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आखिर डेढ़ पसली के गांधी से कौन डरता है?

सत्ताधारियों का गोडसेवादी हिंदुत्व न तो संतों की परंपरा का है और ना गांधी की

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हे राम ! महिषासुर की जगह पर गांधी जी की मूर्ति !

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गांधी जी की 153वीं जयंती पर कोलकाता में एक पूजा पंडाल में जो कुछ हुआ, उसने बहुतों को चौंकाया जरूर होगा, लेकिन उसमें वास्तव में अचरज वाली कोई बात नहीं थी। दक्षिण-पश्चिम कोलकाता में रूबी क्रासिंग के पास बनाए गए पूजा पंडाल में, दुर्गा के महिषासुर-मर्दिनी रूप के चित्रण में, महिषासुर की जगह पर गांधी जी की मूर्ति लगा दी गयी, जिसके दुर्गा के हाथों ‘‘वध’’ का चित्रण किया गया था। यह पूजा पंडाल, आधिकारिक रूप से अखिल भारतीय हिंदू महासभा द्वारा लगाया गया था।

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अचरज की बात नहीं है कि जब एक पत्रकार ने इस चित्रण की तस्वीर सोशल मीडिया में डाल दी, तो काफी हो-हल्ला हुआ। इसके खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए लोगों ने सोशल मीडिया पर पुलिस को तथा अन्य शीर्ष अधिकारियों को यह तस्वीर टैग करनी शुरू कर दी। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने भी गांधी जयंती पर ऐसी शर्मनाक हरकत की निंदा की। उसके बाद, इस पंडाल की आयोजक अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने सावरकारी ‘‘वीरता’’ की अपनी परंपरा का पालन करते हुए, गांधी के इस बेहूदा चित्रण की जिम्मेदारी लेने से इस झूठे बहाने से इंकार ही कर दिया कि ऐसा चित्रण ‘‘महज संयोग’’ था, यानी जो चित्रण दिखाई दे रहा था, मूर्ति का वह आशय तो था ही नहीं!

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किस असुर का वध दिखाना चाहती थी अखिल भारतीय हिंदू महासभा?

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यह भी गौरतलब है कि अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राज्य कार्यकारी अध्यक्ष, चंद्रचूड़ गोस्वामी ने यह सरासर झूठा तथा अस्वीकार्य बहाना बनाते हुए भी, यह बताने की कोई जरूरत तक नहीं समझी कि इस पूजा पंडाल के चित्रण का आशय क्या था? वे किस असुर का वध दिखाने चले थे, जबकि गांधी की जैसी प्रस्तुति हो गयी?

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जाहिर है कि ऐसा साफ-साफ झूठा बहाना बनाना इस तथाकथित हिंदुत्ववादी राजनीतिक पार्टी को इसीलिए पर्याप्त लगा क्योंकि उसे पता था कि ‘‘राष्ट्रपिता’’ के सोचे-समझे निरादर के उसके अपराध को, विभिन्न स्तरों पर शासन में बैठे लोग ‘‘अपराध’’ तो नहीं ही मानते हैं और उसके प्रति मुखर नहीं तो मौन-अनुमोदन से लेकर ‘‘हमें क्या’’ तक का ही भाव रखते हैं!

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यह संयोग ही नहीं है कि इस शर्मनाक हरकत पर राजनीतिक पार्टियों समेत सभी ओर से काफी नाराजगी जताए जाने के बावजूद, कोलकाता पुलिस ने ‘‘कार्रवाई’’ के नाम पर, संबंधित पूजा पंडाल के आयोजकों पर दबाव डालकर, उन्हें मूर्ति शिल्प के बापू वाले हिस्से के चेहरे पर मूंछ तथा सिर पर विग लगाने के जरिए, उसे ‘बापू जैसे से गैर-बापू जैसा’ बनाने के लिए तैयार कर लेना ही ‘‘पर्याप्त’’ समझा! और हां! इसके अलावा पुलिस ने, इस पूजा पंडाल के पहले वाले चित्रण की तस्वीर सोशल मीडिया में साझा करने वाले पत्रकार को, इस महत्वपूर्ण त्यौहार में अशांति की ‘‘आशंका’’ के नाम पर, उस तस्वीर को हटाने के लिए ‘‘राजी’’ करने की मुस्तैदी जरूर दिखाई। यानी अपने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के विरोधी होने का दम भरने वाली और वास्तव में सबसे बढ़कर इसी दावे के आधार पर तीसरी बार सत्ता में आयी तृणमूल कांग्रेस के राज में भी, इस पूरे मामले को महज ‘चित्रण की चूक तथा उसके सुधार लिए जाने’ का ही मामला बनाकर दफ्न कर देने की कोशिश की गयी है।

और इस कोशिश निर्लज्जता तब और भी बेपर्दा हो जाती है, जब हम उसी कोलकाता में रासबिहारी में दुर्गापूजा पंडाल के बाहर मार्क्सवादी तथा प्रगतिशील साहित्य के सीपीएम के बुक स्टॉल पर, सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के गुंडों के हमले और इस हमले का विरोध करने पर, तृणमूल के गुंडों तथा ममता राज की पुलिस के संयुक्त हमले और बाद में इसी सिलसिल में सांसद बिकास रंजन भट्टाचार्य समेत अनेक बुद्धिजीवियों व कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियों की खबर पर गौर करते हैं!

और रही बात हिंदुत्ववादी कुनबे की हिंदू महासभा द्वारा बापू के  उक्त अपमान के खिलाफ केंद्र की उस सरकार की, जो अपने हिंदुत्ववादी होने को तमगे की तरह धारण करती है, उसने तो इस सब को देखते हुए भी नहीं देखने की मुद्रा अपनाना ही काफी समझा।

इस तरह, आजादी के पचहत्तर साल बाद, तथाकथित ‘‘अमृत काल’’ के नाम पर देश उस जगह पर तो पहुंच ही चुका है जहां महात्मा गांधी कहने को भले ही ‘‘राष्ट्रपिता’’ बने हुए हों, बिना किसी तरह के दंड या जवाबदेही की चिंता के, उनकी हत्या की अभिलाषा के प्रदर्शन समेत, उनका सार्वजनिक रूप से अपमान किया जा सकता है!

महात्मा गांधी के प्रति हत्याभिलाषी घृणा का प्रदर्शन

जाहिर है कि यह कोई पहला मौका नहीं है जब खुद को हिंदुओं के हितों का रखवाला बताने वालों ने महात्मा गांधी के प्रति सार्वजनिक रूप से अपनी हत्याभिलाषी घृणा का प्रदर्शन किया है। इस घृणा का सबसे जघन्य प्रदर्शन तो देश के स्वतंत्र होने के फौरन बाद, 30 जनवरी 1948 को ही कर दिया गया था, जब बिड़ला भवन में प्रार्थना सभा में जा रहे निहत्थे गांधी की षड़यंत्रपूर्वक हत्या कर दी गयी थी। गिनती के हिसाब से यह गांधी की हत्या की पांचवीं या छठी कोशिश थी, जिसमें हत्यारे अपने मंसूबों में कामयाब रहे थे। इससे पहले, इसी हमले की चंद दिन पहले की गयी विफल कोशिश के अलावा, बम विस्फोट के जरिए भी हत्या की एक कोशिश की गयी थी और एक कोशिश 1943 में नाथूराम गोडसे द्वारा ही गांधी पर चाकू से हमले की भी की गयी थी।

गांधी जी ने ही सबसे मजबूती से अंत तक भारत विभाजन का विरोध किया था..

गोडसे द्वारा ही गांधी की हत्या की उक्त पहले की कोशिश से यह साफ है कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताकतों द्वारा बाद में लगातार किए जाते रहे प्रचार के विपरीत, जिसको मौजूदा सत्ताधारी हलकों का बहुत भारी अनुमोदन हासिल है, गांधी की हत्या का देश के विभाजन से पैदा हुई उत्तेजना से कुछ लेना-देना नहीं था। उल्टे ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि गांधी ने ही सबसे मजबूती से और अंत-अंत तक विभाजन का विरोध किया था।

इसके उलट, न सिर्फ विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष के नाते, पहले-पहल द्विराष्ट्र यानी हिंदुओं और मुसलमानों के अलग-अलग राष्ट्र होने का सिद्धांत तथा हिंदुओं के लिए हिंदू राष्ट्र का दावा पेश किया था, जिसको बाद में मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान की मांग में तार्किक परिणाम तक पहुंचाया था; तीस के दशक के आखिर में भारत की इच्छा के बिना ही उसे जबर्दस्ती विश्व युद्ध में धकेलने के ब्रिटिश हुकूमत के फैसले के खिलाफ जब कांग्रेस ने प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया था, सावरकर के ही नेतृत्व में हिंदू महासभा ने, इसे अपने लिए अच्छा मौका मानकर मुस्लिम लीग के साथ बंगाल, पंजाब तथा सीमांत प्रांत समेत, अनेक प्रांतीय सरकारें बनायी थीं।

इसी दौरान हिंदू महासभा तथा उसकी साझे की सरकारों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत को, भारत छोड़ो आंदोलन समेत, ब्रिटिश राज के विरोध के आंदोलनों को निर्ममता से कुचलने के लिए मशविरे दिए जाने समेत, हर प्रकार की सहायता मुहैया करायी जा रही थी।

दिलचस्प बात यह है कि महात्मा गांधी की हत्या की इन पांच-छह कोशिशों में, सिर्फ पहली कोशिश का ही परोक्ष संबंध विदेशी ब्रिटिश हुकूमत से था, जिसमें चम्पारण में गांधी के नील की खेती करने वाले किसानों को जगाने से बौखलाए, नील की खेती कराने वाले एक ब्रिटिश मैनेजर ने, गांधी को भोजन पर आमंत्रित करने के बाद, अपने मुस्लिम खानसामा से गांधी को खाने में जहर दिलाने की कोशिश की थी। लेकिन, बत्तख मियां नाम के खानसामे ने, ब्रिटिश अफसर का मनचाहा करने से इंकार कर दिया और गांधी को, अंतत: हिंदुओं के हितों के रक्षक होने का दावा करने वालों द्वारा षड़यंत्रपूर्वक मारे जाने लिए बचा लिया।

Batakh Miya Ansari

Mahatma Gandhi Battakh Miyan Ansari

जैसा कि सरदार पटेल ने स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री तथा उपप्रधानमंत्री की हैसियत से, गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध (RSS banned after Gandhi's assassination) लगाते हुए और सावरकर को गांधी की हत्या के षड़यंत्र के लिए आरोपी बनाने समेत, हिंदू महासभा पर कड़ी कार्रवाई करते हुए कहा था, इन संगठनों की नफरत की विचारधारा ने वह हिंसक नफरत का वातावरण बनाया था, जिसमें अनेक निर्दोषों की जानें गयी थीं और इनमें एक सबसे अमूल्य प्राण बापू के थे। यह हिंसक नफरत सिर्फ बापू के लिए नहीं थी। यह हिंसक नफरत तो राष्ट्र के उस समावेशी विचार के खिलाफ थी, जो भारत में रहने वाले सभी लोगों को बराबरी के दर्जे का भरोसा दिलाते हुए, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में एकजुट करता था। सभी भारतीयों की समानता और एकता से ही, एक ओर विदेशी हुकूमत को सबसे ज्यादा डर लगता था और दूसरी ओर, आरएसएस तथा हिंदू महासभा जैसी ब्राह्मणवादी सांप्रदायिक ताकतों को तथा उनके मुस्लिम समकक्षों को भी।

अचरज नहीं कि आजादी की लड़ाई के लंबे दौर में अनेक महत्वपूर्ण मुकामों पर, जिनमें से भारत छोड़ो आंदोलन तो सिर्फ एक है, हिंदू और मुस्लिम दोनों की एक-दूसरे के खिलाफ हिमायती होने की दावेदार सांप्रदायिक ताकतें, भारतीय जनता के ब्रिटिश उत्पीडक़ों के पीछे खड़ी रही थीं। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि ये सांप्रदायिक ताकतें खासतौर पर बीसवीं सदी के बीस, तीस तथा चालीस के दशकों में लगातार, ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन को उसी प्रकार भीतर से तोडऩे में लगी रही थीं, जैसे अधिकांश देसी राजे-रजवाड़े लगे रहे थे।

समावेशी राष्ट्रवाद बनाम परवर्जी या बहिष्कारी राष्ट्रवाद की इस लंबी लड़ाई (The long battle of inclusive nationalism vs. parasitic or exclusionary nationalism) में, महात्मा गांधी चूंकि समावेशी राष्ट्रवाद के सबसे बड़े और सबसे असरदार झंडाबरदार थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन में आम भारतीयों को खींचने में अकल्पनीय कामयाबी हासिल की थी, विदेशी हुकूमत तो उन्हें अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती ही थी, ये सांप्रदायिक ताकतें भी उन्हें ही अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानती थीं। जहां मुस्लिम सांप्रदायिकता की ताकतें इस समावेशी राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले मौलाना आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खां जैसे मुस्लिम नेताओं को खासतौर पर निशाने पर रखती थीं, वहीं हिंदू सांप्रदायिकता की ताकतों की नफरत गांधी पर और भी ज्यादा केंद्रित थी, जिन्होंने ‘‘महात्मा’’ की अपनी साख का सहारा लेकर, हिंदुओं के सांप्रदायीकरण की उनकी कोशिशों को न सिर्फ बहुत मुश्किल बना दिया था बल्कि उसी साख के सहारे, खुद को हिंदू मानने वालों के बीच सदियों से जमी हुई छूआछुत पर केंद्रित जातिवादी व्यवस्था की वैधता को भी, काफी कमजोर कर दिया था। यही नफरत, गांधी को हिंदुओं के तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बरक्स, जो कि वास्तव में धर्म-आधारित सवर्ण राष्ट्रवाद ही था, ‘‘भौगोलिक राष्ट्रवाद’’ का पैरोकार घोषित करने से लेकर, उन्हें हिंदुओं का असली दुश्मन घोषित करने तक जाती थी।

   ठीक यही सांप्रदायिक नफरत आजादी के फौरन बाद उनकी हत्या तक ले गयी। यह नफरत भारत विभाजन की त्रासदी के शिकार हिंदुओं के तकलीफों तथा गुस्से को भुनाने की कोशिश तो थी, लेकिन न उसका नतीजा थी और न उसका बदला। वह तो उन अस्थिर हालात में, नये शासन के स्थिरता हासिल करने से पहले ही, हिंसा के जरिए सत्ता पर काबिज होने की आखिरी हताश कोशिश के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा को हटाने की सुनियोजित कार्रवाई थी। लेकिन, हिंदू सांप्रदायिकता की ताकतों के दुर्भाग्य से उनकी यह चाल बिल्कुल उल्टी पड़ गयी। सरदार पटेल के नेतृत्व में गृह मंत्रालय ने उन पर फौरी तौर पर पाबंदियां तो लगायी हीं, गांधी की हत्या ने इन ताकतों को किसी भी प्रकार की सत्ता से, बहुत-बहुत दूर धकेल दिया।

   लेकिन, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताकतों ने भी अपना खेल बिगाड़ने के लिए, गांधी को कभी माफ नहीं किया। उनकी कतारों में पर्दे के पीछे, हमेशा गोडसे का महिमा मंडन चलता रहा और गोडसे की ‘‘गांधी वध क्यों?’’ को अनिवार्य शिक्षण के तौर पर कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों को पढ़ाया जाता रहा। गुमचुप तरीके से गांधी की प्रतिमाओं को विकृत भी किया जाता रहा और प्रकटत: उन्हें राष्ट्रपिता मानने से इस आधार पर इंकार भी किया जाता रहा कि हमारे इतने पुराने राष्ट्र का, ऐसा कोई ऐतिहासिक पुरुष कैसे ‘‘राष्ट्रपिता’’ हो सकता है?

और अब जबकि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की इन ताकतों के हाथ में असली सत्ता आ चुकी है, न सिर्फ इतिहास को बदलकर गांधी, भगतसिंह और नेताजी के साथ सावरकर को बैठाया जा रहा है बल्कि गांधी की हत्या को ही अगर उचित नहीं भी ठहराया जा रहा है तब भी आधिकारिक रूप से छुपाया तो जरूर ही जा रहा है। यह गांधी को स्वच्छता मिशन के ब्रांड एंबेसडर तक सीमित करने के जरिए ही नहीं किया जा रहा है बल्कि पाठ्यपुस्तकों में यह पढ़ाने की कोशिशों के जरिए भी किया जा रहा है कि गांधी को किसी गोडसे नहीं मारा था; उन्होंने या तो आत्महत्या की थी या प्राकृतिक कारणों से उनकी मौत हुई थी।

हिंदुत्ववादी राज में गांधी का वध और गोडसे का मंदिर ?

उधर सार्वजनिक स्तर पर, गोडसे को देशभक्त साबित करने से लेकर, उसके मंदिर बनाने तक की कोशिशें मौजूदा हिंदुत्ववादी राज में ज्यादा से ज्यादा जोर पकड़ती गयी हैं। इसी सिलसिले की एक कड़ी के तौर पर दो साल पहले गांधी जयंती पर ही अलीगढ़ में हिंदू महासभा की नेता पूजा शकुन पांडे ने, जो उसके बाद से प्रमोशन पाकर बहुत ऊंची व उग्र साध्वी बन गयी हैं, एक वीडियो रिकार्डेड प्रदर्शन में, गोडसे का कृत्य दोहराते हुए, गांधी के पुतले पर, जिसमें खून का आभास देने वाला बाकायदा लाल रंग का गाढ़ा तरल भरा गया था, तीन गोलियां मारी थीं। भारतीयों की एकता के सबसे बड़े पुजारी, गांधी के प्रति इसी हत्याभिलाषी नफरत को, बंगाल की पौने दो इंजन की सरकार के सहारे, दुर्गा के हाथों असुर-गांधी के वध तक पहुंचाया गया है।

भागवत को ‘‘राष्ट्रपिता’’ कहना संयोग नहीं प्रयोग है

यह भी संयोग ही नहीं है कि इससे पहले ही, इसका सुझाव भी आ चुका था कि अब आरएसएस सुप्रीमो, भागवत को ‘‘राष्ट्रपिता’’ घोषित कर दिया जाना चाहिए! अगली 30 जनवरी को, गांधी की हत्या के 75 साल पूरे हो जाएंगे। बेशक, उस डेढ़ पसली के शख्स का कुछ तो डर है कि हिंदुत्ववादी, उसे मार कर 75 साल बाद भी निश्चिंत नहीं हो पाए हैं और बार-बार मारते ही जा रहे हैं।

राजेंद्र शर्मा

महात्मा गांधी का पुनर्पाठ-पहला एपिसोड- जनांदोलन, हिंसा और फ़ासिज़्म | hastakshep |

After all, who is afraid of one and a half rib Gandhi?

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