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दलित अस्मितावाद और हिंदुत्व दोनों के साझे दुश्मन गांधी ही क्यों?

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06 May 2022
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दलित अस्मितावाद और हिंदुत्व दोनों के साझे दुश्मन गांधी ही क्यों?

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Book review : Bhimrao Ambedkar Ek Jeevani by Jaffrelot Christophe in Hindi

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अंबेडकर पर ज़्यादातर भाववादी लेखन दिखता है। जिसकी दिक़्क़त है कि वो समझ से ज़्यादा भक्तिभाव उत्पन्न करता है, जो अपने से बड़ी भावनाओं के राजनीतिक उभार के दौर में बहुत आसानी से उसमें समाहित हो जाता है। यहाँ तक कि अगर सत्ता किसी समुदाय के जनसंहार की हिमायती हो तो भक्तिभाव से निर्मित मस्तिष्क उसके पक्ष में भी खड़ा हो सकता है। मसलन, 'अंबेडकर इस्लाम और ईसाई धर्म के विरोधी थे इसीलिये उन्होंने इन धर्मों को नहीं अपनाया और हिंदू धर्म की एक शाखा बौद्ध धर्म को अपनाया'- हिंदुत्व का यह प्रचार मुस्लिम और ईसाई विरोधी हिंसा में दलितों के एक हिस्से के शामिल (इस्तेमाल होना नहीं) होने के लिए एक पर्याप्त मानसिक आधार मुहैय्या कराता है।

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कांशीराम के ज़माने तक बसपा ने अंबेडकर पर इसी तरह के भाववादी साहित्य बांटे थे। जिसका परिणाम यह है कि उसका अस्मितावादी वोटर 2014 से हिंदुत्व में समाहित हो चुका है।

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दलित राजनीति को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास क्रिस्टोफ जफेर्लो की 'भीमराव आंबेडकर- एक जीवनी'

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इसीलिये क्रिस्टोफ जफेर्लो की 'भीमराव आंबेडकर- एक जीवनी' सियासी और सामाजिक परिदृश्य में गलत दिशा में बहुत दूर तक जा चुकी दलित राजनीति को फिर से पटरी पर लाने की समझ विकसित करने के लिए एक ज़रूरी पुस्तक है।

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जैसा कि हम जानते हैं क्रिस्टोफ जफेर्लो भारतीय समाज और राजनीति के एक शानदार समाज शास्त्रीय अध्येता हैं इसलिए पुस्तक अंबेडकर के जीवन और संघर्ष (Ambedkar's life and struggle) के साथ ही उस समय के राष्ट्रीय जीवन और उसकी संचालक शक्तियों के संघर्ष का भी दस्तावेज बन जाती है। मसलन, वो लिखते हैं –

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"सामाजिक स्तर पर औपनिवेशिक विजय के दो परस्पर विरोधी नतीजे सामने आए : एक तरफ तो ब्राह्मण ब्रिटिश नौकरशाही और व्यवसायों (जैसे वकील, पत्रकार) में दाख़िल होकर अपने दबदबे को फिर से क़ायम करने लगे। दूसरी तरफ अंग्रेज़ों ने अपने स्कूलों और धार्मिक मिशनों के माध्यम से जाति व्यवस्था की एक रैडिकल समालोचना पेश की। इन दो प्रवृत्तियों की बदौलत अंततः समानांतर सामाजिक-धार्मिक आंदोलन पैदा हुए जिन पर सवर्ण जातियों और ब्राह्मण विरोधी संगठनों का दबदबा था (पेज 24).

अंबेडकर के अभ्युदय में किसकी भूमिका थी?

यानी आर्य-अनार्य, या ब्राह्मण-शूद्र का संघर्ष चाहे जितना प्राचीन हो लेकिन अंबेडकर के अभ्युदय में ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जा रहा सामाजिक हस्तक्षेप ही निर्णायक था। इस दृष्टि से अंबेडकर को बहुत कम परखा गया।

क्रिस्टोफ जफेर्लो लिखते हैं-

'अहमदनगर में महारों और सभी अछूतों की शिक्षा ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों में हो रही थी।' (पेज 39)।

महार मृत पशुओं की लाश उठाने को तैयार नहीं थे जबकि ऐसी स्थिति में ऊँची जातियों के लोग उनका सामाजिक बहिष्कार करके उन्हें प्रताड़ित करते थे। (पेज 34).

अंबेडकर ने सामाजिक समानता लाने के लिए लोकतांत्रिक संस्थानों की सत्ता में एक दृढ़ अविचल आस्था हासिल कर ली और ये विचार उन्हें मोटे तौर पर आनुभविक दर्शन के प्रणेता जॉन ड्यूवी से प्राप्त हुए थे। (पेज 48).

ये नज़रिया इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि जब हम सिर्फ़ फुले या भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों से प्रभावित अंबेडकर को देखते हैं तो उन्हें एक सामाजिक क्रांतिकारी के बजाए एक समाज सुधारक साबित कर रहे होते हैं। हिंदुत्व को यह नैरेटिव सूट करता है। और ऐसा आज से नहीं है। सावरकर का कहना था कि 'बौद्ध धर्म अपनाकर दरअसल इन लोगों ने धर्म परिवर्तन किया ही नहीं।' (162).

एक बात और गौर करने वाली है कि भाववादी लेखन ने दलितों में अंबेडकर को प्राथमिक तौर पर उन्हें रोजगार में हिस्सेदारी दिलाने वाले नेता की तरह पेश किया। अंबेडकर के राजनीतिक, खास कर धर्मनिरपेक्षता पर उनके विचारों के प्रति उन्हें संवेदनशील नहीं बनाया। जिसकी एक मात्र वजह इन लेखकों का कांग्रेस विरोधी होना रहा है। क्योंकि जब आप उन्हें समग्रता में देखेंगे तो तमाम असहमतियों के बावजूद आपकी राजनीति कांग्रेस की परिधि से बाहर नहीं निकल पायेगी। डॉ अंबेडकर का ख़ुद का राजनीतिक जीवन इसका उदाहरण है। इसीलिये आप देखेंगे कि पटेल, बोस, शास्त्री की तरह अंबेडकर को भी टुकड़ों-टुकड़ों में प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है। इससे उन्हें या उनके असहमति को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

परस्पर शोषण के ढांचे पर टिके सामाजिक व्यवस्था में यह प्रवृत्ति बहुत उपयोगी होती है। मसलन, आम सवर्णों ने गांधी के अंग्रेज़ों से संघर्ष में तो उनका समर्थन किया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनके जाने के बाद इन्हें सत्ता मिलेगी। लेकिन वो गांधी के दलितों के उत्थान के विचार के घोर विरोधी थे। इसके लिए उन्हें 'महात्मा' पर जानलेवा हमला करने से भी गुरेज नहीं था। नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्या को वो इसी आधार पर तो सही ठहराता रहा है कि वो मुसलमानों के साथ सहानुभूति रखते थे। यानी वो तबका सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने वाले गांधी का ही समर्थक था। दलितों और मुसलमानों के प्रति उनके सामाजिक नज़रिए से उसकी कोई सहमति नहीं थी। इस पर तो वो उनका घोर विरोधी था। यह आप जेपी के संदर्भ मे भी देख सकते हैं जो जेपी आंदोलन के दौर में अपार समर्थन के बावजूद कश्मीर के लोगों की इच्छा का सम्मान करने की बात कह देने से अचानक आलोचना के केंद्र में आ गए थे।

यानी अंबेडकर पर भाववादी लेखन का प्रभाव ही है कि आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा अंबेडकर का मतलब उन्हें नौकरी में आरक्षण देने वाले से ज़्यादा न तो कुछ समझता है ना समझना चाहता है। इसीलिये जब तक आरक्षण का सीधे विरोध न हो उसे भाजपा के साथ बने रहने और मुसलमान विरोधी हिंसा में शामिल होने से कोई दिक़्क़त नहीं है। अंबेडकर के हिंदू धर्म समाज सुधारक की छवि मन में लिए वो यह सब कर सकता है। ज़रूरत पड़े तो सेकुलर होने के अपराध में वो गोडसे की तरह उनकी हत्या भी कर दे। बस उसे गोली मारने से पहले आरक्षण देने के कारण सम्मान में थोड़ा झुकना होगा।

2014 से हिंदुत्व के रंग में रंग चुके भाजपा को वोट देने वाले दलितों से आप कश्मीर या समान नागरिक संहिता के सवाल पर अंबेडकर के विचारों पर उनसे बात कर लीजिये, समझ में आ जाएगा।

इस तरह गांधी और अंबेडकर एक ही तरह की नियति भुगतते दिखते हैं। जहाँ तक वो सत्ता या रोजगार में हिस्सेदारी दिलवा सकते थे या हैं वहीं तक स्वीकार्य हैं। यहाँ सनद रहे, गांधी भी दक्षिण अफ्रीका में ईसाई मिशनरियों से ही प्रभावित रहे थे।

फायदे-नुकसान की इस दृष्टि से क्रिस्टोफ जफेर्लो का विश्लेषण मुक्त है।

अब आप बताईये अंबेडकर पर प्रकाशित कितने प्रोपोगैंडा साहित्य में यह दर्ज है कि महाड आंदोलन के मंच पर लगे बैनर पर गांधी जी की भी फोटो थी। (पेज 81) या अंबेडकर ने 1925 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी के डिप्रेस्ड क्लासेज़ कांफ्रेंस में ऐलानिया कहा था 'महात्मा गांधी से पहले इस देश के किसी राजनेता ने यह नहीं कहा था कि तनाव और टकराव को खत्म करने के लिए सामाजिक अन्याय को खत्म करना अनिवार्य है(पेज 81)।

या फिर पूना पैक्ट जिसमें हस्ताक्षर करने वालों में गांधी नहीं थे, क्योंकि वो अपने को जाति-धर्म के झगड़ों से ऊपर मानते थे, के बाद नवम्बर 1933 से अगस्त 1934 तक अछूतों के हितों के लिए अभियान चलाते हुए यात्रा पर निकले थे। इस दौरान उन पर कई शहरों में सनातन धर्म सभा और हिंदू महासभा ने उनका हिंसक विरोध किया। दिल्ली, दक्षिण कनारा, बेलारी में तो उन्हें काले झण्डे दिखाये गए और गांधी वापस जाओ के नारे लगे। पूना में तो उनके ऊपर बम से भी हमला हुआ और बनारस रेलवे स्टेशन पर 40 सनातनी काले झण्डे ले कर उनका विरोध कर रहे थे। (पेज 86)

अस्मितावादी और सांप्रदायिक राजनीति में समानता क्या है?

हमें समझना होगा कि अस्मितावादी और सांप्रदायिक राजनीति दोनों में यह समानता है कि उन्हें बने रहने के लिए किसी दुश्मन की ज़रूरत होती है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि एक दूसरे के विरोधी होने का दावा करने वाली दलित अस्मितावाद और हिंदुत्व दोनों ने एक ही साझे दुश्मन- गांधी का चुनाव किया। जिसका परिणाम हम सबके सामने है।

अंबेडकर को टुकड़ों में समझने के कारण गलत दिशा में बहुत आगे तक जा चुके दलित समाज और राजनीति को वापस सही रास्ते पर आने के लिए अंबेडकर को समग्रता में समझना सबसे पहली शर्त है। यह पुस्तक इसमें उपयोगी हो सकती है।

शाहनवाज़ आलम

लेखक उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं।

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