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नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन (Anti-citizenship amendment act movement) की गहराई और विस्तार ने भारत को आज सचमुच बदल डाला है। सिर्फ छः महीने पहले पूर्ण बहुमत से चुन कर आए मोदी और उनके शागिर्द शाह का आज देश के आठ राज्यों में तो जैसे प्रवेश ही निषिद्ध हो गया है और एक भी ऐसा राज्य नहीं बचा है जहां वे भारी विरोध की आशंका से मुक्त हो कर निश्चिंतता से घूम-फिर सकते हो। यहां तक कि अभी तो बाहर के देशों में भी वे एक अवांछित व्यक्ति बन चुके हैं। हर जगह उनके लिये काले झंडे तैयार पड़े हैं।
This is a rare event in the political history of the world
दुनिया के राजनीतिक इतिहास में हम इसे स्वयं में एक विरल घटना के रूप में देख पा रहे हैं, जैसे कभी भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी स्वयं में एक विरल संघर्ष था। राजनीति का सबसे बड़ा सच यही है कि वह कहीं भी कभी हूबहू दोहराया नहीं जा सकता है। यह विज्ञान का कोई प्रयोग या गणित का समीकरण नहीं है जिसे आप बार-बार दोहरा कर एक ही परिणाम हासिर कर सकते हैं। राजनीति के घटना-क्रमों में कितनी ही एकसूत्रता क्यों न दिखाई दे, हर घटना अपने में अद्वितीय होती है।
इसीलिये भारत में पूरे देश के पैमाने पर अभी जो लहर उठी है, वह भी अद्वितीय है।
मोदी ने अपने शासन के इस दूसरे दौर में अपनी बुद्धि के अनुसार आजादी के अधूरे कामों को पूरा करने के इरादों से राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र को बदलने का जो संघी खेल कश्मीर से शुरू किया था, उसी का अब कुल जमा परिणाम यह दिखाई देता है कि आजादी की लड़ाई में अर्जित मूल्यों और संविधान के मूलभूत आदर्शों को हमेशा के लिये सुरक्षित कर देने के लिये पूरा भारत अब मचल उठा है।
मोदी के जहरीले सांप्रदायिक इरादों और शाह की दमनकारी हुंकारों ने जैसे अंग्रेजों के शासन के दंश के बोध को देश के छात्रों, नौजवानों में जिंदा कर दिया है और तमाम देशवासियों में आजादी की लड़ाई का हौसला पुनर्जीवित हो गया है।
With each passing day, this movement is creating a new India within itself.
भारत का यह महा-आलोड़न स्वयं में विरल है, क्योंकि न यह किसी कैंपस विद्रोह की अनुकृति है और न ही किसी ‘अरब बसंत’ की तरह का कोरा विध्वंसक तूफान। हर बीतते दिन के साथ यह आंदोलन अपने अंदर एक नये भारत का निर्माण कर रहा है। यह आंदोलन हमारे संविधान के विस्मृत कर दिये गये और आज फाड़ कर फेंक दिये जा रहे पन्नों को सहेज कर एकजुट और न्यायप्रिय भारत को नये सिरे से तैयार करने लगा है।
इसीलिये, जो यह समझते हैं कि समय के साथ यह आंदोलन शिथिल हो जायेगा या यह किसी अंजाम तक नहीं जायेगा या इसे नंगे दमन के बल पर कुचल दिया जायेगा — वे भारी मुगालते में हैं।
इस आंदोलन में अनंत संभावनाएं है, इसकी गहराई और विस्तार का कोई ओर-छोर नहीं है और इसकी आंतरिक ऊर्जा अकूत है, इसके सारे संकेत इसी बीच मिलने लगे हैं।
जो आंदोलन शुरू में असम के साथ ही भारत के चंद विश्वविद्यालयों के कैंपस से शुरू हुआ था, वह इसी बीच भारत के सभी उत्तर-पूर्व के राज्यों के शहरों, कस्बों और गांवों तक को पूरी तरह से अपनी जद में ले चुका है। बंगाल का कोई जिला केंद्र ऐसा नहीं है जहां रोजाना लाखों की संख्या में लोग प्रदर्शन न कर रहे हो। पूरा दक्षिण भारत आज इसके विरोध में उबल रहा है। पश्चिम में महाराष्ट्र, गोवा, और गुजरात में भी भारी प्रदर्शन चल रहे हैं। बिहार और उड़ीसा भी पीछे नजर नहीं आते। उत्तर प्रदेश का सच किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली तो आंदोलन का एक केंद्र-स्थल बना हुआ है।
देश के तकरीबन 16 राज्यों की सरकारों ने साफ ऐलान कर दिया है कि उनके राज्यों में इस नागरिकता कानून को लागू नहीं किया जायेगा। केरल की राज्य सरकार ने तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में जाकर केंद्र सरकार को ललकारा है। इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने भी धारा 144 के प्रयोग और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के बारे में एक ऐतिहासिक फैसला दे कर मोदी सरकार के मुँह पर करारी चपत मारी। फिर भी मोदी और उनके लोगों दशा बदहवास पागलों की तरह की बनी हुई है। कोई पागल ही तो अपने चारों ओर के यथार्थ के प्रति इस प्रकार अंधा हो सकता है !
मोदी और उनके लोग धोखेबाजी से छोटे-छोटे बच्चों के बीच अपने नागरिकता कानून के पक्ष में कहीं हाथ उठवा लेते हैं, तो कहीं पोस्टकार्ड से समर्थन लेने की कोशिश करते हैं। हद तो तब हो गई जब मिस्ड कॉल के जरिये समर्थन देने के लिये कामुक बातें करने वालों के विज्ञापनों का सहारा लिया जाने लगा।
गंदी से गंदी गालियाँ और कामुक बातें जिनके राजनीतिक प्रचार के औज़ार होंगे वे सिर्फ़ लिंचर्स और रेपिस्ट ही तैयार कर सकते हैं।
उनमें कोई नेता कहता है कि यदि किसी ने मोदी-योगी के विरुद्ध आवाज उठाई तो उसे जिंदा गाड़ दूंगा तो कोई कहता है कुत्तों की तरह गोली मार दूंगा, शहर फूंक दूंगा, नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध करने वालों का एक घंटे में सफाया कर दिया जायेगा।
कुल मिला कर परिस्थिति इतनी खराब होती जा रही है कि कोई भी सभ्य आदमी आगे बीजेपी के नेताओं के बग़ल में खड़ा होने से कतरायेगा। मोदी-शाह को इसका होश ही नहीं है।
ऐसा लगता है जैसे सत्ता के केंद्र में अमित शाह ने आकर मोदी को पूरी तरह से मज़ाक़ का विषय बना दिया है। मोदी अपनी जिन संघ वाली बुराइयों को अंधेरे में रखना चाहते थे, उनकी इन कोशिशों को ही उन्होंने प्रकाश में ला दिया है। कॉमेडी का मतलब ही है छिपाने की कोशिश का खुला मंचन।
मोदी-शाह पूरी बेशर्मी से इस झूठ को दोहराते रहते हैं कि सीएए नागरिकता देने के लिये है, किसी की नागरिकता छीनने के लिये नहीं। आज देश का हर समझदार आदमी जानता है कि इस क़ानून से धर्म के आधार पर भेद-भाव की जो ज़मीन तैयार की गई है, वही तो शुद्ध वंचना है।
केंद्र का गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी कहता है कि सीएए 130 करोड़ लोगों में से यदि एक को भी प्रभावित करेगा तो वे इस क़ानून को वापस ले लेंगे। यह नहीं मालूम कि यह किसी एक को नहीं, सारे 130 करोड़ लोगों को, भारत के संविधान को प्रभावित करेगा। और, जो चीज सबको समान रूप से प्रभावित करती है, उसके प्रभाव को किसी एक पर प्रभाव के ज़रिये नहीं समझा जा सकता है।
फासीवाद, नाजीवाद इटली, जर्मनी में किसी एक के विरुद्ध नहीं था। उसने इन देशों के प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित किया था।
राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र को नष्ट करके मोदी सरकार अपने हाथ में नागरिकों के बीच भेद-भाव करने का जो अधिकार लेना चाहती है, वह देश के हर नागरिक के जीवन को नर्क बनाने के लिये काफ़ी होगा।
जेएनयू के छात्रों पर हमलों के लिये जिस प्रकार गुंडों और पुलिस का प्रयोग किया गया, वह इनके नाजी चरित्र की सचाई को ही खोलता है।
चिन्हीकरण नागरिकों पर जर्मन नाजियों के जुल्मों का पहला चरण था। जेएनयू में पहले से चिन्हित करके होस्टल के कमरों पर हमले किये गये। यूपी में योगी ने इस कानून के नियमों के बनने के पहले ही इस प्रकार का चिन्हीकरण शुरू कर दिया है। इनके सीएए-एनपीआर-एनआरसी के पूरे प्रकल्प को ही राष्ट्र-व्यापी नाजी चिन्हीकरण का प्रकल्प कहना हर लिहाज से सही होगा।
बहरहाल, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, राजनीति में कभी किसी फार्मूले के अनुसार कुछ भी घटित नहीं होता है। इसीलिये संघियों का नाजी प्रकल्प भी आगे बढ़ने के पहले ही मुंह के बल गिरने के लिये अभिशप्त है। भारत की अपनी वैविध्यमय विशेषता और इसका राजनीतिक इतिहास ही नाजीवादी प्रयोग को कब्र देने के लिये काफी है। देश व्यापी, लगभग एक शांतिपूर्ण विद्रोह की शक्ल ले चुके इस आंदोलन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
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सचमुच राजनीति हमेशा एक असंभव की साधना है। राजनीति ही किसी भी ढर्रेवर रास्ते से अलग सामूहिक संभावनाओं की नई दिशा खोलती है और नई परिस्थिति के सूत्र प्रदान करती है। वही तमाम मान ली गई प्रभुत्वशाली चीजों से हमें अलग करती है। बस इसके लिये इतना ही जरूरी है कि वह अपनी जड़ता को छोड़ कर इस नई संभावना में प्रवेश करे। अपनी परंपरागत स्थिति से हट कर विमर्श की एक व्यापक प्रक्रिया में शामिल होना, और इस प्रकार एक असामान्य स्थिति की ओर बढ़ना राजनीति की सच्ची भूमिका की एक प्रमुख शर्त है।
जो राजनीति ऐसा नहीं करती, वह इतिहास के कूड़े पर फेंक दिये जाने के लिये अभिशप्त विचारशून्य नेताओं की कोरी भीड़ होती है। जो भी यह कहता है कि शाहीन बाग में संविधान की रक्षा लड़ाई का अंत ग़ैर-राजनीतिक तरीक़े से ही संभव है, वह महा मूर्ख है। बल्कि यहीं पर तो राजनीति के सामने खुद को साबित करने की सबसे बड़ी चुनौती है। देश की प्रमुख धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक राजनीतिक ताक़तों का इस आंदोलन में शामिल होना ही इसके सकारात्मक विकास के लिये ज़रूरी है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मैदान में भी मोदी-शाह-आरएसएस को पूरी तरह से पराजित करके इस ऐतिहासिक आंदोलन का युगांतकारी तार्किक अंत संभव होगा।
अरुण माहेश्वरी