Advertisment

सुसभ्य यूरोप और अमेरिका से बेहतर नागरिक हैं अफ्रीका के देश इथोपिया में

author-image
hastakshep
25 Jun 2020
सुसभ्य यूरोप और अमेरिका से बेहतर नागरिक हैं अफ्रीका के देश इथोपिया में

कुएं के मेंढक के लिए उसका कुआं ही समूचा ब्रह्मांड है। सृष्टि का आदि अंत है।

Advertisment

इसीलिए देव-देवी, पुजारी, अमचे-चमचे मालामाल हैं। भक्त बेहाल हैरान परेशान है। अपनी हालत के लिए किस्मत को कोसते हुए फेंकी हुई रोटी के टुकड़े के लड़ते हुए आपस में लहूलुहान हैं। अपने ही जख्म चाटते हुए दुश्मनों के छक्के छुड़ाने का गुमान है।

अंधों बहरों की दुनिया में रोशनी और शब्द नाद की बातें बेमानी हैं।

गुलामी की जंजीरों से जिन्हें मुहब्बत है, उनके लिये आजादी का ख्वाब अज़ाब का खौफ है।

Advertisment

इसी खौफ का ताजा नाम कोरोना है।

हम दुनिया के बारे में कितना जानते हैं?

हम पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, अफगानिस्तान के बारे में कितना जानते हैं?

Advertisment

हम अमेरिका, चीन, रूस, जापान, फ्रांस, इटली, जर्मनी, इंग्लैंड, स्पेन, पुर्तगाल, एशिया, यूरोप, अफ्रीका, लातिन अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका के बारे में कितना जानते हैं?

हमने परीक्षा पास करने की गरज से जितना पढ़ा है, पास करने के बाद कितना और पढ़ा है? पढ़ा है तो क्या क्या पढ़ा है?

हमने कितना इतिहास कितना भूगोल जाना है?

Advertisment

धर्म, धर्म ग्रन्थों के बारे में, मिथकों के बारे में, टोटेम के बारे में, तर्कशास्त्र के बारे में हम कितना जानते हैं?

हमने दर्शन और विचारधाराओं का कितना अध्धयन किया है?

हमने कितना साहित्य कितने क्लासिक आत्मसात किये हैं?

Advertisment

हम संस्कृति, उसके इतिहास भूगोल के बारे में कितना जानते हैं?

हम ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं का कितना वस्तुगत अध्ययन किया है?

अपनी और पराई भाषा और बोली का हम कितना इस्तेमाल करते हैं और कैसे करते हैं?

Advertisment

विज्ञान और तकनीक हमारे लिये क्या है?

विज्ञान ने हमें कितनी वैज्ञानिक दृष्टि दी है?

हमें अपनी जड़पन, अपनी पहचान और अपनी नस्ल के बारे में कितना पता है, क्या पता है?

Advertisment

हम कितना सीखते हैं?

क्या सीखते हैं?

हम तर्कों का कितना इस्तेमाल करते हैं?

हम अपनी इंद्रियों का कैसे और कितना इस्तेमाल करते हैं?

हम अपने को कितना अभिव्यक्त कर पाते हैं?

जितना भी बोलें, जितना भी लिखें, हम कितनों को सम्बोधित कर पाते हैं?

प्रकृति, पर्यावरण और ब्रह्मांड के बारे में हम कितना जानते हैं?

अपने दिलोदिमाग का हम कितना इस्तेमाल करते हैं?

हम ख्वाब देखते हैं?

अच्छा या बुरा ख्वाब देखते हैं?

हमने कितने दोस्त बनाये हैं और कितने दुश्मन?

इन सवालों का जवाब वस्तुनिष्ठ नहीं है।

सरल भी नहीं है।

आईने में अपने चेहरे को एक बार पहचान तो लीजिये।

 

राज की बात यह है कि हम भी कुछ खास नहीं जानते। अभी बहुत कुछ जानना, समझना और आत्मसात करके ज्ञान का विवेकसम्मत प्रयोग करना बाकी है।

वक्त मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता जा रहा है।

परीक्षा का आखरी लमहा है और सवालों के मुखातिब हम सिरे से निरुत्तर हैं।

हम मनुष्य हैं और हम नागरिक भी हैं।

अपने समाज को हम कितना जानते समझते हैं?

अपने देश को हम कितना जानते समझते हैं?

जानते समझते होते तो मुट्ठी भर पुरोहित, राजनेता और बुद्धिंजीवी हमारे कंधे पर बंदूक रखकर चांदमारी का शिकार हमें ही नहीं बना सकते थे।

हम मर रहे हैं और हम मारे जा रहे हैं।

यह अकालमृत्यु और ये हत्याएं किसी नियति के द्वारा   नियंत्रित नहीं है।

यह हमारा कर्मफल है। यह हमारी निष्क्रिय विवेक का परिणाम है।

हम अफ्रीका को गरीबी और बेबसी का भूगोल मानते हैं।

विश्व की प्राचीनतम सभ्यता मिश्र की सभ्यता के बावजूद दुनियाभर के मीडिया के अज्ञान से हम अफ्रीका और अफ्रिकी जनता को कुछ नहीं समझते।

गांधी की कर्मभूमि दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद से आज़ादी की लड़ाई को हम रूसी, चीनी या अमरीकी या फ्रांसीसी क्रांति के समकक्ष नहीं रखते।

हमारे लिए यूरोप का नवजागरण इतिहास का आदि और अंत नहीं भी है तो मुक्त बाजार हमारे लिए ज्ञान का अनन्त भंडार है। हम ऑनलाइन ज्ञान के ज्ञानी हैं और तकनीक हमारा ज्ञान विज्ञान गणित है।

हमारे मित्र 74 साल के पंतनगर विश्व विद्यालय के रिटायर प्राध्यापक डॉ पीजी विश्वास से पन्तनगर के पास नगला स्थित आवास में जाकर असज हम मिले तो अफ्रीकी देश इथोपिया के बारे में हमारी अनेक गलतफहमियां दूर हो गयीं।

डॉ विश्वास 2007 में पन्त नगर विश्व विद्यालय से रिटायर होने के बाद कृषि वैज्ञानिक की हैसियत से ईडी होकर  बांग्लादेश के बाद इथोपिया में चार साल तक रहे।

इथोपिया के लोग अफ्रीकी देशों की तरह गरीब हैं जरूर लेकिन उतने भी गरीब नहीं हैं जितने कि सोमालिया के लोग। वहां केन्या की तरह न अराजकता है और न बाकी अफ्रीका और यूरोप अमेरिका की तरह अपराध। यह हैरत अंगेज़ है कि सुसभ्य यूरोप और अमेरिका से बेहतर नागरिक हैं अफ्रीका के देश इथोपिया में। जहां कानून व्यवस्था की हालत देखने के लिए दो चार पुलिस वाले काफी होते हैं और सारे विदेशी और अल्पसंख्यक सुरक्षित।

क्या ऐसा हमारे देश में है कि कानून के खौफ और पुलिस सेना के बिना हम अमन चैन से बिना किसी को सताए जी सकते हैं?

हो सकता है कि यह डॉ. विश्वास का निजी अनुभव हो और दूसरों के अनुभव भिन्न हों। लेकिन सच के इस आयाम से हम अपरिचित थे।

डॉ. विश्वास से हम 2005 के आस पास मिले थे। जब वह उत्तराखण्ड के बंगालियों को बंगाल की तरह अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग पर केंद्र सरकार के निर्देश पर पन्तनगर विश्वविद्यालय की ओर से सामाजिक सर्वे करा रहे थे।

अफ्रीका से लौटकर वे बंगाल के बारासात में बस चुके हैं। लेकिन नगला में अपना घर बेचा नहीं है ताकि वे अपनी कर्मभूमि से जुड़े रहे।

हम उन्हें प्रेरणा अंशु का जून अंक और मास्साब की किताब गांव और किसान देने गए थे।

वे वहां अकेले अपनी पत्नी के साथ रहते हैं।

भाभीजी ने काशीपुर के खजूर के गुड़ की खीर खिलाई यह कहते हुए कि इससे शुगर के मरीज को नुकसान नहीं होता। रूपेश अन्यथा न लें।

हमारे साथ मतकोटा दिनेशपुर गदरपुर मार्ग आंदोलन के हीरो विकास स्वर्णकार थे, जिन्होंने इसी रास्ते के गड्ढों में जमा बरसात के पानी में कल मछलियां मारी।

डॉ विश्वास ने बिन मांगे प्रेरणा अंशु की सदस्यता ले ली। उन्होंने तराई के छात्रों युवाओं की शिक्षा के लिए समाजोत्थान स्कूल के जरिये हम क्या कर सकते हैं, इस सिलसिले में हमसे निरन्तर सम्पर्क में रहने का वायदा किया है। इसके अलावा विभाजन के शिकार बंगालियों के इतिहास लिखने में भी वे हमारी मदद करेंगे।

डॉ विश्वास से मिलने से पहले हम पन्त नगर विश्वविद्यालय में कृषि वैज्ञानिक डॉ. राजेश प्रताप सिंह के आवास बिना पूर्व सूचना के पहुँचे। डॉ. साहब किसी मीटिंग में गए हुए थे। इस मौके पर हमने भाभीजी के आतिथ्य का आनन्द उठाया और बच्चों से खूब बातें की। प्राची मद्रास आईआईटी में बायो टेक्नोलॉजी की छात्रा हैं और कविताएं भी लिखती हैं। उससे बायो टेक्नॉलॉजी और कविता पर काफी मजेदार चर्चा हुई। डॉ साहब नहीं मिले तो हमने मौका को जाया नहीं होने दिया।

पलाश विश्वास

?list=PLPPV9EVwmBzD1U6NYwPYsNiACM2EAmyq1

Advertisment
Advertisment
Subscribe