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Anti-constitutional posture of Government is causing irreparable loss of Indian nation-state and national life.
1.
कश्मीर-समस्या, मंदिर-मस्जिद विवाद, असम-समस्या (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) और नागरिकता संशोधन कानून पर सरकार के फैसलों की चार बातें स्पष्ट हैं :
(1) फैसले साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नीयत से प्रेरित हैं.
(2) फैसलों में लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का इस्तेमाल भर किया गया है.
(3) फैसलों में नागरिकों के प्रति एक उत्तरदायी सरकार का सरोकार नहीं झलकता.
(4) फैसलों में स्पष्टता से अधिक भ्रम की स्थिति बना कर रखी गई है.
(5) फैसले आर्थिक क्षेत्र की नाकामियों को ढंकने के लिए भी हैं. सरकारों का काम संविधान का अनुपालन करते हुए राष्ट्रीय जीवन में शांति और समृद्धि कायम करना होता है.
मौजूदा सरकार के पास बहुमत है, और घोषित अजेंडा भी. उसे जो फैसले करने हैं, कर रही है और आगे करेगी. लेकिन वह लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत चुनाव में मिले बहुमत का इस्तेमाल बहुसंख्यकवाद (मेजोरिटेरियनिज्म) की धौंस के रूप में करती है. इससे बहुसंख्यक हिंदू समाज, जिसकी मुख्यधारा उदारवाद की रही है, में कट्टरता की पैठ बढ़ती जा रही है. सरकार की इस संविधान-विरोधी मुद्रा से भारतीय राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रीय जीवन की अपूरणीय क्षति हो रही है.
बेहतर होता जम्मू-कश्मीर में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ साझा सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कश्मीर-समस्या के समाधान पर पर राज्य विधानसभा में अपना विधेयक पेश करती और उस पर चर्चा होती।
बेहतर होता सरकार अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर बनाने का फैसला सुप्रीम कोर्ट का इस्तेमाल कर न्यायिक प्रक्रिया को ही बेमानी बना देने के बजाय बहुमत के बल पर संसद में कानून बना करती। बेहतर होता राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का कार्यान्वयन पूर्ववत केवल असम तक सीमित रखा जाता; नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) में अनिवार्यत: धार्मिक समुदायों का नामोल्लेख नहीं किया जाता; और उसमें श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार व चीन से आने वाले शरणार्थियों को भी शामिल किया जाता. किसी भी देश अथवा धर्म के शरणार्थियों को नागरिकता देनी है या नहीं, यह हमेशा सरकार के अधिकार में होता है. मौजूदा सरकार केवल पाकिस्तान-बांग्लादेश में उत्पीड़न के शिकार हिंदुओं को ही नागरिकता दे सकती है. इसके लिए राज्य के संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष चरित्र के साथ छेड़-छाड़ की जरूरत नहीं थी.
सरकार के इस कदम से लोकतांत्रिक देशों में भारत की छवि एक संविधान विरोधी और साम्प्रदायिक देश के रूप में बन रही है. सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करते हुए नागरिकता संशोधन कानून में अविलम्ब बदलाव करना चाहिए.
रोजो-रोटी की तलाश में बड़ी संख्या में बंग्लादेशी भारत में अवैध रूप से रहते हैं. उनकी पहचान करना सरकार और प्रशासन का काम है. उनके बहाने से देश की पूरी आबादी की नागरिक पहचान को लेकर बखेड़ा खड़ा करना किसी भी लिहाज से उचित नहीं है.
It is suggested that the Government of India identify Bangladeshis and arrange to give them work permits for a certain period of time.
मेरा एक सुझाव है कि भारत सरकार बांग्लादेशियों की पहचान करके एक निश्चित समयावधि के लिए उन्हें वर्क परमिट देने की व्यवस्था करे. जिनका आचरण और काम ठीक रहे उनका परमिट आगे के लिए बढ़ाया जा सकता है. इसमें नागरिकता देने का प्रश्न नहीं है. वे सभी फुटकर मजदूर हैं. उत्पीड़न केवल धार्मिक अथवा राजनीतिक नहीं होता. भारत सतत गरीबी को भी संयुक्त राष्ट्र और सरकारों द्वारा उत्पीड़न की कोटि में शामिल किए जाने का सुझाव दे सकता है.
2.
It is not always appropriate to blame the ulema for the problems of Muslims.
गांधी का कम से कम एक अहसान साम्प्रदायिक (कम्युनल) और धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) दोनों खेमों को मानना चाहिए कि विभाजन के वक्त उसने मुसलमानों को भारत में रोक लिया. आड़े वक्त में वे दोनों के काम आते हैं. मुसलमान न होते तो मोदी शायद ही भारत के प्रधानमंत्री होते और शाह गृहमंत्री. मुसलमान न होते तो धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों का कारोबार मंदा रहता.
सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं के लिए भी मुसलमान जरूरी हैं. उनकी जाति के बाद वोटों की भरपाई मुसलमान करते हैं.
सीधे नवउदारवाद की कोख से निकली आम आदमी पार्टी के लिए भी मुसलमान वोटों की लहलहाती खेती हैं.
मुसलमानों की समस्याओं के लिए हमेशा उलेमा को दोष देना मुनासिब नहीं है. जिम्मेदारी देश के कर्णधार नेताओं और जागरूक नागरिक समाज की थी कि मेहनतकश मुस्लिम आबादी उलेमा की गिरफ्त में ही न बनी रह कर स्वतंत्र नागरिक बने. ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि नागरिक चेतना से विहीन मुसलमान जितना उलेमा को चाहिए, उतना ही साम्प्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष खेमों को भी चाहिए.
एक महीना से ऊपर हो गया है. पूरे देश में सीएए/एनआरसी/एनपीआर के विरोध में जो आवाज उठी है उसकी धुरी मुसलमान हैं. यह आंदोलन काफी हद तक स्वत:स्फूर्त है. पहले नौजवानों और फिर महिलाओं की भागीदारी ने इस आंदोलन को विशेष बना दिया है. दिल्ली में शाहीनबाग का धरना कई तरह के आरोप-प्रत्यारोपों के बावजूद स्वत:स्फूर्त आंदोलन का प्रतीक बन गया है, जिसका प्रभाव देश के अन्य शहरों पर भी पड़ा है. यह बताता है कि कम से कम मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा नागरिक के रूप में पहली बार खुद के लिए जरूरी बन रहा है. प्रधानमंत्री का ध्यान भी इस तरफ गया है. उन्होंने पहले सीएए/एनआरसी/एनपीआर का विरोध करने वालों की पोशाक पर तंज कसा था. फिर उन्होंने संतोष ज़ाहिर किया कि यह अच्छी बात है कि मुसलमान तिरंगा लेकर निकलने लगे हैं. हालांकि आंदोलनकारियों को यह ध्यान में रखने की जरूरत कि जैसे-जैसे नवसाम्राज्यवादी गुलामी का शिकंजा कसता गया है, तिरंगा लहराने की कवायद उतनी ही तेज होती गई है. तिरंगा अब भारत के गौरव और संप्रभुता का ध्वज उतना नहीं रहा, जितना कारपोरेट राजनीति की उठान का झंडा बन गया है.
कुछ ऐसे स्वर भी सुनाई दे रहे हैं कि सीएए/एनआरसी/एनपीआर विरोधी आंदोलन से नए नेता निकल कर आएंगे.
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आशा और सम्भावनाओं का हमेशा स्वागत करना चाहिए. लेकिन संकट के मद्देनज़र नए नेताओं की नहीं, नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था के बरक्स नई राजनीतिक समझदारी और विचारधारा की जरूरत है. नए नेता लगातार निकल कर आ ही रहे हैं. उनमें स्थापित नेताओं और फोर्ड फाउंडेशन के बच्चों के अलावा सम्प्रदाय/जाति आधारित नेता हैं. सम्प्रदाय/जाति आधारित नेताओं के बारे में जल्दी ही पता चल जाता है कि वे या तो भाजपा-कांगेस जैसी बड़ी पार्टियों या क्षेत्रीय दलों द्वारा प्रायोजित होते हैं या किसी प्रतिरोध के चलते नेता बन कर स्थापित पार्टियों की गोद में बैठ जाते हैं. अगर तीस साल के नवसाम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का यही हासिल है तो यह गंभीर चिंता का विषय है. राष्ट्रीय आज़ादी के मायने और कार्यभार समझने वाले मुस्लिम सहित समस्त युवाओं को थोड़ा ठहर का इस पर विचार करना चाहिए.
दिल्ली में विधानसभा चुनावों के चलते राजनीतिक पार्टियों की सीएए/एनआरसी/एनपीआर विरोधी आंदोलन में विशेष दिलचस्पी स्वाभाविक है.
भाजपा इसे कोरा मुसलामानों का आंदोलन प्रचारित करके हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में लगी है. उसे शाहीन बाग का धरना हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए लाभकारी नज़र आता है. दिल्ली राज्य में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) ने सीएए/एनआरसी/एनपीआर का साफ़ विरोध न करके कहा है कि आंदोलन में हिंदू भी शामिल हैं. यह रणनीति उसने हिंदू और मुसलामान दोनों को उलझाए रखने के लिए बनाई है.
अयोध्या में मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'ऐतिहासिक' बता कर अरविंद केजरीवाल 'हिंदू-हित की बात' पहले ही कर चुके हैं. हालांकि कम्युनिस्टों का दिल्ली में कोई जनाधार नहीं है, उन्होंने आप का समर्थन करने का फैसला किया है. कांग्रेस पर पहले से 'मुसलमानों की पार्टी' होने का ठप्पा लगा है. सीएए/एनआरसी/एनपीआर का खुला विरोध करके उसने निस्संदेह जोखिम उठाया है.
यह देखना दिलचस्प होगा कि आंदोलन से जिस नए नेतृत्व के उभार की संभावनाएं बताई जा रही हैं, उसकी राजनीति क्या रूप लेती है? आंदोलन भी सम्भावनाओं का खेल होते हैं!
प्रेम सिंह
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)