/hastakshep-prod/media/post_banners/ZKpneY8vZ8KiE2eaht18.jpg)
/filters:quality(1)/hastakshep-prod/media/post_banners/ZKpneY8vZ8KiE2eaht18.jpg)
नहीं रखे मैंने तुम्हारी,
सिगरेटों के अधबुझे टोटे,
छुपा कर किसी अल्मारी-शल्मारी में,
कि जब हुड़क लगे तेरी,
दबा कर उंगलियों में दो कश खींचूँ,
और धुएँ के उड़ते लच्छों में तेरे अक्स तलाशूँ।
ना चाय के झूठे प्याले में,
बचे घूँट को पिया कभी मैंने,
ना चूमीं प्याली पर छपी होंठों की,
मिटी-सिटी लकीरों को,
मैं जानती हूँ कि मैं ‘अमृता प्रीतम‘ नहीं
ना ही तुम ‘साहिर’
कोई ‘इमरोज़ ‘भी नहीं है
जो शिद्दत से पढ़ लें वो,
जो मैंने कभी लिखा ना हो ।
और इक उनींदी सी रात के पाँव में,
इश्क़ पहना दे।
बहुत आम हूँ मैं,
बेहद मामूल शक्ल वाली,
लड़ती, झगड़ती, रूठती,
करती शिकायतें सौ-सौ दफ़ा तुमसे,
कई दफ़ा बिस्तर के इक किनारे पर
पड़ी रही हूँ मैं,
रात-रात भर एक ही करवट,
सुबकते हुए तकिया भिगोते हुए आँखों से,
हाँ नहीं जानती कुछ लिखना-विखना,
/hastakshep-prod/media/post_attachments/NSVV7kk4mGfMWS2Df6Tb.jpg)
जज्बात को सफेद ज़मीन देना ही नहीं आया,
काग़ज़ों के सामने थरथराती है क़लम,
मेरा हाथ कंपकंपाता है,
मैंने हर्फ़ों को क़रीने से,
अल्फ़ाज में पिरोना नहीं जाना,
अमृता प्रीतम नहीं हूँ मैं,
और ना ही तुम साहिर,
जानती हूँ नहीं महकेंगे ज़माने के ज़िक्र में
हमारे इश्क़ के रूक्के,
किताबों में रखें सूखे गुलाब की तरह
शायद बग़ावती है,
मेरे इश्क़ का जिस्म,
जिसे हरगिज़ मंज़ूर नहीं,
ज़िंदा चिना जाना,
जिल्द के किताबी महल में
सफ़ेद सफ़हों वाली
काली ईंटों के तले...
डॉ. कविता अरोरा