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वंचितों को बाहर कैसे करते हैं?
मोदी राज के छ: साल में आंकड़ों की विश्वसनीयता का जैसा ध्वंस हुआ है, उसकी तुलना आजादी की लड़ाई में से निकले, शासन के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक स्वरूप के ध्वंस से ही की जा सकती है। फिर भी आंकड़ों की विश्वसनीयता (Data reliability) के इन प्रश्नों को अगर उठाकर भी रख दिया जाए तब भी, प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों में प्रवेश की अखिल भारतीय परीक्षा (All India examination for admission to engineering institutes) जी में वास्तव में शामिल हुए परीक्षार्थियों के आंकड़े, मोदी/ सरकार भक्ति में आंख-कान बंद किए बैठे लोगों के अलावा हरेक को यह दिखाने के लिए काफी हैं कि इन महत्वपूर्ण परीक्षाओं के टाले जाने की मांग करने वालों की आशंकाएं ही सही थीं। संक्षेप में छात्रों, अभिभावकों तथा अन्य नागरिकों की ये आशंकाएं, जिन्हें अनेक राज्य सरकारों ने भी उठाया था और कम से कम छ: राज्य सरकारों ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में, ये परीक्षाएं अभी कराने के पक्ष में उसके निर्णय पर पुनर्विचार याचिका भी लगायी थी, इससे जुड़ी हुई थीं कि इस समय पर, जबकि कोविड-19 का प्रकोप (Outbreak of COVID-19) जोरों पर है और उससे निपटने के लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर लगायी गयी रोकें अब भी बनी हुई हैं, देश भर में कुछ सौ केंद्रों पर ही करायी जाने वाली यह परीक्षा, आम तौर पर वंचितों के लिए अतिरिक्त रूप से कड़ी परीक्षा साबित होगी।
इसकी सीधी सी वजह यह थी कि इस कोरोना काल में सुरक्षित परीक्षा देने से लेकर, परीक्षा केंद्रों तक सुरक्षित पहुंचने तक, परीक्षार्थियों की आर्थिक-सामाजिक सामथ्र्य की बहुत कड़ी परीक्षा होने जा रही थी, जिसमें ग्रामीण व छोटे कस्बों में और दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले और आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों की बड़ी संख्या को, परीक्षा के मौके से ही बाहर छोड़ दिए जाने के आसार थे।
जैसाकि मोदी राज में नया नॉर्मल ही बन गया है, अनेक राज्य सरकारों समेत, जनमत के अच्छे-खासे हिस्से द्वारा प्रकट की जा रही इन आशंकाओं को, अनसुना ही कर दिया गया। सरकार इन परीक्षाओं के लिए अपनी तय की हुई सितंबर के पहले सप्ताह की तारीखों पर इस तर्क से अड़ी रही कि परीक्षाओं को और टालना, लाखों प्रतिभाशाली छात्रों का कैरियर अगर खत्म नहीं भी कर देगा तो उनका एक साल जरूर बर्बाद कर देगा। सरकार के निर्णय की पुष्टि के तर्क (Arguments to confirm the decision of the government) के रूप में चुन-चुनकर छात्रों, शिक्षकों तथा अभिभावकों के कुछ प्रतिनिधियों को पेश किया गया और सरकार की ओर से इसका भरोसा दिलाया गया कि न सिर्फ परीक्षाएं छात्रों की कोरोना से सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए करायी जाएंगी, बल्कि उन्हें अपनी जगहों से परीक्षा केंद्रों तक पहुंचाने की भी व्यवस्थाएं की जाएंगी। लेकिन, जैसाकि होना था ये सारे आश्वासन, आश्वासन ही रह गए। हर जगह ऐसे छात्र ही परीक्षा में पहुंच सके, जो या तो बड़े शहरों में रहते थे या फिर परीक्षा केंद्रों तक पहुंचने का और इसके लिए शहरों में रुकने का, निजी इंतजाम करने में समर्थ थे।
नतीजा वही हुआ, जो कि होना था।
सितंबर के शुरू में, हर रोज दो शिफ्ट के हिसाब से, छ: दिन में कुल 12 शिफ्टों में हुई परीक्षा में पहले दिन सिर्फ 51 फीसद प्रतिभागी शामिल हुए। बाद में इस अनुपात में कुछ सुधार हुआ बताते हैं। खुद भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इन परीक्षाओं को ‘राष्ट्र के लिए कलंक’ (Blur for nation) करार देते हुए, सार्वजनिक रूप से दावा किया कि जी-मेन परीक्षा के लिए रजिस्टर कराने वाले 18 लाख छात्र-उम्मीदवारों में से, सिर्फ 8 लाख परीक्षा में बैठे थे। बाद में शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों से सुब्रमण्यम स्वामी (Subramanyam Swami) का आधे से कम छात्रों के इस परीक्षा में बैठने का दावा भले ही अतिरंजित लगे, पर वंचित तबकों के प्रति संवेदशील किसी भी व्यक्ति के लिए इन परीक्षाओं के ‘राष्ट्र के लिए कलंक’ होने के उनके चरित्रांकन से असहमत होना मुश्किल होगा।
आखिरकार, खुद सरकार के आंकड़ों के अनुसार, पूरे 26 फीसद छात्र इन परीक्षाओं में शामिल नहीं हो पाए हैं।
कुल 8 लाख 58 हजार छात्रों को इस परीक्षा में बैठना था, जिनमें से 6 लाख 35 हजार यानी 74 फीसद छात्र ही इस परीक्षा में बैठ पाए। जाहिर है कि यह हर लिहाज से असामान्य स्थिति को दिखाता है।
इसी साल जनवरी में इसी परीक्षा के पहले चक्र में पूरे 94.32 फीसद छात्रों ने हिस्सा लिया था। पिछले साल भी, जबसे साल में दो बार ये परीक्षाएं आयोजित करना शुरू हुआ था, जनवरी की परीक्षा में यह उपस्थिति 94.11 फीसद और अप्रैल में हुई परीक्षा में, 94.15 फीसद रही थी। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कम से कम 20 फीसद छात्रों को कोरोना के भारी प्रकोप के बीच ही यह परीक्षा कराने की सरकार की जिद ने, इस परीक्षा से जुड़े आगे पढ़ने के मौके से ही वंचित कर दिया। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि सब कुछ सामान्य दिखाने की हड़बड़ी में सरकार ने, इसकी परवाह ही नहीं की कि इस तरह वह कम से कम, 20 फीसद को पीछे छोडक़र आगे बढ़ रही है।
ऐसा होना सिर्फ संयोग नहीं बल्कि मौजूदा सरकार की नीति का ही हिस्सा लगता है। इसका कुछ अंदाजा अंतत: इस सचाई के सामने आने के बाद की इस सरकार की प्रक्रिया से लग जाता है।
सुब्रमण्यम स्वामी के सार्वजनिक रूप से इस परीक्षा को ‘राष्ट्रीय कलंक’ करार देने ने शिक्षा मंत्री, रमेश पोखरियाल निशंक को जवाब देने के लिए मजबूर तो जरूर कर दिया।
और सुब्रमण्यम स्वामी का मामला था इसलिए भाजपायी मंत्री ने प्रश्न करने वालों पर ही हमले की मुद्रा अपनाने की जगह, सरकारी आंकड़े पेश कर के ही उनका जवाब देने की कोशिश की थी। फिर भी उनके जवाब में दूर-दूर तक इसका कोई मलाल, कोई खेद नहीं था कि हर चार में से एक छात्र इस मौके से बाहर रह गया था। यहां तक कि उन्हें इस सचाई को स्वीकार करना तक मंजूर नहीं हुआ कि छात्रों की असामान्य रूप से बड़ी संख्या इस परीक्षा से बाहर रह गयी थी, फिर इसका कोई उपचार करने की किसी कोशिश की तो बात ही कहां उठती है। उल्टे उन्होंने इस बेतुकी दलील से इस फिनॉमिना की सफाई देने की कोशिश की कि हो सकता है कि सितंबर की परीक्षा में शामिल नहीं होने वाले बहुत से छात्रों का, इसी परीक्षा के जनवरी वाले चक्र में प्रदर्शन कहीं अच्छा रहा हो और इसलिए उन्हें इस बार परीक्षा में बैठने की जरूरत नहीं लगी हो!
जाहिर है कि इससे बेतुका तर्क, इससे पहले किसी शिक्षा मंत्री ने नहीं दिया होगा।
सब कुछ सामने आ जाने के बाद भी निशंक अगर निशंक हैं, तो इसीलिए कि वंचितों के इस तरह छूट जाने की या बाहर कर दिए जाने की उन्हें परवाह ही नहीं है। यह विचारधारात्मक पूर्वाग्रह का मामला है, जो हिंदुत्ववादी विचार (Hindutva ideology) में मूलबद्ध सवर्ण श्रेष्ठता, पुरुष श्रेष्ठता, हिंदू श्रेष्ठता और धन-सत्तावान श्रेष्ठता के मूल्यों से निकलता है। यह पूर्वाग्रह, हर प्रकार के वंचितों की अलग से चिंता करने के प्रति बुनियादी शत्रुभाव रखता है। सभी जानते हैं कि यह शत्रुभाव किस तरह वंचितों के आरक्षण के हरेक प्रावधान, हाशिए पर पड़े तबकों के पक्ष में सकारात्मक हस्तक्षेप की हरेक मांग के खिलाफ खड़ा होता है। और अक्सर यह शत्रुभाव मैरिट या शुद्ध योग्यता के पैमाने की दलील के रूप में सामने आता है। यह दूसरी बात है कि यह दलील भी है एक सुविधा की ही दलील है, कोई बुनियादी आग्रह नहीं। तभी तो हमेशा ‘ये आरक्षण का बोझ कब तक’ की मुद्रा में रहने वाले आरएसएस विचार परिवार को, आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए शिक्षा व नौकरियों में 10 फीसद आरक्षण के मोदी सरकार के कदम का, लपक कर स्वागत करने में जरा सी हिचक नहीं हुई। उल्टे दिलचस्प यह है कि सवर्ण आरक्षण को इस तरह अवसरवादी तरीके से लपकने के बावजूद, वंचितों के लिए आरक्षण या सकारात्मक प्रावधानों के प्रति उनके विरोध में कोई कमी नहीं आयी है। वे जानते हैं कि इन सकारात्मक प्रावधानों को खत्म या भोंथरा करने की ही जरूरत है, वंचितों को ज्यादा से ज्यादा बाहर करने का काम तो, मौजूदा व्यवस्था खुद ब खुद कर देगी।
It is not easy to keep the deprived out
भारत की बहुत ही विविधतापूर्ण सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में, तथाकथित मैरिट की दलील की आड़ में भी, वंचितों को इस तरह बाहर रखना आसान नहीं है। आजादी की लड़ाई की जनतांत्रिक परंपरा और उससे निकले संविधान तथा आरक्षण जैसे प्रावधानों के चलते यह और भी मुश्किल है। लेकिन, संघ के राजनीतिक बाजू के नाते भाजपा के लिए और उसके राज के लिए तो यह उनके स्वभाव या प्रकृति का ही मामला है। संवैधानिक व्यवस्थाओं की मजबूरी से या कार्यनीतिक कारणों से एलानिया चाहे यह नहीं किया जा सकता हो, फिर भी मौजूदा राज में भीतर ही भीतर इन व्यवस्थाओं को खोखला किया जा रहा है, जिसकी अभिव्यक्ति जब तब पदोन्नति में आरक्षण, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून, निजी क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण, उच्च न्यायापालिका व एकेडिमिया समेत उच्च पदों पर आरक्षण और आम तौर पर चुनावों में आरक्षण के विरोध/ विवादों में होती रहती है।
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इस सब के अलावा मोदी राज में आम तौर पर बढ़़ता केंद्रीयकरण और खासतौर पर शिक्षा के मामले में तथा उसमें भी विभिन्न प्रोफेशनल कोर्सों में दाखिलों में बढ़ता केंद्रीयकरण, वंचित इलाकों समेत तमाम वंचितों के ज्यादा से ज्यादा बाहर रखे जाने का एक महत्वपूर्ण औजार बन गया है। जी और नीट जैसी पूरी तरह से केंद्रीयकृत अखिल भारतीय परीक्षाएं, सबसे बढक़र इसी का साधन हैं। इसीलिए, मोदी सरकार का इन परीक्षाओं पर विशेष मोह है।
Preparation of Modi government to exclude the deprived in the field of education
बहरहाल, शिक्षा के क्षेत्र में वंचितों को बाहर करने की और आगे की तैयारी के तौर पर, कोविड महामारी के बीच ही मोदी सरकार ने संसद तक में चर्चा के बिना, देश पर नयी शिक्षा नीति थोप दी है। इस शिक्षा नीति की दो विशेषताएं खासतौर पर गौर करने वाली हैं। पहली, आम तौर पर शिक्षा का और खासतौर पर उच्च शिक्षा का पूरी तरह से केंद्रीकरण (Centralization of education) और निजीकरण (privatization of education)। दूसरी, प्राचीनता तथा परंपरा के गुणगान के नाम पर, भेदभावकारी की व्यवस्थाओं का महिमामंडन और इस तरह वंचितों के बाहर रखे जाने को और पुख्ता करना।
यह संयोग ही नहीं है कि इस लंबे-चौड़े नीतिगत दस्तावेज में आरक्षण या वंचितों के लिए सकारात्मक प्रावधानों का एक बार जिक्र तक नहीं है।
यह गांधी के रामराज्य की नहीं, शंबूक वध और सीता वनवास वाले रामराज्य की तैयारी है।
0 राजेंद्र शर्मा