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आजादी का अमृत महोत्सव : बिहार में फासीवाद के विकल्प का नया संधान
Arun Maheshwari on Nitish Phenomenon
आजादी की 75वीं सालगिरह का सप्ताह और 9 अगस्त, अर्थात् अगस्त क्रांति का दिन। ‘भारत छोड़ो’ का नारा तो गांधीजी ने दिया था, पर बिहार की धरती पर इस आंदोलन को एक ऐतिहासिक क्रांति का रूप दिया था कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया ने। उसी बिहार में इस बार 9 अगस्त के दिन ही जो घटा है, आज के भारत की राजनीतिक परिस्थिति में इसका इसका कितना भारी महत्व है, इसे बहुत सहज ही समझा जा सकता है।
दायरा सिकुड़ गया है भाजपा का, विपक्ष खिल उठा है
अभी पंद्रह दिन पहले ही ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रताप भानु मेहता ने एक लेख में कहा था कि भारत में विपक्ष की नगण्यता (littleness) भाजपा को विशाल (big) बना देती है। अब नीतीश कुमार के फैसले के बारे में ‘टेलिग्राफ’ की खबर की एक सुर्खी है, — ‘भाजपा का दायरा सिकुड़ गया है, विपक्ष खिल उठा है’।
राजनीति में असंभव शब्द का सचमुच कोई स्थान नहीं
सचमुच राजनीति में असंभव शब्द का कोई स्थान नहीं होता है। जैसे आदमी की फितरत है कि वह चीजों को बार-बार बनाने, बिगाड़ने के जरिये ही उन पर अपना अधिकार कायम करता है। वैसे ही राजनीति संभावनाओं का खेल है, जिसमें विकल्पों की तलाश की प्रक्रिया में अनोखे ढंग से उपस्थित विकल्पों के साथ ही अनुपस्थित, अर्थात् न दिखाई देने वाले विकल्पों की भी भूमिका होती है।
राजनीति में विचारों का अंत नहीं, हमेशा समय के साथ एक प्रवाह होता है, अर्थात् लंबे अंतरालों के बाद भी विचारधाराएं नए रूप में, नई भूमिका के साथ सामने आती हैं। विचार आवर्त्तित होते हैं, पर निश्चित तौर पर नए रूप में। इस प्रवाह के कारण ही अनिवार्य तौर पर नया रूप पुराने से अलग होता है।
राजनीति का सत्य यही है कि इसमें कभी भी कोई चीज खुद को हूबहू नहीं दोहरा सकती है।
बिहार की सन् ’42 की प्रबल समाजवादी धारा लगभग पचास साल के अंतराल के बाद मंडलवाद के रूप में आवर्त्तित हुई थी। उसे ही अब फिर लगभग अढ़ाई दशक के बाद के तमाम घात-प्रतिघातों के उपरांत आज के भारत में जनतंत्र और संघीय ढांचे की रक्षा की लड़ाई के रूप में उतने ही प्रबल रूप में उभरते हुए देखना किसी को भी अतिरंजना लग सकता है।
पर सच्चाई यह है कि विकल्पहीन मान लिये जा रहे राजनीतिक विश्वासों के इस काल में विकल्प के किसी भी संकेत को चमत्कारी, और इसीलिए अविश्वसनीय मानना ही स्वाभाविक है। आज के विपक्ष की तुच्छता के समय में, बिहार में नीतीश की सरकार 242 सदस्यों की विधान सभा में भाजपा के 77 सदस्यों के मुकाबले 164 सदस्यों के साथ एक प्रतिरोध के ऐसे मजबूत गढ़ के रूप में सामने आना, जिसे न मोदी के पास मौजूद अनाप-शनाप धन की ताकत और न अमित शाह की ईडी की करतूतें ही डिगा सकती है, कैसे कोई इस पर यकीन कर सकता है !
अभी एक हफ्ता भी नहीं बीता था जब पटना में भारी अहंकार के साथ भाजपा के अध्यक्ष नड्डा ने भारत में सभी क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को खत्म करके देश में जनतंत्र और संघीय ढांचे के सामने एक नग्न चुनौती पेश की थी। हमारी राजनीति ने उनका उत्तर खोज निकालने में जैसे जरा भी देर नहीं की। ऐसा लगता है जैसे नड्डा के झटके ने अपने-अपने आहत अहम् से विक्षिप्त कटे हुए समाजवादियों को एक झटके में उनके अस्तित्व के यथार्थ से जोड़ दिया। जो यह राजनीति और विचारधारा के संबंध को नहीं समझते, वे कभी इस घटना को भी नहीं समझ सकते हैं।
राजनीतिक दलों का अस्तित्व मूलतः विचारधाराओं पर आधारित होता है। राजनीति को शुद्ध व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने की अवसरवादी कला मानने वाले इसे कभी नहीं समझ सकते हैं। वे समाजवादी-मंडलवादी राजनीति के इस आवर्त्तन के पीछे काम कर रही आज की राजनीतिक जरूरतों को नजरंदाज करते हैं। वे ही आज अतीत के अनुभवों के हवाले से नीतीश, राजद और कांग्रेस के गठबंधन को क्षणभंगुर बताते हैं।
बिहार के इस घटनाक्रम ने न सिर्फ विपक्ष की ‘नगण्यता’ की स्थिति को ही खत्म किया है, बल्कि 2024 के आम चुनाव में सांप्रदायिक फासीवाद की पराजय की संभावना की एक नई जमीन तैयार कर दी है।
इसने कांग्रेस, वाम और समाजवादियों के साथ ही किसान-मजदूर आंदोलन की उस धुरी का साफ संकेत दिया है, जो मोदी की हिटलरशाही को परास्त करने में हर लिहाज से सक्षम होगी।
जो भी बिहार के राजनीतिक यथार्थ से परिचित हैं, वे जानते हैं कि बिहार में नीतीश को वामपंथियों के समर्थन का क्या मायने है। यह अंबेडकरवाद के साथ जैविक संपर्क की तलाश में लगे वामपंथ के लिए एक ऐसी नई भूमिका की जमीन तैयार करता है, जिसमें वह फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में सामाजिक जनवादियों की पुरानी अवसरवादी भूमिका से उत्पन्न पूर्वाग्रहों की आत्म-बाधा से मुक्त हो सकता है।
भाजपा आज बिहार में तो सबसे कटी हुई एक अकेली पार्टी है ही, पूरे उत्तर भारत में उसके पास कहीं भी कोई सहयोगी दल नहीं बचा है। आने वाले दिनों में इसका अलगाव और बढ़ेगा, बिहार में नीतीश के कदम से यह उम्मीद पैदा हुई है।
—अरुण माहेश्वरी
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Amrit Mahotsav of Independence: New research on alternative to fascism in Bihar