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त्रिपुरा भी धार्मिक कट्टरता की चपेट में

जनता को सताकर मालामाल होती मोदी सरकार

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Tripura also in the grip of religious bigotry

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देशबन्धु में संपादकीय आज | Editorial in Deshbandhu today

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पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में कुछ दिनों पहले तक सांप्रदायिक हिंसा और तनाव की खबरें (Reports of communal violence and tension in Tripura) फिक्र बढ़ा रही थीं। अब खबर आई है कि 25 नवंबर को नगरीय निकाय के लिए होने वाले चुनाव से पहले ही सत्तारुढ़ भाजपा को 112 सीटें मिल गई हैं। मोदी है तो मुमकिन है, का एक और उदाहरण भाजपा ने पेश कर दिखाया है। वैसे ये नारा हवा में नहीं गढ़ा गया है, बल्कि इसके लिए भाजपा और संघ का बरसों का शोध दिखाई देता है।

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मोदी तो एक नाम है केवल

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मोदी तो केवल एक नाम है, लेकिन असली काम हिंदुत्व और धार्मिक कट्टरता का है, जिसके बूते हर नामुमकिन काम को मुमकिन बनाया जा सकता है। जैसे बाबरी मस्जिद को पहले तोड़ने का जुर्म हुआ। कानून ने माना कि ये काम गलत था, लेकिन फिर उसी जगह पर कानून की राह पर चलते हुए मंदिर बनाने का काम भी शुरु हो गया। आज से सात साल पहले इस तरह की बातें देश में नामुमकिन लगती थीं। लेकिन भाजपा की बरसों की मेहनत अब रंग दिखा रही है। जो काम आडवानी जी ने रथयात्रा निकालकर शुरु किया था, उसे अब सत्ता के रथ पर सवार मोदीजी पूरा करने में लग गए हैं।

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पूर्वोत्तर में असम और त्रिपुरा भाजपा की नई प्रयोगशाला (Assam and Tripura BJP's new laboratory in the Northeast)

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उत्तरी भारत में जिस तरह उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए प्रयोगशाला बना, उसी तरह पूर्वोत्तर में पहले असम और अब त्रिपुरा में भाजपा कट्टर हिंदुत्व के प्रयोग पर प्रयोग कर रही है और इसमें उसे सफलता भी मिल रही है। जैसे त्रिपुरा की कुल 334 सीटों पर चुनाव होने थे, लेकिन भाजपा ने मतदान से पहले ही 112 सीटें जीत लीं। त्रिपुरा निर्वाचन आयोग (Tripura Election Commission) के एक अधिकारी ने बताया कि सोमवार को नामांकन वापस लेने का आखिरी दिन था और नामों की छंटनी की तारीख पांच नवंबर तय की गई थी। विपक्षी माकपा के 15, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के चार, कांग्रेस के आठ, एआईएफबी के दो और सात निर्दलीय उम्मीदवारों सहित 36 उम्मीदवारों ने सोमवार को अपना नामांकन वापस ले लिया था।

जिसके बाद 112 उम्मीदवारों की जीत घोषित कर दी गई, अब बाकी 222 सीटों के लिए कुल 785 प्रत्याशी मैदान में हैं, जिनके लिए 25 नवंबर को मतदान होना है।

सात नगरीय निकायों- अंबासा नगर परिषद, जिरानिया नगर पंचायत, मोहनपुर नगर परिषद, रानीबाजार नगर परिषद, विशालगढ़ नगर परिषद, उदयपुर नगर परिषद और संतिरबाजार नगर परिषद में कोई विपक्षी उम्मीदवार न होने से भाजपा ने पहले ही जीत हासिल कर ली है।

माकपा के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी ने आरोप लगाया कि भाजपा द्वारा आश्रय लिए हुए गुंडों द्वारा किए जा रहे आतंक के कारण उनके उम्मीदवारों को अपना नामांकन वापस लेने के लिए मजबूर किया गया था। अब विपक्षी दल चाहे जो भी आरोप लगाएं, त्रिपुरा हिंसा का भाजपा को कैसा लाभ मिला है, यह अब सबके सामने है, फिर भी इस पर कोई सवाल उठाए तो भाजपा की निगाह में वो देशविरोधी होगा।

गौरतलब है कि बांग्लादेश में पूजा पंडालों पर सांप्रदायिक हिंसा के बाद त्रिपुरा में बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाओं को लेकर विरोध प्रदर्शन किए गए थे। जिसमें अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की खबरें आईं। जबकि त्रिपुरा का इतिहास इस तरह का कभी नहीं रहा है। 25 साल तक यहां वामदलों का शासन रहा और चाहे जिस तरह की कमियां, गड़बड़ियां, इस प्रांत में हुईं, हिंदू-मुस्लिम के बीच तनाव जैसी घटनाएं बहुत कम हुई हैं। लेकिन हाल में हुई हिंसा के बाद माकपा के विधायक ने कहा कि, 'त्रिपुरा में कभी भी हिंदू-मुस्लिम झगड़े नहीं हुए हैं। 1992 में जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया था तब भी राज्य में सिर्फ़ दो जगहों कालाछारा और पानीसागर में छिटपुट घटनाएं हुई थीं। यहां सभी समुदाय शांतिपूर्ण तरीके से रहते हैं लेकिन अब सांप्रदायिकता का ख़तरा बढ़ रहा है, ये कोविड-19 से भी ख़तरनाक है।'

त्रिपुरा के शाही परिवार के प्रमुख प्रियदत्त किशोर देब बर्मा ने भी कहा कि राज्य में हिंदू-मुस्लिम विभाजन एक हालिया घटना है जो कि 'धार्मिक ध्रुवीकरण के जरिए राजनीतिक फायदे' के लिए किया जा रहा है। त्रिपुरा हिंसा में और दुख की बात ये है कि इस बारे में बोलने और खबर करने वालों पर कानूनी कार्रवाई की गई। त्रिपुरा पुलिस ने 68 ट्विटर, 31 फेसबुक और दो यूट्यूब अकाउंट उपयोगकर्ताओं पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया है। आरोप है कि इन लोगों ने कथित तौर पर 'फर्जी फोटो और जानकारियां ऑनलाइन अपलोड कीं जिनके कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ने का ख़तरा था।' इस सिलसिले में पुलिस ने अंसार इंदौरी और मुकेश नाम के दो लोगों को नोटिस भेजा। पुलिस का दावा है कि उनके सोशल मीडिया हैंडल पर किसी दूसरी घटना की तस्वीरें या वीडियो के साथ भ्रामक बातें लिखी गई हैं, जिससे इलाके में सांप्रदायिक तनाव फैल सकता है। ध्यान देने वाली बात है कि ये दोनों शख्स 'लॉयर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी' के सदस्य हैं और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की चार लोगों की फैक्ट फ़ाइंडिंग टीम का हिस्सा भी थे, जो हाल ही में राज्य की यात्रा पर आए थे।

बांग्लादेश में हुई घटना के बाद जो लोग हिंदू धर्म की रक्षा के लिए त्रिपुरा में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, उन पर पुलिस पहले से निगाह रखती तो सांप्रदायिक तनाव नहीं बढ़ता। लेकिन तब पुलिस ने धर्म के नाम पर उत्पात होने दिया और अब सोशल मीडिया की आड़ में उन लोगों को निशाना बनाया गया, जो इस हिंसा की पड़ताल कर इसका सच सामने लाना चाहते थे।

सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की जांच टीम और मानवाधिकार संगठन की संयुक्त प्रेस वार्ता में कहा भी गया कि,'मुस्लिमों के खिलाफ़ हिंसा के बाद जिस तरीके से हालात बिगड़े हैं, ये दिखाता है कि अगर सरकार चाहती तो भयानक हिंसा को होने से रोका जा सकता था।'

यानी जो कुछ हुआ, उसमें भाजपा सरकार की निष्क्रियता, उसकी नाकामी सामने आ रही है। ये नाकामी जनता के प्रति अपने दायित्व को निभाने की है। जहां तक सत्ता के प्रति दायित्व की बात है तो उसमें त्रिपुरा भाजपा ने बाजी मार ही ली है। 2018 में सत्ता में आने के बाद पहली बार नगरीय निकाय चुनाव हो रहे हैं और उसमें पहले से 112 सीटें जीतने का कमाल भाजपा ने कर दिखाया है। साफ नजर आ रहा है कि उप्र के बाद त्रिपुरा में भी भाजपा के लिए हिंदुत्व की जमीन तैयार हो रही है।

आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार.

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