उर्दू के अज़ीम इंक़लाबी शायर, गंगा-जमुनी तहज़ीब के अमीन और पासदार, जंग-ए-आज़ादी के मुजाहिद जनाब पंडित आनंद मोहन जुत्शी “गुलज़ार देहलवी” (Anand Mohan Zutshi Gulzar Dehlvi) 12 जून 2020 को अपने चाहने वालों को ग़मज़दा छोड़ कर इस दुनिया से रुख़सत हो गए। आज से पाँच दिनों क़ब्ल गुलज़ार साहब कोरोना को मात देने में कामयाब हुए थे और इस मोहलिक मर्ज़ से शफ़ायाब हो कर अस्पताल से घर लौटे थे। लेकिन मालिक-ए-हक़ीक़ी ने उनको अपने पास बुला लिया।
वह 07 जुलाई 1921 को देहली में एक कश्मीरी पंडित घराने में पैदा हुए थे। वह उर्दू ज़बान और तहज़ीब के एक सच्चे आशिक़ थे। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी उर्दू की ख़िदमत के लिए समर्पित कर दी थी।
वह 1975 में भारत सरकार की उर्दू में प्रकाशित होने वाली पहली साइन्सी मैगज़ीन “साइंस की दुनिया” के संपादक बने और उनकी इदारत में यह मैगज़ीन बहुत मक़बूल हुआ। 2009 में उनकी अदबी ख़िदमात के लिए उनको “मीर तक़ी मीर अवार्ड ” से नवाज़ा गया था। भारत सरकार ने उनको पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित किया था। गुलज़ार साहब कुल हिन्द मुशायरों और बैनूलअक़्वामी मुशायरों में कसरत से शिरकत करते थे। उनका कलाम पेश करने का अपना एक अलग अंदाज़ था जो उनकी ख़ास पहचान था। उनकी वफ़ात से उर्दू दुनिया में जो ख़ला बना है उसे पुर करना मुमकिन नहीं।
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गुलज़ार देहलवी साहब के चंद अशआर उन्हीं को श्रद्धांजलि देने के लिए :-
Mohammad Khursheed Akram Soz
जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों ज़िबह होती है
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जहाँ तज़लील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना
उम्र जो बे-ख़ुदी में गुज़री है
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बस वही आगही में गुज़री है
ज़िंदगी राह-ए-वफ़ा में जो मिटा देते हैं
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नक़्श उलफ़त का वो दुनिया में जमा देते हैं
किसी की राह-ए-मुहब्बत में बढ़ता जाता हूँ
न राहजन से ग़रज़ है न राहबर से मुझे
ज़माना मेरी नज़र से तो गिर गया लेकिन
गिरा सका न ज़माना तेरी नज़र से मुझे
गुलज़ार देहलवी साहब इस दुनिया से तो रुख़सत हो गए लेकिन अपनी बे-मिसाल शाएरी के ज़रिया हमेशा हमारे दिलों में ज़िंदा रहेंगे !