हैरत में हूँ कि कन्हैया कुमार आदि पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति देने के बाद अपने 'घर वापस' लौटे हुए बेनकाब केजरीवाल के बचाव में उतरे प्रोग्रेसिव/ लिबरल/ वामपंथी भी बड़े हास्यास्पद तर्क दे रहे हैं।
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उन सभी की सूचनार्थ बता दूं कि दिल्ली सरकार के स्थाई अधिवक्ता ने आज से सात महीने पहले इस राजद्रोह के मुकदमे के खिलाफ़ अपनी राय केजरीवाल सरकार को दे दी थी। उसकी राय को दरकिनार करते हुए केजरीवाल ने अनुमति दी है।
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समय सीमा का जो तर्क बचाव में दिया जा रहा है उसका अभिप्राय उक्त समय सीमा के भीतर मुकदमा चलाने के लिए 'हां' या 'नहीं' से है, अनिवार्यतः 'हां' से नहीं।
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राजद्रोह का मुकदमा चलाने से पहले दिल्ली सरकार की अनुमति approval का अभिप्राय ही यह है कि उसकी अनुमति के बग़ैर यह काम नहीं हो सकता था।
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जो लोग तर्क दे रहे हैं कि केजरीवाल के अनुमति देने से फ़र्क़ नहीं पड़ता, कन्हैया आदि अदालत से निर्दोष साबित होंगे, उनसे मेरा सवाल है कि आज लोकतंन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण खम्भा जो भरभराकर गिरने को तैयार है उसके चलते न्याय हो पाएगा? फांसी पर भी चढ़ा दिया जाएगा तो अचरज नहीं होगा।
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केजरीवाल द्वारा अनुमति न मिलने की बावजूद कानून को अपने जूते की नोक पर रखने वाली केंद्र सरकार फिर भी मुकदमा दायर करती तो अवश्य केजरीवाल इस कलंक से बच जाते।
एक तरह से अच्छा ही हुआ इस प्रकरण की वजह से स्कूल और अस्पताल की ओट में छिपा हुआ संघी सरेआम बेनक़ाब हो गया।