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मोदीशाह घटना बन सकते हैं लेकिन इतिहास नहीं
चकरघिन्नी अन्धभक्तों के बीच मोदीशाह का रथ
After Modi's entry into central politics, two things happened in BJP
मोदी के केन्द्रीय राजनीति में आने के बाद भाजपा में दो काम हुये। पहला काम तो यह हुआ कि भाजपा का केवल नाम रह गया और सारी पार्टी नरेन्द्र मोदी व अमित शाह जैसे दो जिस्म एक आत्मा में सिमिट कर रह गयी। पुरानी पार्टी में अडवानी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा जैसे एक दो दर्जन जो बड़े नाम थे उन्हें उम्र के आधार पर मार्गदर्शक मंडल के नाम किनारे कर दिया गया या राज्यपाल आदि बना कर मुख्य धारा से दूर कर दिया गया।
Rajnath Singh was already 'Alice in Wonderland'
इसके बाद जो पुराने सक्रिय लोग रह गये थे उन्हें असमय ही मृत्यु ने निगल लिया। गोपीनाथ मुंडे, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, अनंत कुमार, अरुण माधव दवे, मनोहर पार्रीकर, कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर आदि इस बीच नहीं रहे। जसवंत सिंह, अस्वस्थ हो गये तो अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, व उमाभारती आदि के विरोध को बेमानी कर दिया गया। राजनाथ सिंह तो पहले ही ‘एलिस इन वन्डरलैंड’ थे, धीरे धीरे उनका अकेलापन बढता ही गया। चुनावी सफलता के बाद तो लम्बे समय तक सत्ता से दूर रहे भाजपा नेता भी मानने लगे कि सत्ता मोदी के नाम पर ही मिल सकती है, सो उन्होंने उन्हें ही ‘त्वमेव माता, च पिता त्वमेवं’ की तर्ज पर नरेन्द्र मोदी को और उनके सबसे विश्वासपात्र अमित शाह को सर्वेसर्वा के रूप में स्वीकार कर लिया। ‘ फिर उसके बाद चरागों में रौशनी न रही’। दूसरी ओर मोदी ने अपनी भाषण कला और गुजरात के आंकड़ों से ऐसे अन्धभक्तों की बड़ी भीड़ जुटा ली जो अपने देवता के बारे में केवल अच्छा बोलना, सुनना व देखना ही पसन्द करते थे। कार्यवाही की धमकियों और सफलता के सपनों से उन्होंने विभिन्न दलों के दागी लोगों को सम्मलित कर लिया जो सीधे उन्हीं के शरणागत थे। इसके साथ ही 44 दूसरे दलों को चुनावी गठबन्धन में शामिल कर लिया।
दूसरा सत्ता केन्द्र उदित होने से संघ के लोग सशंकित तो थे किंतु उन्हें भी उनके ही एजेंडे को लागू करने के संकेत देकर मना लिया गया।
2019 के आम चुनाव में मीडिया के अधिकांश चुनावी विश्लेषकों को मोदी की सफलता कम नजर आ रही थी, किंतु वे न केवल जीत गये अपितु पहले से अधिक सीटें प्राप्त कर जीते। विधानसभाओं में दलबदल व खरीद फरोख्त से सरकारें बना लीं। अब केवल मोदी ही मोदी थे। राज्यसभा के कुछ लोगों से सौदा समझौता कर अल्पमत को बहुमत में बदल लिया। विरोधियों को ईवीएम में गड़बड़ नजर आयी, देश हतप्रभ होकर रह गया। किंतु अन्धभक्तों को मोदी की विजय पताका से जयजयकार का मौका मिला। देश भर में ऐसे मोदी अन्धभक्तों के समूह दिखने लगे जो किसी विचारधारा की जगह मोदी को उद्धारक के रूप में देखने लगे।
सीमा और आतंक प्रभावित क्षेत्रों में भी सुरक्षा की कमजोरियों को भी गलत प्रचार के द्वारा अन्धभक्त विजय मानने लगे व असहमत लोगों को देशद्रोही समझने लगे।
ऐसे माहौल में कुछ महीनों बाद ही मोदीशाह पार्टी की लगातार चुनावी हारों ने उस बाल्टी की असलियत को उजागर कर दिया है जिसे साबुन का झाग उठाकर भरी दिखाया जा रहा था। चुनावों से पहले कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने, कश्मीर राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्र में बांटने के बाद भी हरियाणा में अल्पसंख्यक सरकार बनानी पड़ी व धुर विरोधियों से उनकी शर्तों पर समझौता करना पड़ा।
देश की आर्थिक राजधानी वाले राज्य महाराष्ट्र में जिस तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति के पदों का दुरुपयोग करने के बाद भी मुँह की खानी पड़ी और अपने पुराने सहयोगी को विरोधी बनाना पड़ा, उससे बड़ी किरकिरी हुयी है।
पश्चिम बंगाल के तीन विधानसभाओं में हुये उपचुनावों में उनके प्रदेश अध्यक्ष समेत तीनों में मिली हार ने उनके गुब्बारे की हवा निकाल कर रख दी है। झारखण्ड विधान सभा चुनावों में उनके गठबन्धन सहयोगी जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी का समांतर रूप से लड़ना व भूमिहारों के प्रमुख नेता सरयू राय का छिटक कर मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव में उतरने से जो छवि धूमिल हो रही है उसके परिणाम दूरगामी होंगे।
मीडिया के अनुमानों के अनुसार झारखण्ड में दोबारा से भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनने नहीं जा रही है। कमोवेश दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी इसी तरह के संकेत हैं।
लगातार बढती बेरोजगारी, मन्दी और गिरती अर्थव्यवस्था के ठोस संकेतों के बीच प्रज्ञा ठाकुर जैसे बयानों के सहारे जनता को कितने दिन तक भटका सकेंगे। मोदीशाह यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि उन्होंने इतने गम्भीर आरोपों में कैद रही महिला को टिकिट देकर लोकसभा में क्यों भिजवाया। जिन दिग्विजय सिंह से वे भयभीत थे वे तो पहले से ही संसद में हैं। मीडिया बार-बार संकेत दे रहा है कि प्रज्ञा ठाकुर का बयान उनका निजी बयान नहीं है और एक सोची समझी कूटनीति के अंतर्गत दिलवाया गया है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोदीशाह की मुख्य ताकत क्रीतदास मीडिया के दुष्प्रचार के सहारे अन्धभक्तों का अन्धसमर्थन है, किंतु वे ही भक्त अब विभूचन की स्थिति में हैं। मोदी को खुद भी प्रज्ञा के बयान का विरोध करना पड़ा है और राजनाथ सिंह को संसद में बयान देना पड़ा है।
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म.प्र. में जब विपक्षी प्रज्ञा का पुतला जला कर विरोध कर रहे थे तब भाजपा समर्थक यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे मोदी के बयान का साथ दें, या प्रज्ञा ठाकुर का साथ दें।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम प्राध्यापक की नियुक्ति पर सात दिनों तक मौन धारण करने के बाद नियुक्ति के पक्ष में बयान देने से स्वाभाविक रूप से पक्ष तय करने वाले भक्त शर्मिन्दा हो रहे हैं।
दल खत्म कर दिया, संगठन खत्म कर दिया, अर्थव्यवस्था समेत शासन सम्हल नहीं पा रहा, न्यायपालिका आये दिन धिक्कार रही है, सेना का गलत जगह प्रयोग बढ़ रहा है, मीडिया कब तक अपनी निन्दा सहता रहेगा!
जो मोदी के नाम पर लड़ जाते थे, वे अब ध्यान से सुन कर सोचने लगे हैं। दम केवल इस बात की है कि विकल्प का कोई स्पष्ट रूप सामने नहीं उभर रहा।
मुकुट बिहारी सरोज कह गये हैं-
जिनके पांव पराये हैं, जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे लेकिन इतिहास नहीं
वीरेन्द्र जैन