Bansuri of Nero in the Corana era
प्रेरणा अंशु मई अंक का अत्यंत प्रासंगिक सम्पादकीय | Very relevant editorial of Prerna Anshu May issue
22 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक दिन के जनता कर्फ्यू का ऐलान किया और कोरोना के खिलाफ जंग की आधिकारिक घोषणा सी की तब पहली बार अहसास हुआ कि शायद स्थितियाँ गम्भीर हैं। उसके बाद लॉकडाउन 01 की घोषणा के साथ शुरु हुआ चुनौतियों का सिलसिला अभी तक जारी है बल्कि यदि कहा जाए कि और ज्यादा विकराल रूप में सामने है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लॉकडाउन के 50 दिन बाद भी हम चिकित्सा सेवाओं, आर्थिक मार्चे और राहत व बचाव के मुददे पर गम्भीर संस्थागत संकट से दो-चार हो रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान जिस तरह की तस्वीरें सामने आई हैं वे यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि जिस जनता के लिए, जनता द्वारा जनता का लोकतन्त्र चलाया जा रहा है वह वास्तव में उससे कुछ अलग ही है।
हजारों तस्वीरें व वीडियोज सामने आए हैं जिनमें पुलिस आम नागरिकों से अपराधियों से भी बदतर सुलूक करती नजर आ रही है तो कहीं पर कचरे में से खाना ढूंढते लोग दिखाई दे रहे हैं।
कुछ तस्वीरों में रोते बिलखते बच्चे पाँव में पड़े छालों के साथ गर्म सड़क पर नंगे पैर अपने घर के लिए पलायन करते नजर आ रहे हैं तो कहीं गर्भवती महिलाएं भूखे-प्यासे लड़खड़ाते कदमों से अंतिम सांस से पहले अपने घर पहुँच जाने की जद्दोजहद में दिखाई देती हैं।
कोरोना से बचाव के नाम पर बिना किसी तैयारी और योजना के हड़बड़ी में लगाया गया लॉकडाउन अमीरों के लिए भले ही सुकून भरा रहा हो पर मजदूरों के लिए यह मौत का परवाना बन कर सामने आया है। यदि सर्वे किया जाए तो पता लगेगा कि लॉकडाउन के कारण पलायन कर रहे 100 से ज्यादा मजदूर व उनके परिजन अलग-अलग वजहों से रास्ते में ही काल के ग्रास बन गए। आशंका व्यक्त की जा रही है कि नोटबन्दी की तरह ही यह निर्णय भी नकारात्मक परिणामों वाला ही अधिक रहा है।
कोराना महामारी से जंग तो एक न एक दिन जीत ही ली जाएगी लेकिन इस त्रासदी के दाग शायद ही कभी खत्म हो पाएंगे! यह देश कभी नहीं भूल पाएगा कि कैसे विदेशों से अमीरों को हवाई जहाज में भर-भर कर घर वापसी कराई जाती रही और गरीब मजदूर को उसके हाल पर छोड़ दिया गया। उनके सुरक्षित घर वापसी के उपाय करने के बजाय उन्हें दर-दर की ठोकरें खानें के लिए छोड़ दिया गया। अधिकांश राज्यों व केन्द्र की सरकारें कामगारों को उनकी सुरक्षा-चिकित्सा-भोजन जैसी मूलभूत जरूरतों को पूरा कर पाने का विश्वास दिलाने में नाकाम रहीं। विश्व के अन्य बहुत से देशों में लॉकडाउन किया गया पर जैसी अफरा-तफरी भारत में मची और सड़कों/रेल पटरियों पर जिस तरह से गरीबों-मजदूरों का खून और पसीना बहता नजर आया वह अन्य कहीं भी दिखाई नहीं दिया। हमारे पड़ोसी देशों में भी ऐसी अराजकता नजर नहीं आई।
Trying my hand at some music in #HunarHaat… pic.twitter.com/LQDV2DWcyO
— Narendra Modi (@narendramodi) February 19, 2020
कोरोना संक्रमण से लड़ रहे डॉक्टर्स व अन्य कोरोना वारियर्स जिनमें पुलिस-स्वयंसेवी-पैरामेडिकल स्टाफ आदि शामिल हैं को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराने में भी नाकामी सामने नजर आई। आज तक इन लोगों को मानकीकृत पीपीई किट नहीं मिल पाए हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर ये लोग अपने कर्तव्य को अंजाम दे रहे हैं।
अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डांवाडोल हो चुकी है। मूडीज का अनुमान है कि इस वर्ष विकास दर 0 से 1 प्रतिशत के आसपास ही रहेगी। बेरोजगारी का प्रतिशत भी लगभग तीन गुना हो चुका है। छोटे-मंझोले उद्योग संकट की घड़ी में हैं। निजी क्षेत्र के अधिकांश उद्यमों से श्रमिकों की छंटनी किए जाने की आशंका है जिससे बेरोजगारी और अधिक बढ़ेगी।
उद्योगपति सरकार से आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे हैं जो देर-सवेर उन्हें मिल भी सकता है। लेकिन मजदूरों का कोई पुरसाहाल नहीं है उल्टे कुछ राज्यों में श्रम कानूनों में संशोधन करने के लिए अध्यादेश लाए जा चुके हैं जिससे श्रमिकों से अब 12 घण्टे तक काम लिया जा सकेगा। छंटनी से सम्बन्धित नियमों को भी मालिकों के पक्ष में कर दिया गया है। इस सबसे शोषण की एक नई इबारत लिखी जा रही है।
इस बीच एक सर्वे आया है जिसमें यह दावा किया गया है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता मार्च के मुकाबले अप्रैल माह में आठ प्रतिशत और ज्यादा बढ़ी है।

समझ नहीं आता कि जब हर मोर्चे पर नाकामी हाथ लग रही हो, सरकार के पास राहत के नाम पर केवल दिया-बाती और ताली-थाली ही हो, सड़कों पर/रेलवे लाइनों पर निर्दोषों का खून बह रहा हो, लोग बेरोजगार हो रहे हों ऐसे में कैसे इस तरह के सर्वे कोई करा सकता है और कैसे इस सबके लिए जिम्मेदार व्यक्ति की लोकप्रियता में इजाफा हो सकता है। रोम के जलने और नीरो के वंशी बजाने की बात यहां पर सही बैठती है।
इन हालात के बीच एक सकारात्मक पहलू भी सामने आया है। वह है आपसी एकजुटता।
संकट की इस घड़ी में सरकार ने क्या किया या नहीं किया लेकिन लोगों ने एक-दूसरे को सहारा जरूर दिया है। जरूरतमंदों की मदद व्यक्तिगत स्तर पर लोग कर रहे हैं। यह अच्छी बात है। संकट की इस घड़ी में आपसी भाईचारा और सहयोग और मजबूत बनाने की आवश्यकता है, दूसरों का सहारा बनने की आवश्यकता है। सरकारें अपना राजधर्म भले ही भूल जाएं या उनमें कोताही बरतें पर हमें अपना मानव धर्म नहीं भूलना है।
–वीरेश कुमार सिंह
(लेखक मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु के संपादक हैं ।)
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