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अमेरिका ने धार्मिक असहिष्णुता के लिए बदनाम मुल्कों में भारत को भी जोड़ा
America also added India in countries notorious for religious intolerance
अमेरिका की धार्मिक स्वतंत्रता वाली रिपोर्ट (धार्मिक असहिष्णुता की ताज़ा ख़बर, ब्रेकिंग,) में फिर भारत को घेरने की कोशिश की गई है। सीएए और मुसलमानों के प्रति हिंसा (Violence against muslims) के हवाले से अमेरिकी संस्था, अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट में एक बार फिर भारत को दुनिया के असहिष्णु देशों की कतार में खड़ा कर दिया गया है। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी आयोग की रिपोर्ट (US Commission Report) का विरोध किया और उसको पूर्वाग्रह से युक्त बताया है।
अपनी रिपोर्ट में अमेरिकी आयोग ने भारत को जिन देशों के साथ खड़ा करने की बात की है, वे सभी देश धार्मिक असहिष्णुता के लिए पूरी दुनिया में बदनाम हैं।
रिपोर्ट में शामिल देशों में म्यांमार, चीन, एरिट्रिया, ईरान, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, तजिकिस्तान तुर्कमेनिस्तान नाईजीरिया, रूस, सीरिया और वियतनाम का नाम है। अब इसी सूची में अमेरिका ने भारत का नाम भी जोड़ दिया है।
विदेश मंत्रालय की तरफ से आये बयान में भारत ने कहा है (In a statement from the Ministry of External Affairs, India has said) कि
'हम अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में भारत के खिलाफ टिप्पणियों को खारिज करते हैं। भारत के खिलाफ उसके ये पूर्वाग्रह वाले और पक्षपातपूर्ण बयान नए नहीं हैं, लेकिन इस बार पर उसकी गलत बयानी नये स्तर पर पहुंच गई है।' आजकल भारत और अमेरिका में जिस तरह का अपनापन का माहौल है उसके मद्देनजर जानकारों को इमकान है कि भारत सरकार में इस रिपोर्ट को बहुत ही गंभीरता से लिया जा रहा है। कुछ लोग यह भी कहते सुने गए हैं कि अमेरिकी आयोग की रिपोर्ट को ट्रंप प्रशासन से खारिज करने को भी कहा जा सकता है। वरना इसके पहले जब इस तरह की रिपोर्टें आती थीं तो तत्कालीन भारत सरकारें परवाह नहीं करती थीं। गुजरात में 2002 के दंगों के बाद आई अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट में इसी तरह की बात की गई थी लेकिन भारत सरकार ने कोई खास तवज्जो नहीं दिया था।
अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट से विदेशनीति की दिशा में कोई खास बदलाव नहीं आता लेकिन नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship amendment act) के बाद देश भर में चले विरोध प्रदर्शनों को जिस तरह से अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया ने प्रमुखता दी थी, उसकी रोशनी में इस रिपोर्ट से दुनिया भर में भारत की धर्मनिरपेक्षता की संविधान द्वारा गारंटी पर कुछ लोगों को सवाल उठाने का मौका तो मिलता ही है।
The government should try to prevent the image of our secularism from being damaged.
सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि हमारी धर्मनिरपेक्षता की छवि को आंच न आने पाए। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देश के सभी सरकारी पदों पर आसीन होने वाले अधिकारी और कर्मचारी काम शुरू करने से पहले शपथ लेते हैं कि वे संविधान को अक्षुण्ण रखेंगे। धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। लिहाजा प्रधानमंत्री सहित सभी नेताओं मंत्रियों को धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करनी चाहिए। प्रधानमंत्री अपने भाषणों में सभी धर्मों के प्रति सम्मान की बात करते रहते हैं और अन्तराष्ट्रीय मंचों पर भारत की धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं का उनको लाभ भी खूब मिलता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने हमेशा ही धर्मनिरपेक्षता की बात को आदर दिया है।
यह अलग बात है कि उनकी पार्टी और उसके कार्यकर्ता धर्मनिरपेक्षता की निंदा करते रहते हैं। आर एस एस और भाजपा के नेताओं के दिमाग में कहीं से यह बात भरी रहती है कि धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की विरासत है। लेकिन वह गलत हैं।
Secularism is not a party's legacy. It is the heritage of the country.
धर्मनिरपेक्षता किसी पार्टी की विरासत नहीं है। वह देश की विरासत है। इसी विचारधारा की बुनियाद पर इस देश की आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी। अंग्रेजों की सोच थी कि इस देश के हिन्दू और मुसलमान कभी एक साथ नहीं खड़े होंगें लेकिन जब 1920 का महात्मा गांधी का आन्दोलन शुरू हुआ तो हिन्दू और मुसलमान न केवल साथ-साथ थे बल्कि मुसलमानों के लगभग सभी फिरके महात्मा गांधी के साथ हो गए थे। उसके बाद ही अंग्रेजों ने दोनों धर्मों में गांधी विरोधी तबका तैयार किया और उसी हिसाब से राजनीतिक संगठन खड़े किए।
लेकिन महात्मा गांधी के आन्दोलन का स्थायी भाव सभी धर्मों का साथ ही बना रहा और आजादी की लड़ाई उसी बुनियाद पर जीती गई। जाते-जाते अंग्रेजों ने अपने वफादार जिन्ना को पाकिस्तान तो बख्श दिया, लेकिन भारत की एकता को तोड़ने में नाकाम रहे। धर्मनिरपेक्षता की विरोधी ताकतों ने महात्मा गांधी की हत्या भी की। उनको शायद उम्मीद थी कि उसके बाद भारत में मुसलमानों के विरोध की हवा चल पड़ेगी लेकिन देश की एकता बनी रही।
,देश के लोगों की एकता को खंडित करने के जो सपने महात्मा गांधी की ह्त्या करने वालों ने पाल रखे थे वे काफी समय तक दफन रहे लेकिन पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि मुसलमानों को देशद्रोही साबित करने वाले लोगों के हौसले बहुत ही बढ़ गए हैं। इस हौसले को हवा देने में टीवी चैनलों में होने वाली बहसों का भी भारी योगदान है। इस कड़ी में नवीनतम मामले ऐसे सुनने में आ रहे हैं जो किसी भी सही सोच वाले इंसान को चिंतित कर देंगे।
खबरें आ रही है कि भाजपा के कुछ नेता अपने समर्थकों से अपील कर रहे हैं कि मुसलमानों का बहिष्कार करो, उनकी दूकान से सामान आदि मत खरीदो। ऐसी ही एक अपील के बाद भाजपा के आला नेतृत्व ने एकाध विधायक को नोटिस वगैरह भी जारी किया है लेकिन उससे कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आता क्योंकि पहले भी मुसलमानों के लिए नफरतभरी भाषा का प्रयोग करने वाले भाजपा नेताओं को नोटिस तो भेजा गया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
प्रधानमंत्री को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश की एकता के लिए सर्वधर्म समभाव और धर्मनिरपेक्ष माहौल जरूरी है। उनके पहले के सभी प्रधानमंत्री इस बात पर जोर देते रहे हैं।
राष्ट्र की एकता के लिए जरूरी सर्वधर्म समभाव की बात को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तो आगे बढ़ाया ही, इस मिशन में सरदार पटेल का योगदान किसी से कम नहीं है।
यह सच है कि जब तक कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को अपनी बुनियादी सोच का हिस्सा बना कर रखा, तब तक कांग्रेस अजेय रही लेकिन जब साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने की कोशिश की, तो देश की जनता कांग्रेस के खिलाफ खड़ी हो गई। आज कांग्रेस के बहुत पिछड़ जाने में उसका धर्मनिरपेक्ष राजनीति से विमुख होना भी माना जाता है।
As a nation, we also have to be vigilant.
हमारे अपने देश में सेकुलर राजनीति का विरोध करने वाले और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सपना देखने वालों को पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति से हुई तबाही पर भी नजर डाल लेनी चाहिए। पाकिस्तान की आजादी के वक्त उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह ने साफ ऐलान कर दिया था कि पाकिस्तान एक सेकुलर देश होगा। ऐसा शायद इसलिए था कि 1920 तक जिन्नाह मूल रूप से एक सेकुलर राजनीति के पैरोकार थे। उन्होंने 1920 के आंदोलन में खिलाफत के धार्मिक नारे के आधार पर मुसलमानों को साथ लेने का विरोध भी किया था लेकिन बाद में अंग्रेजों की चाल में फंस गए और लियाकत अली ने उनको मुसलमानों का नेता बना दिया।
नतीजा यह हुआ कि 1936 से 1947 तक हम मुहम्मद अली जिन्नाह को मुस्लिम लीग के नेता के रूप में देखते हैं जो कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी साबित करने के चक्कर में रहते थे। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के पास था और उन्होंने कांग्रेस को किसी एक धर्म की पार्टी नहीं बनने दिया। लेकिन जब पाकिस्तान की स्थापना हो गई तब जिन्नाह ने ऐलान किया कि हालांकि पाकिस्तान की स्थापना इस्लाम के अनुयायियों के नाम पर हुई है लेकिन वह एक सेकुलर देश बनेगा। अपने बहुचर्चित 11 अगस्त 1947 के भाषण में पाकिस्तानी संविधान सभा की अध्यक्षता करते हुए जिन्नाह ने सभी पाकिस्तानियों से कहा कि, 'आप अब आजाद हैं। आप अपने मंदिरों में जाइए या अपनी मस्जिदों में जाइए।
आप का धर्म या जाति कुछ भी हो उसका पाकिस्तान के राष्ट्र से कोई लेना-देना नहीं है। अब हम सभी एक ही देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। ऐसे नागरिक, जो सभी एक दूसरे के बराबर हैं। इसी बात को उन्होंने फरवरी 1948 में भी जोर देकर दोहराया।
उन्होंने कहा कि,
'किसी भी हालत में पाकिस्तान धार्मिक राज्य नहीं बनेगा। हमारे यहां बहुत सारे गैर मुस्लिम हैं। हिंदू, ईसाई और पारसी हैं लेकिन वे सभी पाकिस्तानी हैं। उनको भी वही अधिकार मिलेंगे जो अन्य पाकिस्तानियों को और वे सब पाकिस्तान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।'
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लेकिन पाकिस्तान के संस्थापक का यह सपना धरा का धरा रह गया और पाकिस्तान का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो गया। पहले चुनाव के बाद ही वहां बहुमतवादी राजनीति कायम हो चुकी थी और उसी में एक असफल राज्य के रूप में पाकिस्तान की बुनियाद पड़ चुकी थी। 1971 आते-आते तो नमूने के लिए पाकिस्तानी संसद में एकाध हिंदू मिल जाता था वर्ना पाकिस्तान पूरी तरह से इस्लामी राज्य बन चुका था। अलोकतांत्रिक धार्मिक नेता राजकाज के हर क्षेत्र में हावी हो चुके थे।
इसलिए एक राष्ट्र के रूप में हमको भी चौकन्ना रहना पड़ेगा। बहुमतशाही के चक्कर में पड़ने से बचना होगा। अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की औकात हमको धर्मनिरपेक्षता सिखाने की नहीं है लेकिन हमें अपने संविधान के मूल्यों की रक्षा करनी ही पड़ेगी। भारत में बहुमतवाद की राजनीति को स्थापित करने की कोशिश की को लगाम देना होगा। क्योंकि धार्मिक कट्टरता किसी भी राष्ट्र का धर्म नहीं बन सकती। जवाहरलाल नेहरू के युग तक तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि धार्मिक समूहों का विरोध करे या पक्षपात करे लेकिन उनके जाने के बाद धार्मिक पहचान की राजनीति ने अपने देश में तेजी से रफ्तार पकड़ी और आज राजनीतिक प्रचार में वोट हासिल करने के लिए धार्मिक पक्षधरता की बात करना राजनीति की प्रमुख धारा बन चुकी है। इसको संभालना ज़रूरी है।
शेष नारायण सिंह