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Bihar election: example of the quality of democracy
बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) के अंतिम चरण का मतदान पूरा होने पर ज्यादातर एग्जिट पोल में राष्ट्रीय जनता दल (राजग) के नेतृत्व वाले महागठबंधन को सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से आगे अथवा कड़ी टक्कर में दिखाया है. महागठबंधन के नेताओं/कार्यकर्ताओं में स्वाभाविक ख़ुशी की लहर है. आरएसएस/भाजपा के फासीवाद से त्रस्त लोकतंत्रवादी और धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज एक्टिविस्टों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों को भी आशा बंधी है कि बिहार चुनाव परिणाम से सांस लेने की कुछ जगह बनेगी. परिणाम 10 नवम्बर को आ जाएंगे.
एनडीए के मुकाबले महागठबंधन की जीत की स्थिति में भी, बिहार राज्य में जड़ जमा चुकी यथास्थिति पर कोई गहरी चोट होने नहीं जा रही है. देश में 'मोदीशाही' अथवा दुनिया में 'ट्रम्पशाही' (राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की हार के बावजूद) पर चोट होना तो बहुत दूर की बात है.
2015 में भी बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ही जीता था. उसके बाद की हकीकत, 2019 के लोकसभा चुनाव समेत, सबके सामने है. महागठबंधन में शामिल पार्टियों को कल अन्य राज्यों में और 2024 के लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ना है.
Despite all this, the Bihar election has special significance.
इस सब के बावजूद बिहार चुनाव का विशेष महत्व है. किस रूप में है, आइए इस बिंदु पर थोड़ा विचार करें.
यह चुनाव कोरोना महामारी की काली छाया में संपन्न हुआ है. विपक्ष ने चुनाव टालने की मांग चुनाव आयोग से की थी. लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) चुनाव के पक्ष में थी. प्रचार के डिजिटल तरीकों, सरकारी साधनों और आर्थिक संसाधनों से लैस उसके रणनीतिकार चुनाव में वाकोवर की स्थिति मान कर चल रहे थे. बिहार चुनाव के लिए बनाई गई रणनीति में लगे हाथ नीतीश कुमार को निपटाने का मंसूबा भी शामिल था.
भाजपा ने तय मान लिया था कि जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के मुकाबले भाजपा की ज्यादा सीटें आएंगी. इसे बिहार की जनता का नेतृत्व-परिवर्तन का फैसला बताते हुए, वह बिहार में भाजपा का पहला मुख्यमंत्री पदासीन कर देगी. सीटों के बंटवारे में आधी सीटें लेना; स्वर्गीय रामविलास पासवान के बेटे को नीतीश कुमार की साख गिराने के मोर्चे पर तैनात करना; तेजस्वी यादव और राहुल गांधी को जंगलराज के युवराज प्रचारित करना; खुद प्रधानमंत्री का अयोध्या में राममंदिर, कश्मीर में धारा 370, नागरिकता कानून का हवाला देना; महागठबंधन के नेताओं को 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' का समर्थक और भारतमाता का द्रोही बताना - भाजपा के तरकश के ऐसे तीर थे, जिन्हें चलाने पर विपक्ष का धराशायी होना तय माना गया था.
चुनावी चर्चा में यह भी सुनाई दिया कि बिहार चुनाव में ओवैसी और मायावती के गठबंधन के पीछे भी भाजपा की रणनीति काम कर रही है.
लेकिन देखते-देखते चुनाव टालने की मांग करने वाला महागठबंधन कड़े मुकाबले की स्थिति में आ गया. महागठबंधन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार तेजस्वी यादव की सभाओं में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सभाओं से ज्यादा भीड़ बताई जाने लगी. जिसे 'गोदी मीडिया' कहा जाता है, उसे भी तेजस्वी को सभाओं में उमड़ी भीड़ को दिखने पर मज़बूर होना पड़ा. उत्साहित तेजस्वी की रिकॉर्ड चुनाव रैलियों के सामने भाजपा की पूर्व-नियोजित रणनीति पराभूत होती नज़र आने लगी.
'सुशासन बाबू' के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो लाचार नज़र आने ही लगे, बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और विकास के हवाई वादों के घोल से बनी चुनाव जीतने की मोदी-शैली भी संकट में फंसती नज़र आई. रणनीतिकारों ने घबरा कर 19 लाख नौकरियां देने और कोरोना वायरस के मुफ्त टीके बांटने जैसी घोषणाएं करके माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश की. लेकिन, चुनाव उनकी रणनीति की गिरफ्त से बाहर जा चुका था.
केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ सरकारी ताकत को यह करारा झटका मुख्यत: लोकतंत्र की खूबी के चलते लगा. चुनावी पंडितों द्वारा गिनाए जाने वाले अन्य कारक सहायक भर हैं. इसी रूप में बिहार के चुनाव का विशेष महत्व है. यह महत्व महागठबंधन की हार की स्थिति में भी उतना ही सार्थक है.
कहना न होगा कि भारत के लोकतंत्र की महागाथा दुखों और विडंबनाओं से भरी है. यहां लोकतंत्र की खूबी के बूते जो भी सत्ता में आता है, उसका गला घोंटने पर आमादा हो जाता है. पार्टियों/नेताओं की येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपके रहने की तानाशाही प्रवृत्ति ने भारतीय लोकतंत्र को गहराई तक विकृत किया है. नेता मृत्यु के बाद भी सत्ता अपने वंशजों के हाथों में देखने की लिप्सा से परिचालित होते हैं. सामंती और उपनिवेशवादी दौर की चापलूसी की मानसिकता लोकतांत्रिक चेतना की इस विलोम प्रवृत्ति को खाद-पानी मुहैय्या कराती है. यह सिलसिला आज़ादी के साथ ही शुरू हो गया था. पिछड़े/दलित/आदिवासी नेताओं से यह स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे लोकतंत्र के सबसे बड़े रखवाले सिद्ध होंगे, और उसकी जर्जर काया में नए प्राण फूकेंगे. लेकिन अभी तक ऐसा परिपक्व नेतृत्व सामने नहीं आया है.
आशा की जानी चाहिए कि बिहार चुनाव में लोकतंत्र की खूबी ने जिन नेताओं को सत्तारूढ़ गठबंधन के मुकाबले में मजबूती से खड़ा कर दिया, वे लोकतंत्र के साथ पहले जैसा दुर्व्यवहार नहीं करेंगे.
प्रेम सिंह
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)
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