मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (The Universal Declaration of Human Rights) की धारा 11 कहती है, “दंडनीय अपराध के प्रत्येक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक उसे public trial के माध्यम से कानूनन अपराधी साबित नहीं कर दिया जाता……”
हमारे न्यायशास्त्र की मूल अवधारणा (Basic concept of our jurisprudence) है कि सौ अपराधी भले छूटजाएं, पर एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिये !
क्या उत्तर प्रदेश शासन के लिए पूरे सभ्य संसार में स्वीकृत प्राकृतिक न्याय के उक्त सिद्धांत कोई मायने नहीं रखते ?
लखनऊ में 19 मई को CAA-NRC विरोधी आंदोलन में हुई हिंसा के मामले में जिला प्रशासन ने धर्मवीर सिंह व माहेनूर चौधरी की सम्पत्ति जब्त कर वसूली की कार्रवाई शुरू की है।
The Hindu के अनुसार धर्मवीर सिंह की कपड़े की दुकान है और माहेनूर चौधरी का कबाड़ स्टोर है, जिससे वे अपने परिवार का भरणपोषण करते हैं।
इसी मामले में लोकतांत्रिक आंदोलन की मशहूर शख्शियत, सुप्रसिद्ध दलित चिंतक आदरणीय दारापुरी जी, मु. शोएब एडवोकेट, मैडम सदफ जफर, संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर और अन्य सभी आरोपियों को ऐसे ही वसूली और जब्ती के नोटिस मिले हुए हैं, और हाल ही में शाहनवाज़ आलम की गिरफ्तारी हुई है।
मजेदार यह है कि 6 महीने से अधिक बीत जाने के बाद अभी मुकदमा शुरू भी नहीं हुआ है, चार्ज फ्रेम नहीं हुआ है, और शासन -प्रशासन ने उन्हें दोषसिद्ध अपराधी मानकर दण्डात्मक कार्रवाई शुरू कर दी है !
वैसे तो आंदोलनों के दौरान तमाम घटनाएं होती थीं, जिनमें आज जो सत्ताधारी दल हैं या विपक्षी दल हैं उनके अनेक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी होती थी, लाठी चलती थी, लेकिन कभी इस तरह की वसूली-जब्ती नहीं होती थी, शायद हमारे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गांधीवादी प्रो. रघुवंशजी को भी, जो विकलांग(आज की शब्दावली में दिव्यांग) थे जब आपातकाल के दौरान इंदिरा जी की पुलिस ने खम्भे पर चढ़कर तार काटने के आरोप में गिरफ्तार किया था, तो उनसे कोई वसूली जब्ती नहीं हुई थी !
बहरहाल, देश के लोकतांत्रिक जीवन की पुरानी परम्पराओं को, जिसमें ही उसका स्वयं भी पालन पोषण हुआ है और उसने शक्ति अर्जित की है, यदि सत्ताधारी पार्टी नहीं मानना चाहती और सम्पत्ति की रक्षा के नाम पर वसूली करना चाहती है तो करे।
पर पहले यह साबित तो हो कि यह सम्पत्ति किसने नष्ट की है, मुकदमा तो चले, उसका फैसला तो आये !
क्या बिना इस न्यायिक प्रक्रिया से गुजरे इस जब्ती की कार्रवाई को न्यायशास्त्र, मानवता, लोकतंत्र के किसी भी मान्य सिद्धांत के आधार पर औचित्यपूर्ण सिद्ध किया जा सकता है, वह भी तब जब जब्ती के इस सवाल पर न्यायालय में सुनवाई होने वाली है और माननीय उच्च न्यायालय ने कोरोना आपदा के दौर में हर तरह की जब्ती पर रोक लगा रखी है ?!
अगर यह बदले की भावना से किया जा रहा है, तो राजधर्म की मर्यादा के खिलाफ है,
आज समय आ गया है कि तमाम राजनैतिक ताकतों को, नागरिक अधिकार संगठनों, जनांदोलनों, लोकतांत्रिक व्यक्तियों को राजनैतिक अधिकारों के सवाल को-अभिव्यक्ति और विरोध की आज़ादी के सवाल को-अपना सर्वप्रमुख एजेंडा बनाकर, एकताबद्ध होकर लड़ना होगा, फ़र्ज़ी आरोपों में निरुद्ध राजनैतिक बंदियों की रिहाई जिसका प्रमुख प्रश्न होगा।
लाल बहादुर सिंह
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