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Arun Maheshwari - अरुण माहेश्वरी, लेखक सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों के टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं। छात्र जीवन से ही मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-आन्दोलन से जुड़ाव और सी.पी.आई.(एम.) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ से सम्बद्ध। साहित्यिक पत्रिका ‘कलम’ का सम्पादन। जनवादी लेखक संघ के केन्द्रीय सचिव एवं पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।
अरब बसंत : ‘अजेय’ तानाशाहियों को चुनौती
एक युग हुआ। सन् 2010 के बसंत का महीना था। तब अरब देशों में ‘सदियों’ की तानाशाहियों की घुटन में बसंत की एक नई बहार आई थी। ‘अरब स्प्रिंग’। कहते हैं कि वह इस अरब जगत के लोगों के अंतर के सुप्त आकाश में इंटरनेट की एक नई भाषा के स्पर्श से उत्पन्न हर्षातिरेक का आंदोलनकारी प्रभाव था। बिना किसी पूर्व संकेत के रातो-रात लाखों लोग राजधानी शहरों के मुख्य केंद्रों में जमा होकर अपने देश की ‘अजेय’ तानाशाहियों को चुनौती देने लगे थे। सामने बंदूके ताने सैनिक और टैंक खड़े थे। पर जैसे जान की किसी को कोई फिक्र ही नहीं थी। बेजुबान जिंदगी के होने, न होने का वैसे ही कोई अर्थ नहीं था ! आदमी तभी तक जिन्दा है जब उसके पास अपनी जुबान है। ‘अपनी’ जुबान, अन्य की उधार ‘जुबान’ नहीं। अर्थात् स्वतंत्रता है तो मनुष्यता है, अन्यथा जीने, मरने का कोई अर्थ नहीं !
तुनीसिया से मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जौर्डन, कुवैत, ओमान और सुडान से होते हुए जिबोती, मौरिटौनिया, फिलीस्तीन और सऊदी अरबिया तक के मुख्य शहरों के केंद्रीय परिसरों में प्रतिवाद की आवाजों की जो ध्वनि-प्रतिध्वनि तब शुरू हुई थी, सच कहा जाए तो वह आज तक भी पूरी तरह से थमी नहीं है। इस दौरान इस क्षेत्र में न जाने कितने प्रकार के विध्वंसक संघर्ष और युद्ध हो गए, पर वह आग अब तक बुझी नहीं है। क्रांति के अपेक्षित परिणामों की तलाश कहीं भी थमी नहीं है। इसीलिए, क्योंकि वहां के लोगों ने जीवन की जिस एक नई भाषा को पाया है, उसे उनसे कोई छीन नहीं पाया है और न ही कभी छीन पायेगा। सदियों के धार्मिक अंधेरे से निकलना अब उनकी भी नियति है, जैसी बाकी सारी मनुष्यता की है।
मनुष्य का प्रतिवाद क्या है और क्या इसे रोका जा सकता है?
दरअसल, मनुष्य का प्रतिवाद महज किसी भाषाई उपक्रम का परिणाम नहीं होता है, अर्थात् अभिनव गुप्त की भाषा में वह ‘शब्दज शब्द’ नहीं है। प्रतिवाद खुद में एक भाषाई उपक्रम है। इसे रोका नहीं जा सकता। भाषा की इस लाग से जीवित आदमी की कभी भी मुक्ति नहीं, बल्कि वही मनुष्य की पहचान होती है।
आक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश में गोबलिन मोड
आज की ही खबर है, आक्सफोर्ड में अंग्रेजी शब्दकोश बनाने वाले लेक्सिकोग्राफरों ने इस साल के सबसे अच्छे तीन नए पदबंधों में से एक को चुनने के लिए आम लोगों से राय मांगी थी। ये तीन शब्द थे — मेटावर्स, #आईस्टैंडविथ और गोबलिन मोड। कुल 3,18,956 लोगों ने इन तीनों में से सबसे पहले स्थान के लिए जिस शब्द को चुना, वह है — गोबलिन मोड। इसका अर्थ होता है ऐसा बेलौस, अव्यवस्थित जीवन-यापन जो किसी सामाजिक अपेक्षा की परवाह नहीं करता है। ‘मेटावर्स’ को दूसरे स्थान पर रखा गया और ‘#आईस्टैंडविथ’ को तीसरे पर।
अर्थात् लोगों की पहली पसंद है — स्वतंत्रता।
नई तकनीक से परिभाषित पाठ के लिए मेटावर्स और समाज के साथ एकजुटता के भाव से अधिक सार्थक शब्द है — व्यक्ति स्वातंत्र्य का बोध कराने वाला पदबंध ‘गोबलिन मोड’। उसे ही वर्ष 2022 का सबसे श्रेष्ठ नया शब्द घोषित किया गया है।
आज हम जब चीन में शासन के द्वारा कोविड के नाम पर चल रहे मूर्खतापूर्ण प्रतिबंधों के खिलाफ A4 आंदोलन की हकीकत को देखते हैं और जब ईरान में नैतिक पुलिस की स्त्री-विरोधी गंदगियों के खिलाफ जान पर खेल कर किए जा रहे प्रतिवाद के सच को देखते हैं, तब भी अनायास मनुष्य के अंतर में स्वातंत्र्य के भाव से उत्पन्न उसके उद्गारों के अनोखे यथार्थ के नाना रूप सामने आते हैं। ये दोनों आंदोलन आज आततायी राज्य के सामने भारी पड़ रहे हैं।
नोम चोमश्की को आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रवर्तक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने भाषा के मामले को मूलतः मनुष्य की जैविक क्रिया के रूप में देखने पर बल दिया था। वे मनुष्य की भाषा और उसके शरीर की क्रियाओं को अलग-अलग देखने के पक्ष में नहीं है। उन्होंने भाषा शास्त्र को जैविक-भाषाई (bio-lingual) आधार पर स्थापित करने की बात की थी।
हमारे यहां तो हजारों साल पहले पाणिनी से लेकर अभिनवगुप्त तक ने शब्दों के बारे में यही कहा है कि यह मनुष्य के शरीर के मुख प्रदेश से निकली हुई, उसकी जैविक क्रिया के परिणाम हैं। अभिनवगुप्त ने ही शब्द की ध्वनियों को खौलते हुए पानी के बर्तन की वाष्प से उसके छिद्र (शरीर के मुख) के आकाश के संपर्क से उत्पन्न प्रतिध्वन्यात्मक प्रतिबिंब कहा था। (पिठिरादिपिधानांशविशिष्टछिद्रसंगतौ / चित्रत्वाच्चास्य शब्दस्य प्रतिबिम्बं मुखादिवत् ) अपने तंत्रालोक में वे शरीर के अलग-अलग अंगों से बिम्बित-प्रतिबिम्बित भावों की ध्वनियों के अलग-अलग, हर्ष और विषाद के ध्वनि रूपों तक का विश्लेषण करते हैं। पाणिनी के व्याकरण से लेकर अभिनवगुप्त के तंत्रशास्त्र में वर्णों के स्वर-व्यंजन रूपों के उद्गम की इस कहानी को पढ़ना सचमुच एक बेहद दिलचस्प अनुभव है।
पर आज चीन में तो हम भाषा की नहीं, भाषाहीनता की, मौन, बल्कि शास्त्रीय भाषा में कहे तो नश्यदवस्था वाले अप्रकट शब्द की, अर्थात् अप्रतिध्वनित नि के एक अद्भुत संसार के साक्षी बन रहे हैं।
कल (5 दिसंबर 2022) के टेलिग्राफ में चीन में चल रहे प्रतिवाद के बारे में एक खबर का शीर्षक है — ‘चीन में तलवार से ज्यादा ताकत है A4 में’। अर्थात् ए4 साईज के खाली कागज में। कागज के अंदर फंसी पड़ी अलिखित, अप्रकट, अव्यक्त, ध्वनि में।
सचमुच थ्यानमन स्क्वायर (1989) वाले चीन में आज खाली कागज का टुकड़ा ! कभी एक महाशक्तिशाली राज्य के टैंकों से भिड़ जाने का तेवर और आज सिर्फ एक सादा कागज ! बस इतना ही महाबली की जीरो कोविड नीति की अप्राकृतिक अमानुषिकता के लिए भारी साबित हो रहा है ! पिछले कई दिनों से यह सिलसिला इंटरनेट के मीम्स के जरिए और चीन की चित्रमय मैंडरीन भाषा में नुक्ते के फेर से सारे अर्थों को बदल डालने के भाषाई प्रयोगों के जरिए चल रहा था। अब उसका स्थान बिना किसी आकृति के कोरे कागज ने ले लिया है।
चंद रोज पहले रूस में लोग एक कागज पर स्वातंत्र्य के गणितीय समीकरण को लिख कर लहरा रहे थे। यह गणितज्ञ एलेक्स फ्राइडमान का एक ऐसा अंतहीन समीकरण है जिसे उसकी अनंतता के कारण ही ‘फ्रीमैन’ की संज्ञा दी गई है। इसके अलावा कुछ लोग कागज पर सिर्फ विस्मयादि बोधक चिन्ह (!) को एक लाल वृत्त में घेर कर लहरा रहे थे। जब ‘व्हाट्सएप’ या ‘वी चैट’ की तरह के ऐप से कोई संदेष सामने वाले को प्रेषित नहीं हो पाता है, तब उसके सामने यही विस्मयादिबोधक चिन्ह उभर कर आ जाता है। अर्थात् अप्रेषित संदेश जो अदृश्य कारणों से अपने गंतव्य तक जा नहीं पाया है। विस्मय का वह चिन्ह ही अदृश्य राज्य के दमन के खिलाफ प्रतिवाद का प्रतीक बन गया।
रूस में जब ऐसे एक प्रदर्शनकारी से इसका अर्थ पूछा गया तो उसका संक्षिप्त सा जवाब था — ‘सब जानते हैं’। अर्थात् अव्यक्त भावों के लिए कोई भी चिन्ह पहले से सुनिश्चित नहीं होता है। उसके कोई रूप ग्रहण करने का निश्चित नियम नहीं होता है। वह महज एक सुविधा का विषय है।
सोचिए, क्रांति का रास्ता रूसी क्रांति जैसा होगा, या चीनी क्रांति या किसी और जगह जैसा ? कितना बचकाना है यह सवाल !
चीन में जो नए-नए नारे तैयार हो रहे हैं, उनमें ‘शी जिन पिंग मुर्दाबाद’, ‘कोविड का परीक्षण नहीं चाहिए’ या ‘हमें आजादी चाहिए’ जैसे नारे तो शामिल हैं ही, पर साथ ही ऐसे विपरिअर्थी नारे भी है कि — ‘हमें और ज्यादा लॉक डाउन चाहिए’ ; ‘हमें कोविड परीक्षण चाहिए’ (I want more Lockdowns, I want to do Covid Tests)। माओ की चर्चित उक्तियां भी प्रयोग में लायी जा रही है — अब चीन के लोग संगठित हो गए हैं, और उनमें सिर घुसाने की कोशिश मत करो।(Now the Chinese people have organised and no one should mess with them)
चीन की चित्रात्मक भाषा में एक ही वर्तनी के भिन्न उच्चारण से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। मसलन् banana skin को फेंको को ही भिन्न रूप में उच्चारित करने पर ध्वनित होता है — शी जिन पिंग को फेंको। फुटबाल विश्व कप के खेलों में बिना मास्क पहने दर्शकों की तस्वीरें भी वहां कोविड के प्रतिबंधों के प्रतिवाद का रूप ले चुकी है।
सचमुच, सवाल है कि प्रमुख क्या है ? प्रतिवाद का भाव या उसका रूप। शब्द या मौन ! आकृति या खाली कैनवास ! भाव खुद अपनी अभिव्यक्ति की आकृतियां गढ़ लेते हैं। भाषा तो मनुष्य के भावोच्छ्वासों के आकाशीय प्रतिबिंबों की उपज है। उन्हें भला कोई कैसे और कब तक दबा कर रख सकता है !
—अरुण माहेश्वरी
Arun Maheshwari on China and human language