Advertisment

पुरस्‍कार, रचनाकर्म और व्यक्तिगत संबंध

author-image
hastakshep
21 Mar 2021
सौंदर्यशास्त्र के पैमाने बदलने हैं हमें

Advertisment

Awards, creations and personal relationships

Advertisment

सामान्यतः हमारे समय के वे रचनाकार जिन्हें बहुत इनाम-इकराम मिल जाते हैं, बहुत नाम हो जाता है उनकी रचनाएं पढ़ने पर यह लगता है कि अब वे सिर्फ लिखने के लिए लिख रहे हैं। उनकी रचनाओं में तमाम तरह की कलाबाजी, अतिशय संशय (कि रचना बहुत अलग और विशिष्ट बन पाई या नहीं), बासीपन और अंततोगत्वा उबाऊपन का आभास होने लगता है। लेकिन उनके प्रति लोगों का भक्तिभाव बढ़ जाता है।

Advertisment

उनके भक्तों की प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं भी तकरीबन एक जैसी ही होती हैं जैसी कि अन्य धंधों यथा राजनीति, धर्म वगैरह के धंधेबाजों के भक्तों की, जिनके लिए एक मंतव्यप्रेरित नेरेटिव गढ़ कर उसे पूरी ऊर्जा के साथ प्रचारित प्रसारित किया जाता है। तब मेरे जैसे धैर्यहीन पाठक के लिए उनकी रचनाएं पढ़ पाना और उनपर बात कर पाना कष्टप्रद हो जाता है।

Advertisment

कष्ट तब और बढ़ जाता है जब न केवल सामान्य पाठक बल्कि अपने को उन्नत चेतनासंपन्न मानने वाले लेखक-पाठक भी भक्तिरस में डूबने उतराने लगते हैं। किसी को एक टटपुंजिया सम्मान-पुरस्‍कार मिल जाए तो बधाईयों का तांता लग जाता है। उसकी रचनाओं और रचनाधर्मिता पर बात करना बहुतों के लिए संभव भी नहीं होता क्योंकि उन्होंने रचनाएं ठीक से पढ़ी भी नहीं होतीं। अकादमी या ज्ञानपीठ जैसा पुरस्‍कार मिल जाए तब तो लोग टूट टूट ही पड़ते हैं। सत्तापोषित पुरस्कारों से अब (न तब था) उन्हें कतई परहेज भी नहीं है। सत्ता वही है जिसके खिलाफ पुरस्‍कार वापसी हुई थी। अब वरेण्य है।

Advertisment

अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्‍कार बनाम बिहारी गौरव

Advertisment

अभी हाल ही में इस समय की बहुचर्चित कवयित्री सुश्री अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्‍कार मिला तो फेसबुक से लेकर हिंदी मीडिया तक बहुत लोग धन्य हो गए। कोई बोला पहली महिला कवयित्री को पुरस्‍कार मिला, तो कुछ बिहारियों को उनके बिहारी होने का गर्व हुआ। अनामिका की कविता पुस्तक 'टोकरी में दिगंत' एक थेरीगाथा जिस पर यह पुरस्‍कार मिला उसमें ऐसा क्या है कि उसे इस पुरस्‍कार के लिए महत्वपूर्ण माना गया इसपर चर्चा अपेक्षित थी पर नहीं दिखी।

Advertisment

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार जो प्रायः आयोजक या लेखक के शुभेच्छुओं द्वारा खबर बनाकर दी जाती हैं 'हिंदी में अनामिका को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार दिया जाना हिंदी कविता की स्त्री को सम्मान दिया जाना है।

दरअसल, अनामिका की कविताओं की स्त्रियां रची हुई नहीं लगतीं, अपने आसपास की कोई सामान्य सी स्त्री लगती है। लेकिन जब अनामिका अपनी कविताओं में इस स्त्री को लेकर आती हैं तो उसके परत-दर-परत को पाठकों के सामने रखती हैं, जिसमें हमें अपना दुख, अपना सुख, अपना संघर्ष और अपनी हताशा नजर आते हैं। उनकी कविताओं की स्त्रियां आपस में जब संवाद करती हुई सामने आती हैं, तो तमाम किताबी स्त्री विमर्श बौने पड़ने लगते हैं।'

कवि केदारनाथ सिंह ने पूर्व में पुस्तक पर टिप्पणी की थी- 'अनामिका के नए संग्रह 'टोकरी में दिगंत-थेरी गाथा : 2014' को पूरा पढ़ जाने के बाद मेरे मन पर जो पहला प्रभाव पड़ा, वो यह कि यह पूरी काव्य-कृति एक लम्बी कविता है, जिसमें अनेक छोटे-छोटे दृश्य, प्रसंग और थेरियों के रूपक में लिपटी हुई हमारे समय की सामान्य स्त्रियाँ आती हैं। आज के स्त्री-लेखन की सुपरिचित धरा से अलग यह एक नई कल्पनात्मक सृष्टि है, जो अपनी पंक्तियों को पाठक पर बलात थोपने के बजाय उससे बोलती-बतियाती है, और ऐसा करते हुए वह चुपके से अपना आशय भी उसकी स्मृति में दर्ज करा देती है। शायद यह एक नई काव्य-विधा है, जिसकी ओर काव्य-प्रेमियों का ध्यान जाएगा। समकालीन कविता के एक पाठक के रूप में मुझे लगा कि यह काव्य-कृति एक नई काव्य-भाषा की प्रस्तावना है, जो व्यंजना के कई बंद पड़े दरवाजों को खोलती है और यह सब कुछ घटित होता है एक स्थानीय केंद्र के चारों ओर । कविता की जानी-पहचानी दुनिया में यह सबाल्टर्न भावबोध का हस्तक्षेप है।'

मैंने अनामिका को नहीं पढ़ा। कारण जो ऊपर मैंने स्पष्ट किया है। मुझे उनका लेखन नहीं रुचता।

बहरहाल इस संग्रह पर एक और टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूँ जिससे इसकी कविताओं को समझने में किंचित मदद मिल सकती है। ये सभी टिप्पणियां प्रशंसात्मक हैं। कहीं कोई संतुलित मूल्यांकन नहीं है। अतः आप समझ सकते हैं कि नेरेटिव कैसे सैट किया जाता है।

प्रियदर्शन कहते हैं 'अनामिका हिंदी की ऐसी विरल कवयित्री हैं जिनका परंपरा-बोध जितना तीक्ष्ण है आधुनिकता- बोध भी उतना ही प्रखर। उनकी पूरी भाषिक चेतना जैसे स्मृति के रसायन से घुल कर बनती है और पीढ़ियों से नहीं, सदियों से चली आ रही परंपरा का वहन करती है। उनकी पूरी कहन में यह वहन इतना सहज-संभाव्य है कि उसे अलग से पकड़ने-पहचानने की ज़रूरत नहीं पड़ती, वह उनकी निर्मिति में नाभिनालबद्ध दिखाई पड़ता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनका स्त्रीत्व सहज ढंग से इस परंपरा की पुनर्व्याख्या और पुनर्रचना भी करता रहता है- उनके जो बिंब कविता में हमें बहुत अछूते और नए लगते हैं, जीवन की एक धड़कती हुई विरासत का हिस्सा हैं, उसी में रचे-बसे, उसी से निकले हैं और अनामिका को एक विलक्षण कवयित्री में बदलते हैं।'

प्रियरंजन जी ने पूरे विस्तार के साथ अभूतपूर्व लिखा भी है। इन सबका मानना है कि अनामिका एक ऐसी विलक्षण कवयित्री हैं जिनकी कविता अभूतपूर्व है। दूजा कोई ऐसा नहीं लिख सका और न लिख रहा है। चलिए अब इन कविताओं की आधारभूमि भी समझी जाए।

'बौद्ध-धर्म की परंपराओं और स्मृतियों की जीवंत वाहक थेरी गाथाओं के बहाने अनामिका ने स्त्री-चेतना को अभिव्यक्त किया है। अनामिका ने बुद्ध की समकालीन मानी जाने वाली भिक्षुणियों के अस्तित्व की लड़ाई, उनकी विचार-संपदा को आज की स्त्री-चेतना की पूर्व-पीठिका के रूप में देखा है। थेरी गाथा खुद्दक निकाय के 15 ग्रंथों में से एक है, जिसमें 70 से ज्यादा बौद्ध भिक्षुणियों के विचार उसकी विभिन्न गाथाओं में शामिल हैं। अनामिका ने उन्हीं के जरिए स्त्री-देह बनाम स्त्री-मन के कुछ चिरंतन सवालों को समय के एक पुरातन छोर पर जाकर पकड़ने की कोशिश की है।'

अब इतना तो तय हो गया कि हिंदी कविता की आलोचना में अतिरंजना एक सहज स्वभाव है। जिसे चाहे आप महान बना दें और जिसे चाहें खारिज कर दें। इस किताब की कविताएं या काव्यांश मुझे किसी भी टिप्पणी में देखने को नहीं मिले।

-शैलेन्द्र चौहान

लेखक साहित्यकार व समीक्षक हैं

Advertisment
सदस्यता लें