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मोदी राज में यह पहला चुनाव जब एनडीए विपक्ष की पिच पर खेलने को मजबूर

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hastakshep
28 Oct 2020
एच.एल. दुसाध : खूबियों से लैस एक दलित पत्रकार !

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

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मंडल उत्तरकाल में सामाजिक न्याय की ऐसी उपेक्षा कभी नहीं हुई - दुसाध

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28 अक्टूबर से तीन चरणों बिहार विधानसभा-2020 का चुनाव शुरू हो रहा है. इस बेहद महत्वपूर्ण चुनाव पर प्राख्यात शिक्षाविद प्रो. जी सिंह कश्यप ने डाइवर्सिटी मैन ऑफ इंडिया (Diversity Man of India) के रूप में विख्यात एच एल दुसाध से एक साक्षात्कार लिया था. प्रस्तुत है आपके लिए वह साक्षात्कार!

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1-प्रो. जी सिंह कश्यप. -. आज पूरे देश की निगाहें 3 चरणों में संपन्न होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव पर टिकी है। पहले चरण के वोट कुछ दिनों बाद कुछ दिनों बाद 28 अक्टूबर को पड़ने वाले हैं। बहरहाल बिहार चुनाव जिस बात को लेकर देश का ध्यान खींच रहा है वह है तेजस्वी यादव की सभाओं में जुटने वाली भीड़। लोगों का मानना है कि ऐसी भीड़ इसके पहले किसी भी विधानसभा चुनाव में नहीं देखी गई। लेकिन विपक्ष के लोगों का कहना है कि यह भीड़ वोट में तब्दील होने वाली नहीं है। बहरहाल तेजस्वी की सभाओं में जुट रही भीड़ पर आपका क्या कहना है?

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एच एल दुसाध- आपका यह कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि बिहार विधानसभा चुनाव में ऐसी भीड़ इससे पहले कभी नहीं देखी गई। यही कारण है कई बुद्धिजीवी तेजस्वी की सभाओं में जुटने वाली भीड़ की तुलना जयप्रकाश नारायण और बीपी सिंह की सभाओं में जुटने वाली भीड़ से करते नजर आ रहे हैं. विश्लेषकों के अनुसार तेजस्वी यादव ने अब तक एक से बढ़कर एक 50 के करीब जो जनसभाएं की हैं, उससे चुनाव परिणाम के अटकलों पर विराम लगता दिख रहा है। हर बीतते दिन के साथ उनकी रैलियों में भीड़ बढ़ती ही जा रही है। यह भीड़ पैसे के बल पर जुटाई गई भीड़ न होकर, परिवर्तनकारी लोगों की भीड़ प्रतीत हो रही है,जो सत्ता परिवर्तन के लिए कमर कस चुकी है। संभवतः इस भीड़ से आतंकित होकर ही प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ दिन पूर्व कोरोना से पार पाने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग डिस्टेंसिंग बनाए रखने का नये सिरे से संदेश दिए। भीड़ से खौफजदा होकर ही शायद चुनाव आयोग कठोर कदम उठाने की दिशा में अग्रसर हो रहा है. इस भीड़ का परिवर्तनकारी रूप देखते हुए ही सत्ताधारी पक्ष के साथ सवर्णवादी मीडिया तरह -तरह से यह भ्रम फैला रही है कि यह भीड़ वोट में तब्दील होने वाली नहीं है। लेकिन मीडिया कुछ भी कहे, भीड़ चुनाव का एक फैक्टर बन चुकी है. यह भीड़ तेजस्वी के साथ है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मोदी के चुनावी मीटिंगों में कुर्सियां खाली दिख रही हैं और उनका जोश ठंडा नजर आ रहा है। मोदी की सभाओं में कम भीड़ देखकर कुछ लोग यहां तक कहने लगे हैं कि उनके बाद के दौरों के बाद एनडीए की स्थिति और खराब होने वाली है.

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2-प्रो. जी सिंह कश्यप - तेजस्वी यादव की सभाओं में जो जनसैलाब आ रहा है, उसे मुख्यधारा की मीडिया लोगों की नीतीश कुमार के खिलाफ भारी नाराजगी करार दे रही है। अब आप बताएं बिहार में लोगों की नाराजगी क्या भाजपा के प्रति नहीं है?

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एच एल दुसाध- तेजस्वी की सभाओं में उमड़ती भीड़ को जहां एक ओर सवर्णवादी मीडिया यह कह रही है कि वह वोट में तब्दील नहीं होने वाली है, वहीं दूसरी ओर यह बताने में जुटी है कि लोगों में नाराजगी नीतीश कुमार को लेकर है, भाजपा और मोदी के प्रति नहीं! जबकि सच्चाई यह है कि वंचित जातियों में नीतीश से कम नाराजगी मोदी और भाजपा के प्रति नहीं है। आज बिहार बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, पलायन, घटिया शिक्षा, बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था, अपराध, पिछड़ेपन इत्यादि में देश में नंबर एक पर काबिज है तो उसके लिए लोग नीतीश के साथ भाजपा को भी दोषी मान रहे हैं। वह इसलिए कि लोग देख रहे हैं कि मोदी सुविधाभोगी वर्ग के हाथ में सब कुछ सौंपने के इरादे से हवाई अड्डे, बस अड्डे, रेलवे, हास्पिटल, शिक्षण संस्थान सारा कुछ निजी हाथों में देने के लिए जो नीतियां अख्तियार कर रहे हैं, उसका असर राज्य के वंचित समुदायों पर ज्यादा पड़ रहा है. सवर्णों के हित में सारा कुछ निजी हाथों में देने के मोदी सरकार के कामों से बिहार की जागरूक जनता पूरी तरह अवगत हो चुकी है, इसलिए यहां के गैर-सवर्ण समुदायों में मोदी को लेकर अपार नाराजगी है, जिसे यह कह कर झुठलाने का प्रयास हो रहा है कि जनता की नाराजगी सिर्फ नीतीश से है।

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3-प्रो. जी सिंह कश्यप- बिहार विधानसभा चुनाव में यदि मुद्दों की बात की जाए तो तेजस्वी यादव द्वारा सत्ता में आने के संग - संग नौजवानों को 10 लाख नौकरियां देने का मुद्दा छा गया है, इसके सामने सारे मुद्दे फेल हो गए हैं। लेकिन 10 लाख नौकरियां देने के मुद्दे का नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी ने यह कह कर खिल्ली उड़ाया है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा! पर, अब खुद भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में 19 लाख नौकरियों व रोजगार देने का वादा कर दिया है। इस पर आपका क्या कहना है?

एच एल दुसाध- आपका यह कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि तेजस्वी ने सत्ता में आने के बाद 10 लाख नौकरियां देने की जो बात कही है उसके सामने सभी मुद्दे फेल हो गए हैं। तेजस्वी द्वारा 10 लाख नौकरियां देने के घोषणा की खिल्ली उड़ा कर नीतीश और सुशील कुमार मोदी ने अपनी स्थिति हास्यास्पद करने के साथ एनडीए की संभावना को और कमजोर कर दिया है। ऐसा करके उन्होंने खुला संकेत दे दिया है कि बिहार के युवा बड़ा सपना न देखें, कम से कम सरकारी नौकरी की बात तो भूल ही जाएं. युवाओं में ऐसा अहसास पैदा होना एनडीए के लिए सचमुच घातक होगा। बहरहाल तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियां देने के वादा करके चुनाव का एजेंडा इस तरह सेट कर दिया है जिसकी कोई काट नहीं दिख रही है। मोदी राज में यह पहला चुनाव होगा जब एनडीए विपक्ष के तैयार पिच पर खेलने के लिए मजबूर है और इसकी कोई काट न देखकर ही भाजपा अपने घोषणा पत्र में 19 लाख नौकरियां देने का एलान कर दी है. लेकिन इसका कोई असर नहीं होना है. मोदी ने 2014 में हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के वादे को जुमला साबित कर पहले से ही इस की हवा निकाल रखी है. दूसरी ओर तेजस्वी यादव के वादे पर युवाओं में एक सपना आकार लेता दिख रहा है, उनमें सरकारी नौकरियों के पाने विश्वास पनपा है। ऐसे में यह एक निर्णायक मुद्दा साबित होने जा रहा है और इसका भारी लाभ महागठबंधन को मिलते दिख रहा है.

4-प्रो. जी सिंह कश्यप- बिहार चुनाव में मुद्दे के तौर पर कोरोना की फ्री वैक्सीन चर्चा का विषय बन गई है। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कहा है कि राज्य में सरकार बनने के बाद हर बिहारी को मुफ्त में कोरोना की वैक्सीन मुहैया कराई जाएगी। इसे लेकर पूरे देश में तरह तरह से चर्चा हो रही है. इस पर आपका क्या कहना है?

एच एल दुसाध- जिस वैक्सीन का कोई अता पता नहीं है, उस वैक्सीन को मुफ्त में मुहैया कराने का वादा करके भाजपा ने अपनी स्थिति निहायत ही हास्यास्पद कर ली है। हाल के वर्षों में वोट पाने के लिए इतनी बेहूदा घोषणा शायद ही किसी पार्टी द्वारा की गई हो. यह तो एक तरह से बीमारी और मौत का वोट से सौदा करने जैसा मामला लगता है। कोरोना का टीका यदि भविष्य में तैयार भी होता है तो उस पर देश का अधिकार होगा, ऐसा अधिकांश बुद्धिजीवियों का कहना है. ऐसे में इसे फ्री में किसी को देने की घोषणा भाजपा कैसे कर सकती है! यही कारण है इसे लेकर पूरे देश में जिस तरह की तीखी प्रतिक्रिया हो रही है, उससे ऐसा लगता है कि मुफ्त में कोरोना वैक्सीन का टीका एनडीए के लिए बूमरैंग हो सकता है। इससे बिहार के लोगों में कोरोना से मिला जख़्म फिर ताजा हो सकता है. स्मरण रहे कोरोना काल में लॉकडाउन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले बिहार के ही मजदूर रहे, जिनके प्रति सर्वाधिक निर्ममता नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री मोदी ने दिखलाया. मोदी जहां कोरोना महामारी को अवसर के रूप में तब्दील करते हुए सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में देने के साथ-साथ कई मजदूर विरोधी नीतियां अख्तियार करने में मशगूल रहे, वहीं नीतिश हर संभव कोशिश किए कि कोई प्रवासी मजदूर बिहार में प्रवेश न कर सके. बिहार के लोग भूले नहीं होंगे कि जहां पड़ोसी राज्य झारखंड के सीएम अपने राज्य के प्रवासी मजदूरों के लिए मुफ्त में हवाई जहाज की सुविधा सुलभ कराये, वहीं नीतीश भूखे-प्यासे ट्रेन से आने वाले बिहारी मजदूरों से ट्रेन का किराया तक वसूले. कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि मुफ्त का कोरोना वैक्सीन चुनाव का परिणाम तय करने में एक बड़े फैक्टर का काम करेगा.

5-प्रो. जी सिंह कश्यप- इस चुनाव में लोजपा के चिराग पासवान एनडीए का एक पार्टनर होकर भी, जिस तरह नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिए हैं, उससे देश का ध्यान उनकी ओर अलग से आकर्षित हो रहा है। आप जरा चिराग पासवान के व्यक्तित्व और उनकी राजनीतिक संभावना पर रोशनी डालें प्लीज?

एच एल दुसाध- देखिए जहां तक चिराग पासवान का सवाल है, उनके व्यक्तित्व में एक सफल नेता बनने की जरूरी खूबियां हैं। वे देश के सबसे आकर्षक नेताओं में एक तथा भाषण कला में काफी निपुण हैं, शायद अपने पिता से भी कहीं ज्यादा। उनमें रिस्क लेने का माद्दा है। जिस तरह राजनीति की बेहतर समझ के कारण उनके पिता सही निर्णय ले पाने में सक्षम थे, वह गुण इनमें भी दिख रहा है। इनमें संकल्प शक्ति है तथा प्रतिकूल हालात में स्थिर रहने लायक टेंपरामेंट भी है, यह उनके पिता के निधन के बाद साफ तौर पर दिख रहा है. अपने पिता के असामयिक निधन के बाद जिस तरह वह अपनी पार्टी को नेतृत्व दे रहे हैं, उससे मुझे लगता है वह भारतीय राजनीति की एक बड़ी संभावना हैं जो अपने पिता से भी आगे जा सकते हैं, यदि सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़ जाए तो! सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़ने के साथ यदि उनका भविष्य में तेजस्वी से तालमेल हो जाता है, जिसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, तो दोनों मिलकर रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव के इतिहास को दोहरा सकते हैं. फिलहाल उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में जो कदम उठाया है, यदि नीतीश कुमार सत्ता से बाहर हो जाते हैं तो खास श्रेय उन्हीं को मिलेगा. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि चिराग पासवान भारतीय राजनीति की एक बड़ी संभावना के रूप में उभरते नजर आ रहे हैं.

6- प्रो. जी सिंह कश्यप- ढेरों लोगों का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव- 2020 में सामाजिक न्याय की मुद्दे की जैसी उपेक्षा हुई है, वैसा नई सदी के किसी भी बिहार चुनाव में नहीं हुआ.आप इस बात से कितना सहमत हैं ?

एच एल दुसाध – मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि इस बार के बिहार चुनाव में सामाजिक न्याय की जैसी उपेक्षा हुई है, वैसा नई सदी के किसी भी चुनाव में नहीं हुआ. बिहार चुनाव में उतरी सभी पार्टियों- कांग्रेस, भाजपा, राजद, जदयू,लोजपा इत्यादि- का घोषणापत्र सामने आ चुका है पर, इनमें किसी के भी घोषणापत्र में सदियों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत दलित, आदिवासी, पिछड़ों,अति पिछड़ों के लिए शक्ति के स्रोतों में शेयर दिलाने की विशेष घोषणा नहीं हुई है, जबकि इसके पहले के चुनावों में राजद, जदयू, लोजपा इत्यादि सामाजिक न्यायवादी दलों के साथ कांग्रेस और भाजपा जैसी सवर्णवादी पार्टियां तक निजीक्षेत्र और प्रमोशन में आरक्षण इत्यादि के साथ सप्लाई, ठेकेदारी में आरक्षण दिलाने की बात उठाती रही हैं. मसलन 2010 के बिहार चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया था- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अनुसूचित जाति / जनजाति के लोगों को शिक्षा के अलावा व्यवसायिक विकास के कार्यक्रमों की आवश्यकता महसूस करती है। इसे देखते हुए सरकारी ठेकों और अन्य कामों में इनके लिए प्राथमिकता वाली नीति अपनाई जाएगी। 2010 में ही कांग्रेस से भी आगे बढ़कर भाजपा की ओर से कहा गया था- पहचान की राजनीति के बदले भागीदारी नीति का का अनुसरण करते हुए दलित, पिछड़े एवं कमजोर वर्गों के ठोस विकास एवं सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा तथा समाज के इन वर्गों के लिए उद्यमशीलता एवं व्यवसाय के अवसरों को बढ़ावा दिया जाएगा.

2010 में लोजपा की ओर से कहा गया था- ठेकेदारी, सप्लाई, वितरण, फिल्म-मीडिया अर्थोपार्जन के महत्वपूर्ण स्रोत हैं और इसमें दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों का कोई स्थान नहीं है. ठेकेदारी.इन स्रोतों में वंचित वर्गों को संख्या अनुपात में भागीदारी मिले लोजपा इसका इसका समर्थन करती है. जहां तक विधानसभा 2015 का सवाल है, यह चुनाव सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ही लड़ा गया था. ऐसे में पिछले चुनावों को देखते हुए, यह बात जोर गले से कही जा सकती है कि मंडल उत्तरकाल में सामाजिक न्याय की ऐसी उपेक्षा किसी भी चुनाव में नहीं हुई!

7- प्रो. जी सिंह कश्यप- 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू- नीतीश गठबंधन को अप्रतिरोध मोदी एंड कंपनी के खिलाफ जो ऐतिहासिक सफलता मिली वह सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाने के वजह से मिली, थी, ऐसा ढेरों लोगों का कहना है। आपने तो बाकायदा इस पर किताब भी लिख कर बताया था कि कैसे मंडल के लोगों ने फोड़ दिया था कमंडल। प्लीज आप बताएं 2015 में लालू- नीतीश ने ऐसा क्या किया था कि मंडल के लोगों ने कमंडल फोड़ दिया?!

एच एल दुसाध -. देखिए 2015 में जो परिणाम सामने आया, उसमें लालू जी ने बहुत ही प्रभावी भूमिका अदा किया था. उन्होंने बहुत ही प्लान वे में मंडल के लोगों को कमंडल फोड़ने के लिए तैयार किया था। 2014 में मोदी के जबरदस्त मेजोरिटी के साथ सत्ता में आने के बाद लालू प्रसाद यादव को क्लियर लग गया कि बिना मंडल की लड़ाई लड़े मोदी को सत्ता से आउट नहीं किया जा सकता। इसीलिए उन्होंने मई 2016 में मोदी के सत्ता में आने के बाद जगह-जगह कहना शुरू किया था कि मंडल ही व बनेगा कमंडल की काट. इस बात को उन्होंने खासतौर से जुलाई 2014 में राजद के कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर में उठाया जो कि वैशाली में आयोजित हुआ था. 2014 के अगस्त में बिहार के 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना. इसके पहले मोदी के सत्ता में आने के बाद लालू प्रसाद और नीतीश एक दूसरे के निकट आ चुके थे. लालू प्रसाद यादव ने उप चुनाव को देखते हुए वैशाली में अपने कार्यकर्ताओं को आह्वान किया कि मंडल ही बनेगा कमंडल की काट. उन्होंने वैशाली कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर में सिर्फ मंडल और कमंडल की बात ही नहीं उठाया, बल्कि इसे अमली रूप देने के लिए उन्होंने ऐलान किया- निजी क्षेत्र सहित सरकारी ठेकों और विकास के तमाम योजनाओं में दलित पिछड़े और असलियत में को 60% आरक्षण देना होगा. ऐसा कह कर उन्होंने आरक्षण के विस्तार की जो बात उठाई, उसका संदेश दूर तक गया और जब 25 अगस्त को 10 सीटों का चुनाव परिणाम सामने आय, देखा गया कि 10 में से 6 सीटें लालू नीतीश गठबंधन के हिस्से में आ गई हैं। उपचुनाव में सफलता के बाद लालू 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को मंडल पर केंद्रित करने का और मन बना लिए. इसके लिए उन्होंने जुलाई जुलाई 2015 में जाति जनगणना के मुद्दे पर विशाल धरना प्रदर्शन शुरू किया, जिसमें उन्होंने एलान किया कि इस बार का चुनाव कमंडल के खिलाफ मंडल का होगा. 90% पिछड़ों पर 10% वाले अगड़े राज कर रहे हैं. हम अपने बाप दादा का हक लेकर रहेंगे- बाद में जब सितंबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हुई,उसी दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार आकर आरक्षण के समीक्षा की बात उठा दी. उसके बाद तो लालू यादव खुलकर कमंडल के खिलाफ मंडल का खेल शुरू कर दिए.उन्होंने कहना शुरू किया, तुम आरक्षण का खात्मा करना चाहते हो, हम सत्ता में आये तो हर क्षेत्र में संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाएंगे. संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा बहुजनों को स्पर्श कर गया और मोदी अपने जीवन की सबसे गहरी हार झेलने के लिए विवश हुए.

एच एल दुसाध -. देखिए 2015 में लालू जी ने बहुत ही मंडल के लोगों को कमंडल फोड़ने के लिए तैयार किया था। 2014 मे जबरदस्त मेज्योरिटी के साथ मोदी के सत्ता में आने के बाद लालू प्रसाद यादव को क्लियर लग गया कि बिना मंडल की लड़ाई लड़े उनको सत्ता से आउट नहीं किया जा सकता। इसीलिए उन्होंने मई 2016 से मोदी के सत्ता में आने के बाद जगह-जगह कहना शुरू किया कि मंडल ही बनेगा कमंडल की काट. इस बात को उन्होंने खासतौर से जुलाई 2014 में राजद के कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर में उठाया जो कि वैशाली में आयोजित हुआ था. 2014 के अगस्त में बिहार के 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना था. इसके पहले मोदी के सत्ता में आने के बाद लालू प्रसाद और नीतीश एक दूसरे के निकट आ चुके थे आ चुके थे. लालू प्रसाद यादव ने उप चुनाव को देखते हुए वैशाली में अपने कार्यकर्ताओं को आह्वान करते हुए कहा था कि मंडल ही बनेगा कमंडल की काट. उन्होंने वैशाली कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर में सिर्फ मंडल और कमंडल के काट की बात ही नहीं उठाया, इसे अमली रूप देने के लिए उन्होंने ऐलान किया कि निजी क्षेत्र सहित सरकारी ठेकों और विकास के तमाम योजनाओं में दलित पिछड़े और अकलियतों को 60% आरक्षण देना होगा.

ऐसा कह कर उन्होंने आरक्षण के विस्तार की जो बात उठाया, उसका संदेश दूर तक गया और जब 25 अगस्त को 10 सीटों का चुनाव परिणाम सामने आया, देखा गया कि 10 में से 6 सीटें लालू- नीतीश गठबंधन के हिस्से में आई हैं। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को मंडल पर केंद्रित करने के लिए लालू प्रसाद यादव ने जुलाई 2015 में जाति जनगणना के मुद्दे पर विशाल धरना प्रदर्शन शुरू किया, जिसमें उन्होंने एलान किया कि इस बार का चुनाव कमंडल के खिलाफ मंडल का होगा, 90% पिछड़ों पर 10% वाले राज कर रहे हैं रहे हैं हम अपने बाप दादा का हक लेकर रहेंगे। बाद में जब सितंबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हुई, उसी दौरान उसी दौरान संघ प्रमुख संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार आकर आरक्षण के समीक्षा की बात कह दी. इससे लालू यादव को चुनाव को मंडल बनाम कमंडल पर खड़ा करने का और अवसर मिल गया. उसके बाद तो उन्होंने रैलियों में जोर-शोर से यह कहना शुरू किया कि हम सत्ता में आएंगे तो हर क्षेत्र में संख्यानुपात में आरक्षण देंगे. उनका हर क्षेत्र में संख्यानुपात में आरक्षण देने की बात बहुजनों को स्पर्श कर गयी और जब 8 नवंबर,2015 को चुनाव परिणाम सामने आया, देखा गया कि मोदी हिंदी पट्टी में सबसे बड़ी हार झेलने के लिए विवश हुए हैं.

लालू यादव ने जिस तरह आरक्षण को विस्तार देकर मोदी को शिकस्त दिया, वह एक मिसाल है, जिससे बहुजनवादी दलों को प्रेरणा लेनी चाहिए. वर्तमान चुनाव में तेजस्वी यादव की स्थिति बहुत बढ़िया नजर आ रही है, बावजूद इसके जरूरी है कि वह 2015 के चुनाव से प्रेरणा लेकर आरक्षण को विस्तार दें.

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