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पीएम मोदी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत क्या है? उन्हें देश को चौंकाने में आनंद आता है! यही कारण है कि शुरू होने से पहले ही अग्निपथ परियोजना 'मिस-एडवेंचर' का शिकार हो गई।
उर्सुला वॉन डेर लेन (Ursula von der Leyen) भारतीय मीडिया के लिए अपरिचित नाम नहीं है। बहैसियत यूरोपियन यूनियन की अध्यक्ष, उर्सुला 25 अप्रैल 2022 को वो नई दिल्ली आई थीं।
जर्मनी पूरी दुनिया में बाल अधिकारों का उल्लंघन (child rights violations) करने वाले की ख़बर लेता रहा है। 80 के दशक में मैंने स्वयं देखा था, भारतीय कारपेट उद्योग वाले जर्मनी का नाम सुनते कैसे कांपते थे।
जानिए कौन हैं उर्सुला वॉन डेर लेन और क्या है उनका राजनीतिक कैरियर?
2005 में पहली बार उर्सुला परिवार कल्याण मंत्री बनीं। 2013 में उर्सुला फोन डेय लॉएन, मैर्केल कैबिनेट में प्रतिरक्षा मंत्री बनाई गईं। रूस ने जब क्रीमिया पर हमला किया था, जर्मन प्रतिरक्षा मंत्रालय ने अमेरिकी दबाव में तीन साल बाद, 2017 में घोषणा की, कि हम एक्टिव सैन्य बल की संख्या 1,79000 से बढ़ाकर 2024 तक एक लाख 98000 कर देंगे। 2017 में 2,128 बालकों की नियुक्तियां जर्मन सेना में कर दी गई, जो 18 साल से कम उम्र के थे। उसके बाद से वह सिलसिला रुका नहीं।
उर्सुला वॉन डेर लेन के प्रतिरक्षा मंत्री रहते दस हज़ार नाबालिग जर्मन सेना में नियुक्त हो चुके थे। इस मनमानी के विरूद्ध 30 हज़ार लोगों ने उर्सुला को हस्ताक्षर युक्त पत्र भेजा कि वो ऐसी नियुक्तियां बंद करें, जिससे जर्मनी की नाक कटती हो।
जर्मन एनजीओ 'ट्रेंडेंस इंस्टीच्यूट' ने एक सर्वे के आधार पर जानकारी दी कि जर्मनी में स्पोर्ट्स वियर कंपनी, 'एडीडास' के बाद, मिल्ट्री ऐसा महकमा है, जहां स्कूली बच्चे नौकरी पाने को लपकते हैं।
बिना जर्मन संसद 'बुंडेस्टाग' को भरोसे में लिये, ऐसा इसलिए चल रहा था, क्योंकि सुरक्षा मामलों में फैसले लेने के वास्ते अधिकृत जर्मन कैबिनेट की संघीय सुरक्षा समिति (जीपीपीआई) सर्वसत्तात्मक हो चुकी थी।
बालकों को सेना में नियुक्ति दिये जाने के विरोध में 'जीईडब्ल्यू यूनियन' की नेता एल्का होफमैन ने तब सवाल उठाया था कि जर्मन सरकार एक ऐसे पेशे की तरफ बच्चों को धकेल रही है, जिसमें ज़रूरत पड़ने पर हिंसात्मक कार्रवाई या हत्या से संकोच नहीं किया जाता।
क्या पूरी दुनिया में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ऐसा ही मनमाना व्यवहार करती है?
पूरी दुनिया व्लादिमीर पुतिन के अधिनायकवादी ढब पर प्रश्न करती है। मगर, ऐसी कार्यशैली वाला नेता दिखावे के लिए ही सही, संसद को भरोसे में लेता है। रूसी सेना को किसी फ्रंट पर भेजने अथवा उनके सर्विस रूल्स में किसी कि़स्म के रद्दोबदल के लिए बाकायदा रूसी संसद में प्रस्ताव पास होता है, उस पर क़ानूनन मुहर लगती है।
रूसी सेना में 10 लाख 14 हज़ार एक्टिव फोर्स में, ठेके पर चार लाख भर्तियां की गई हैं। मगर, उस वास्ते भी संसद की स्वीकृति ली गई।
रूस का दूसरा उदाहरण देते हैं, जहां पुतिन जैसे सर्वाधिकारी को संसद पर भरोसा है। ज़्यादा दिन नहीं हुए, 25 मई 2022 को रूसी संसद के निचले सदन 'ड्यूमा' में सेना में नियुक्तियों की अधिकतम उम्र सीमा को बढ़ाने का प्रस्ताव आया, जिसे सदन ने पास किया। कारण था, यूक्रेन युद्ध।
रूसी प्रतिरक्षा मंत्रालय ने जानकारी दी, कि यूक्रेन युद्ध में 1,351 मिल्ट्री पर्सनल मारे जा चुके हैं, और 3, 825 घायल हुए हैं। चुनांचे, 40 से ऊपर के वैसे अवकाशप्राप्त सैनिक भर्ती किये जाएं, जो अनुभवी हैं, और शारीरिक रूप से ऊर्जावान हैं।
सेना में नियुक्ति से लेकर नियमों में बदलाव के वास्ते इज़राइली संसद कनेसेट (Israeli Parliament Knesset) का भी महत्व है।
हालिया उदाहरण धार्मिक दीक्षा लेने वाले येशिबा छात्रों को सेना में अनिवार्य रूप भर्ती होने से छूट का था, जिसका प्रस्ताव इज़राइली संसद में जनवरी 2022 के आख़िरी हफ्ते में रखा गया था। दो सप्ताह पहले यह प्रस्ताव संसद में गिर गया था, जिसे इज़राइली रक्षा मंत्री बेन्नी ग्रांज ने दोबारा से पेश किया, और वो तीन मतों के अंतर से पास हो गया।
संसद को भरोसे में लेकर भारत में सेना में नियुक्तियों की प्रक्रिया क्यों नहीं हुई?
ऐसे बहुत से उदाहरण दुनिया के प्रमुख देशों में मिल जाएंगे, जहां संसद को भरोसे में लेकर सेना में नियुक्तियों की प्रक्रिया पूरी की जाती है।
भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसपर बहस होनी चाहिए। सेना में नियुक्तियां बंद मुठ्ठी का विषय है। वो मुठ्ठी प्रधानमंत्री और उनके प्रकारांतर प्रतिरक्षा मंत्री खोलते हैं, फिर पूरी दुनिया को पता चलता है कि इस देश के रक्षा सौदों में क्या कुछ होने वाला है।
सेना के तीनों अंगों का अगुआ, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद पर कौन आ सकता है, 'अग्निपथ' जैसी अस्थायी नियुक्तियां सेना में होनी है, यह सबकुछ सार्वजनिक बहस का विषय नहीं है। इसे फिर पारदर्शिता क्यों कहते हैं?
जनरल बिपिन रावत 1 जनवरी 2020 को चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) बनाये गये थे। 8 दिसंबर 2021 को हेलीकॉप्टर दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। 191 दिन गुज़र गये मगर प्रतिरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) के अगुआ श्रीमान नरेंद्र मोदी अब तक यह तय नहीं कर पाये कि इस पद पर किसे बैठाना है। सूची में 40 नाम हैं, और 'सीसीएस' कन्फ्यूज़ हैं।
आजादी के बाद भारतीय सेना को किस सिस्टम में काम करना है, उसकी बुनियाद लार्ड माउंटबेटन के 'चीफ ऑफ स्टाफ', लार्ड इस्में ने रख दी थी। 1947 के बाद उसी फ्रेमवर्क पर काम शुरू हुआ। 26 जुलाई 1947 को नेशनल सिक्योरिटी एक्ट बना। जिसके तहत जो सिस्टम विकसित हुआ, उसके मुख्य स्तंभ थे, ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी (जेआईसी)। इन्हें चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (सीओएससी) और केंद्रीय कैबिनेट से समन्वय स्थापित करना होता था।
नेहरू से इंदिरा गांधी के कालखंड में इसकी खामियां भी उभरकर आईं। सेना से जुड़े राजनीतिक फ़ैसले कैबिनेट कमेटी लेती थी। ऑॅफिशियल लेबल पर कहीं कुछ करना होता, कैबिनेट सेक्रेट्री की स्वीकृति का इंतज़ार फाइलें करतीं। इन फैसलों का समाज और अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ना है, उसकी अनदेखी होती रही।
प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय एक तदर्थ सलाहकार समिति बनाई गई, उससे भी सेना में सुधार न हो सका।
अगस्त 1990 में भारत सरकार ने नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल (एनएससी) का गठन किया। इसे समन्वय व सहयोग देने के लिए कैबिनेट सचिव के नेतृत्व में 'स्ट्रेटेजिक कोर ग्रुप' भी बना। 'एनएससी' की केवल एक बैठक अक्टूबर 1990 में हुई, फिर इस पर विराम लग गया।
1998 में जब देश में पहला परमाणु परीक्षण हुआ, सेना के बड़े-बड़े तोप कहे जाने वाले अफसर इससे अनभिज्ञ थे। तो क्या हम कहें कि परमाणु परीक्षण एक राजनीतिक फैसला था?
रक्षा मंत्री रह चुके केसी पंत 1999 से 2004 तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे, उन्होंने ही इस पर ज़ोर दिया कि विकसित देशों की तर्ज़ पर राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली (National Security Management System) विकसित की जाए। इस सुझाव को अमल में लाकर अप्रैल 1999 में (एनएससी ) का पुनर्गठन किया गया, जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा, प्रतिरक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को शामिल किया गया। उससे पहले नवंबर 1998 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद सृजित किया जा चुका था, और ब्रजेश मिश्रा पहले 'एनएससी' बनाये गये।
दिसंबर 1998 में नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड (एनएसएबी) का गठन हुआ, और 1990 में बने एससीजी को स्ट्रेटेजिक पॉलिसी ग्रुप (एसपीजी) में पुर्ननामित किया गया। इन सारे इदारों को नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल सेक्रेटेरियट (एनएससीएस) को सहयोग करना था। लेकिन समन्वय का यह सारा प्रयास मई 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान कामयाब न हो सका।
सबसे बड़ी दिक्कत सुरक्षा से संबंधित बहुत सारे विभागों के खुलने से भी हो रही है।
कॉर्डिनेशन का अता-पता नहीं होता। बहुत से ऐसे लोग खपा दिये जाते, जिनकी विशेषज्ञता नहीं होती। पुराने विभाग संभल नहीं पा रहे थे, जनरल रावत के रहते 1 जनवरी 2020 को डिपार्टमेंट ऑफ मिल्ट्री अफेयर्स (डीएमए) खोल दिया गया। डीएमए में सेना और सिविलियन दोनों क्षेत्रों के बड़े अधिकारियों को संबद्ध किया गया। एक एडीशनल सेक्रेट्री, पांच ज्वाइंट सेक्रेट्री, 13 डेप्युटी सेक्रेट्री, 25 अंडर सेक्रेट्री और 200 से अधिक सहयोगी स्टाफ को रख लेने का फायदा कितना मिल रहा है? यह तो रक्षा सेवाओं से जुड़े लोग ही स्पष्ट कर पायेंगे। मगर, डिपार्टमेंट ऑफ मिल्ट्री अफेयर्स के सर्वेसर्वा विपिन रावत के न रहने से, यह भी बिना पायलट के जहाज जैसा ही दिख रहा है।
अब सवाल यह है कि अग्निपथ योजना की इतनी हड़बड़ी क्यों थी?
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सबसे ज़रूरी था, नये चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (Chief of Defense Staff) (सीडीएस) की नियुक्ति। नये सीडीएस की इस विषय पर राय ली जाती, फिर अग्निवीरों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर आगे बढ़ते।
देश के युवा, 'तेरी दो टकिये की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाये' वाली मन:स्थिति में नहीं हैं। उन्हें इससे परिचित कराना चाहिए था कि दुनिया के विकसित देश भी अल्पकालिक सैन्य सेवाओं के वास्ते बहाली करते हैं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण रूस है, जहां ठेके के आधार पर चार लाख भर्तियां की गई हैं। अमेरिका में भी ऐसा ही हुआ है। यह सब करने से पहले देशव्यापी विमर्श और संसद में बिल पास कराना सही होता। नेहरू जी भी ऐसा ही करते थे, मोदी जी भी वही कर रहे हैं।
क्या अग्निपथ योजना से भाड़े के सैनिक तैयार किये जा रहे हैं?
यह कहना उचित नहीं है कि अग्निपथ योजना के तहत भाड़े के सैनिक तैयार किये जा रहे हैं। कुछ अखबारों व सोशल मीडिया पर इस एंगल से बहस कराकर लोग ज़िम्मेदारी का परिचय नहीं दे रहे हैं।
भाड़े के सैनिकों का मतलब (meaning of mercenary army man) है, कि अमेरिका आज इन्हें हायर करे, और यूक्रेन भेज दे। जैसा कि इराक़ युद्ध में हुआ था। ऐसा 'अग्निवीरों' के केस में संभव है क्या?
यह ज़रूर है कि सीसीएस (कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी - cabinet committee on security) ऐसे निर्णय के लिए अधिकृत है। दस प्रमुख विषय 'सीसीएस' के अधीन हैं। आंतरिक सुरक्षा के तहत क़ानून-व्यवस्था को देखना, सुरक्षा निर्णयों का असर देश की अर्थव्यवस्था व विदेश नीति को कितना प्रभावित करता है उसका पुनरावलोकन, सेना में अमले की ज़रूरत, ढांचागत विकास, नियुक्तियां, डिफेंस प्रोडक्शन, प्रोक्योरमेंट, रिसर्च, नाभिकीय ऊर्जा जैसे सारे विषय मोदी सरकार ने समाहित कर रखे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सबसे बड़ी दिक्क़त क्या है कि उन्हें देश को चौंकाने में आनंद आता है। अग्निपथ परियोजना शुरू होने से पहले ही 'मिस-एडवेंचर' का शिकार हो गई।
पुष्परंजन
Web title : Agneepath: A project a victim of a miss-adventure!