना पड़ेगा और एक असहाय मूकदर्शक की तरह यह सब देखना होगा। यह कुछ ऐसा ही होगा कि हमने एक ऐसा युद्ध लड़ा जो हमारा था ही नहीं और जिसे हम हार रहे हैं।
- जगदीश रत्तनाणी
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(देशबन्धु में प्रकाशित लेख का संपादित रूप साभार)