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मोदी-शाह सरकार के नागरिकता संशोधन कानून की आग में देश उबल रहा है। और उत्तर-पूर्व शब्दश: जल रहा है, जहां के जटिल बहु-उपजातीय व जनजातीय और बहु-धार्मिक, बहुभाषायी समाज की पुरानी भ्रंश रेखाओं को चौड़ा कर दिया गया है और पुराने घावों को कुरेद दिया गया है। हालांकि, संसद के पिछले ही सत्र में ‘‘एक देश-एक कानून’’ को, संविधान की धारा-370 के तहत जम्मू-कश्मीर को कम से कम कानूनी तौर पर हासिल विशेष दर्जे के खिलाफ अपनी मुख्य ‘‘युद्ध पुकार’’ बनाने वाली मोदी-शाह जोड़ी को, इस मामले में एक बार भी उक्त नारा याद नहीं आया है।
बहरहाल, उत्तर-पूर्व की चिंताओं का ख्याल रखने के बहुप्रचारित दिखावे में उनके मणिपुर समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्यों को पूरी तरह से और असम व त्रिपुरा के जनजातीय इलाकों को, नागरिकता कानून के इस संशोधन की जद से बाहर कर देने के बावजूद, उत्तर-पूर्व में स्थिति विस्फोटक है।
असम में सीएएविरोधी आंदोलन में, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चार मौतें हो चुकी थीं, पूरे इलाके में जनजीवन ठप्प था और असम, त्रिपुरा तथा इस क्षेत्र के बड़े हिस्से में कश्मीर की तर्ज पर इंटरनेट सेवाएं बंद की जा चुकी थीं तथा टेलीविजन चैनलों समेत मीडिया को सीधी कार्रवाई कर के धमकाया जा चुका था कि जनता को आंदोलन की जानकारी देने का अपना बुनियादी काम ही नहीं करे।
जाहिर है कि उत्तर-पूर्व के लोगों को, मोदी-शाह जोड़ी के ‘‘कश्मीर’’ को कथित रूप से ‘‘आजाद’’ कराने के समय ही, जनतांत्रिक ताकतों द्वारा की गयी यह आगही आज सही होती लग रही है, अगला नंबर उनका हो सकता है!
संघ-भाजपा ने स्थानीय विभाजनों को भुनाने और उससे भी बढक़र सत्ताबल तथा धनबल के सहारे बड़े पैमाने पर राजनीतिक पार्टियों, ग्रुपों तथा नेताओं की खरीद-फरोख्त के जरिए, असम व त्रिपुरा समेत इस क्षेत्र के ज्यादातर राज्यों में सरकार तक किसी न किसी हद तक पहुंच भले हासिल कर ली हो, फिर भी अपनी सारी भिन्नताओं व विभाजनों के बावजूद, उत्तर-पूर्व के लोग, जो दिल्ली की सत्ता मंसूबों के प्रति हमेशा से संशयशील रहे हैं, संघ-भाजपा के हिंदुत्ववादी शासन के प्रति और भी संशयशील हैं। उन्हें लगता है कि वह अपने संकीर्ण एजेंडा के लिए, उनके हितों को कुर्बान करने में और उनकी विशिष्ट पहचान को खतरे में डालने में नहीं हिचकेगा।
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी-1 के पांच साल के दौरान गोकशी-विरोध, लव जेहाद विरोध आदि से लेकर घर वापसी तथा हिंदी थोपने तक की हमलावर मुहिमों ने, मौजूदा दिल्ली सल्तनत की नीयत को लेकर उनकी आशंकाओं को बढ़ाया ही था।
मोदी-1 के दौरान लाए गए और वास्तव में इसी जनवरी में लोकसभा से पारित भी करा लिए गए, सीएबी-2016 ने उत्तर-पूर्व की इन आशंकाओं को बढ़ाया ही नहीं था, उसे बड़े पैमाने पर आंदोलित भी किया था।
ऐसा भी नहीं है कि मोदी-शाह अपनी ओर से इसके आश्वासन नहीं देते रहे हैं कि उत्तर-पूर्व उनके लिए, कुर्बानी का मोहरा नहीं है। और यह कम से कम इस हद तक तो सच भी है कि उत्तर-पूर्व उनके लिए, फिलहाल उस हद तक या उतनी फौरी रणनीति के लिए कुर्बानी का मोहरा नहीं है, जैसा मिसाल के तौर पर कश्मीर है। वास्तव में मोदी-शाह सरकार ने यह अंतर तभी स्पष्ट कर दिया था जब उसने ‘‘एक देश, एक कानून’’ के युद्ध घोष के साथ, जम्मू-कश्मीर राज्य को कम से कम कागज पर विशेष दर्जा देने वाली धारा-370 को खत्म करते हुए, बार-बार इसका भरोसा दिलाया था कि धारा-371 के जरिए देश के अन्य अनेक राज्यों में, खासतौर पर उत्तर-पूर्व के राज्यों में लागू, ‘‘एक कानून’’ के अपवादों या विशेषाधिकारों को ‘‘छुआ भी नहीं जाएगा!’’ इस फौरी अंतर को, एक और एकदम हालिया उदाहरण में भी देखा जा सकता है।
भाजपा के प. बंगाल के पूर्व-अध्यक्ष, तथागत रॉय के राज्यपाल के संवैधानिक पद पर रहते हुए, ट्विटर के माध्यम से आए दिन संविधानविरोधी बयान देने के बावजूद, मोदी राज को कभी उनसे कोई दिक्कत नहीं हुई। यहां तक कि पुलवामा की घटना के संदर्भ में, जम्मू-कश्मीर राज्य और कश्मीरियों व कश्मीरी मालों का बहिष्कार करने की अपील का उनके सार्वजनिक रूप से अनुमोदन करने के बावजूद, मोदी राज को रॉय पर अपनी कृपा बनाए रखने में कोई कोई हिचक नहीं हुई थी।
बहरहाल अब, नागरिकता कानून के विरोध के संदर्भ में, तथागत रॉय की ट्विटर पर टिप्पणियों (Tathagata Roy's comments on Twitter against in protests against citizenship Act) के लिए, जिनमें इस कानून का विरोध करने वालों को एक तरह से ‘उत्तरी-कोरिया चले जाने’ का रास्ता दिखा दिया गया था, जब लोगों ने शिलांग में राजभवन को घेर लिया, मोदी राज को रॉय को राजभवन में बनाए रखना कुछ ज्यादा ही महंगा सौदा लगने लगा। फौरन उन्हें मेघालय के राज्यपाल के पद से हटाकर छुट्टी पर भेज दिया गया और एलान कर दिया गया कि नगालैंड के राज्यपाल फिलहाल मेघालय के राज्यपाल का भी पदभार संभालेंगे।
The North-East is burning with the anti-minority politics of the Sangh-BJP
इसके बावजूद, अगर उत्तर-पूर्व आज अगर जल रहा है, तो इसी के एहसास से कि संघ-भाजपा की अल्पसंख्यकविरोधी ध्रुवीकरण की रणनीति (जिसका देश के पैमाने पर ज्यादा फोकस फिलहाल मुस्लिमविरोधी ध्रुवीकरण पर है) की, सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं, गैर-मुसलमानों को भी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। और इसका रूप एक बहुत ही विविधतापूर्ण समाज पर, सांप्रदायिक-सांस्कृतिक एकरूपता लादे जाने की गहरी किंतु सामान्य क्षति तक सीमित नहीं रहेगा। इसका रूप कहीं प्रत्यक्ष और भौतिक अर्थ में कहीं ठोस भी हो सकता है।
इसका संदर्भ यह है कि उत्तर-पूर्व में, जहां ऐतिहासिक रूप से और वास्तव में ब्रिटिश राज के समय से मैदानी इलाकों से लोग बसते/ बसाए जाते रहे हैं, 1971 में बंगलादेश के गठन से पहले के वर्षों में खासतौर पर पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग आकर बसे थे। भौगोलिक व सामाजिक-सांस्कृतिक निकटता के चलते, पूर्व में बंगाल के अलावा उत्तर-पूर्व में असम व त्रिपुरा में, जहां पहले ही काफी संख्या में बंगला-भाषी बसे हुए थे, विशेष रूप से सीमा पार से बंगाली पहुंचे थे। वर्षों में हुए इस पलायन के पीछे धार्मिक-सांस्कृतिक ही नहीं, आर्थिक कारण भी थे और इनमें हिंदुओं के अलावा मुसलमानों का भी अच्छा-खासा हिस्सा था।
स्वाभाविक रूप से इस क्षेत्र के मूल निवासियों को, इसे लेकर शिकायतें भी थीं। फिर भी बंगाल तथा त्रिपुरा में, जहां मेहनतकश जनता को उसकी साझा मांगों के आधार पर एकजुट करने वाला वामपंथी आंदोलन मजबूत था, वंचितों के बाहरी और मुकामी के आधार पर उल्लेखनीय तरीके से एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होने की नौबत नहीं आयी। यही नहीं, बाहर से आ बसे लोगों के लिए भी वक्त के साथ न्यूनतम सुविधाओं व अधिकारों को सुनिश्चित किया गया। इससे भिन्न असम में, जहां भाषायी भिन्नता ज्यादा थी, तरह-तरह की दक्षिणपंथी ताकतें असमिया संस्कृति व पहचान के लिए खतरे का नैरेटिव आगे बढ़ाने में कामयाब रहीं।
इमर्जेंसी के बाद के दौर में, असमिया संस्कृति के लिए खतरे के इसी नैरेटिव (The threat to Assamese culture) को लेकर चर्चित असम आंदोलन उठा था, जो 1985 में केंद्र व राज्य सरकारों और आंदोलनकारी आसू के बीच समझौते के साथ खत्म हुआ था। इस आंदोलन ने बहुत से मामलों में उग्र बंगालीविरोधी रूप भी लिया था और इसके दौरान असमिया और बंगाली, सभी वंचितों की एकता पर जोर देने के लिए, वामपंथ को भी हिंसक हमलों का निशाना बनाया गया था। फिर भी इस आंदोलन को मुस्लिमविरोधी आंदोलन में तब्दील करने की आरएसएस-जनसंघ की कोशिशें विफल रही थीं और यह आंदोलन इस केंद्रीय सहमति पर समाप्त हुआ था कि बंगलादेश की स्थापना की तिथि, 25 मार्च 1971 तक आए लोगों को असम में नागरिक के तौर पर स्वीकार किया जाता है, लेकिन उसके बाद आए सभी लोगों को--वे चाहे हिंदू हों या मुसलमान--विदेशी के रूप में हटाया जाएगा। यह किया जाना था 1951 में असम में बने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को, 1971 की कट-आफ तिथि के आधार पर अपडेट करने के जरिए।
याद रहे कि यह सब विदेशियों की पहचान तथा उनके निष्कासन की सामान्य प्रक्रिया के ऊपर से होना था। इस दौरान एनआरसी के अद्यतन किए बिना ही, असम में चुनाव आयोग के जरिए डी-वोटर या संदिग्ध-वोटर की विचित्र व्यवस्था के जरिए, भारी संख्या में लोगों को मताधिकार से ही वंचित नहीं किया जा चुका था, उन्हें विदेशी ट्रिब्यूनलों की अर्द्ध-न्यायिक व्यवस्था से गुजारने के जरिए विदेशी करार देकर, हजारों की संख्या में जेलनुमा कैंपों में ठूंसा जा चुका था, जहां जेलों जितनी भी सुविधाएं नहीं थीं। और न उन्हें इस जेल का कोई अंत नजर आता था क्योंकि विदेशी घोषित किए गए लोगों को अपना नागरिक मानकर लेने के लिए कोई देश जब तक तैयार नहीं हो, उनकी इस यातना का अंत नहीं हो सकता है।
इसी सब की पृष्ठ भूमि में, वक्त गुजरने के साथ एनआरसी को अद्यतन बनाने के जरिए, बड़े पैमाने पर विदेशियों की पहचान का मुद्दा पीछे खिसकता गया और इस मामले को छेड़ने के खतरों को समझते हुए, किसी भी सरकार ने रस्मअदायगी के सिवा इसके लिए उत्सुकता भी नहीं दिखाई। लेकिन, केंद्र और असम में भाजपा की सरकार बनने के बाद यह सब बदल गया। कथित रूप से ‘‘करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों’’ से देश को मुक्त कराने के अपने मूलत: अपने बंगाली मुसलमानविरोधी अभियान के हिस्से के तौर पर, संघ-भाजपा ने एनआरसी की मांग को पुनर्जीवित कर दिया और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने, सारी समस्याओं की ओर से आंखें मूंदकर उसका अंजाम तक पहुंचाया जाना सुनिश्चित कर दिया।
बहरहाल, असम में एनआरसी को लेकर संघ-भाजपा का यह उत्साह तभी तक चला, जब तक यह प्रक्रिया किसी सिरे पर नहीं पहुंच गयी। जब अद्यतन एनआरसी का पहला मसौदा प्रकाशित हुआ, जिसमें करीब 40 लाख लोगों के नाम छूट गए थे, संघ-भाजपा का उत्साह यह जानकर आधा रह गया कि उनके प्रचार के विपरीत, कथित घुसपैठियों का अनुपात चिंताजनक रूप से ज्यादा नहीं था। इसके ऊपर से, संभावित रूप से विदेशी के रूप में छूटे नामों में, खासी तादाद में हिंदू भी थे। और इसी अगस्त के आखिर में एनआरसी की अंतिम सूची के प्रकाशन तक, संघ-भाजपा ही नहीं असम से लेकर केंद्र तक की उसकी सरकारें भी, बाकायदा इस एनआरसी को खारिज करने की ही मांग करने लगीं क्योंकि ऐसा समझा जाता है कि अंतिम सूची में संभावित विदेशियों या घुसपैठियों के रूप में छूटे 19 लाख से ज्यादा नामों में, दो-तिहाई से ज्यादा नाम हिंदुओं के हो सकते हैं। अब तो अमित शाह ने गृहमंत्री की हैसियत से इसका एलान ही कर दिया है कि पूरे देश में एनआरसी के साथ, जो वह जल्द ही लाएंगे, असम में भी दोबारा एनआरसी होगी। अचरज की बात नहीं है कि इस पृष्ठ भूमि में मोदी-शाह सरकार के नागरिकता कानून संशोधन के जरिए, सिर्फ मुसलमानों को छोडक़र बाकी सब अवैध रूप से आए लोगों को नागरिकता देने का रास्ता खोले जाने पर, पक्के संघभक्तों के खुश होने के विपरीत, असम के और शेष-पूर्वोत्तर के भी लोग इसमें अपने यहां, बड़े पैमाने पर बाहर के लोगों के सारे नागरिक अधिकारों के साथ बसाए जाने का गंभीर खतरा देख रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि मोदी-शाह सरकार के सांप्रदायिक गोलबंदी के इस खेल में, उन्हें भी कुर्बानी का मोहरा बनाया जा रहा है।
जाहिर है कि अवैध रूप से आए बाकी सब धर्मों के मानने वालों को ‘‘शरणार्थी’’ और सिर्फ मुसलमानों को ‘‘घुसपैठिया’’ करार देने और फिर इन शरणार्थियों के प्रति करुणा दिखाने के उनके सांप्रदायिक स्वांग में, उत्तर-पूर्व की जनता को अपना भारी नुकसान ही दिखाई दे रहा है।
दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में और शेष देश भर में भी, मोदी-शाह का सांप्रदायिक खेल और साफ-साफ दिखाई दे रहा है, जहां इस तरह बंगलादेश से आए हिंदुओं के लिए नागरिकता का रास्ता खोले जाने के बाद, एनआरसी को चुन-चुनकर मुसलमानों को प्रताडि़त करने का हथियार बनाया जाना है। और यह सिर्फ आशंकाओं का मामला नहीं है। सीएबी को कानून बनाया जा चुका है और देश के पैमाने पर एनआरसी की प्रक्रिया की जमीन, राष्ट्रीय जनगणना के साथ तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर की तैयारी से शुरू की जा चुकी है, जिसे आधार बनाकर देश के पैमाने पर एनआरसी को तैयार किया जाएगा।
यही नहीं, सीएबी और एनआरसी का इस तरह का सीधा संबंध और किसी ने नहीं खुद अमित शाह ने बार-बार स्पष्ट किया था, जिन्होंने ‘देश को दीमक की तरह चाट रहे घुसपैठियों’ मुक्ति दिलाने के आश्वासन को, संघ-भाजपा के सांप्रदायिक प्रचार के एक महत्वपूर्ण वैचारिक हथियार के रूप में स्थापित किया है।
वास्तव में सीआरबी के असम के अनुभव को देखते हुए, अमित शाह ने देश के गृहमंत्री की हैसियत से पिछले आम चुनाव के बाद प. बंगाल में और बाकी देश भर में भी हिंदुओं को खासतौर पर बार-बार इसका भरोसा दिलाया था कि पहले सीएबी लाकर हिंदुओं को सुरक्षित किया जाएगा और उसके बाद एनआरसी के जरिए ‘‘चुन-चुनकर एक-एक घुसपैठिए’’ को देश से बाहर किया जाएगा। जाहिर है कि उनकी भाषा में घुसपैठिया माने है, मुसलमान! ईसाइयों की संख्या ही इतनी थोड़ी है कि उन्हें फिलहाल अनदेखा किया जा सकता है, ताकि मुख्य निशाने पर ही फोकस रहे।
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जाहिर है कि यह सबसे बढ़कर हिंदुओं के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के तथा हिंदुत्व की राजनीति के पीछे उनके सुदृढ़ीकरण के लिए है, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र को पलटकर, हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की फासीवादी परियोजना का हिस्सा है। फिर भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को उन बड़े कदमों के जरिए और तेज करना आज इसलिए और भी जरूरी हो गया है कि तेजी से गहराते चौतरफा आर्थिक संकट ने, मोदी राज के विकास के दावों और वादों की पूरी तरह से पोल खोल दी है। इसके चलते मेहनतकश जनता बड़े हिस्सों में तेजी से बढ़ते मोहभंग के राजनीतिक प्रभाव की काट के लिए, मोदी-शाह की जोड़ी बढ़ते पैमाने पर बहुसंख्यकवादी दुहाइयों का ही सहारा ले रही है। महाराष्ट्र तथा हरियाणा के हाल के चुनाव में उनकी उम्मीदों को तगड़ा झटका लगने के बाद, झारखंड में अपने चुनाव प्रचार में यह जोड़ी सबसे बढक़र, राम मंदिर बनाने के लिए श्रेय से लेकर, शरणार्थियों को शरण और घुसपैठियों को निकालने के कानून जैसी सांप्रदायिक दुहाइयों के ही सहारे है। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद, इस काठ की हांडी में दोबारा सरकार की खीर पकना मुश्किल है।
वास्तव में इस खुले सांप्रदायिक खेल को धीरे-धीरे पूरा देश समझ रहा है। इसके खिलाफ देश भर के छात्रों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। तमाम जनतांत्रिक ताकतें भी बढ़ते पैमाने पर एकजुट हो रही हैं। मेहनतकश अपने वास्तविक हितों के लिए संघर्षों में उतर रहे हैं। अब माहौल बदलने में बहुत देर नहीं लगेगी।
0 राजेंद्र शर्मा