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बिमल रॉय : हिंदी सिनेमा को नई दिशा देने वाला निर्देशक

बिमल रॉय हिंदी सिनेमा के वाक़ई ऐसे नक्षत्र हैं, जिनकी चमक कभी ख़त्म नहीं होगी। फिल्मी दुनिया में उनका सिनेमा, 'बिमल रॉय स्कूल' के तौर पर जाना जाता है। जिनसे कई पीढ़ियां प्रशिक्षित होती रहेंगी।

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देशबन्धु
08 Jan 2022 एडिट 29 Apr 2023
ओटीटी पर्दे पर प्रेम, दंगे और हत्याओं का 'ग्रहण'

बिमल रॉय : हिंदी सिनेमा को नई दिशा देने वाला निर्देशक

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हिंदी सिनेमा को बिमल रॉय का योगदान

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बिमल रॉय की पुण्यतिथि 8 जनवरी पर विशेष (Special on 8 January on Bimal Roy's death anniversary)

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एक ऐसे दौर में जब हिंदी फ़िल्मों में धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों का बोलबाला था, बिमल रॉय ने अपने आप को सिर्फ़ सामाजिक और उद्देश्यपूर्ण फ़िल्मों तक सीमित किया। अपनी फ़िल्मों में किसान, मध्यवर्ग और महिलाओं के मुद्दों को अहमियत के साथ उठाया। अपने समय के ज्वलंत सवालों से कभी मुंह नहीं चुराया। बिमल रॉय ने प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों पर भी लाजवाब फ़िल्में बनाईं। चुस्त कथा-पटकथा-संवाद, उत्कृष्ट फिल्मांकन और मधुर गीत-संगीत कमोबेश उनकी सभी फ़िल्मों की पहचान है। सच बात तो यह है कि बिमल रॉय के बिना हिंदी सिनेमा का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।

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बिमल रॉय का सिनेमा (Bimal Roy movies)

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बिमल रॉय हिंदी सिनेमा के वाक़ई ऐसे नक्षत्र हैं, जिनकी चमक कभी ख़त्म नहीं होगी। फिल्मी दुनिया में उनका सिनेमा, 'बिमल रॉय स्कूल' के तौर पर जाना जाता है। जिनसे कई पीढ़ियां प्रशिक्षित होती रहेंगी। भारतीय सिनेमा में ऐसा बेमिसाल मुक़ाम बहुत कम फ़िल्म निर्देशकों को हासिल है।

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बिमल रॉय जीवनी (Bimal Roy Biography in Hindi)

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अविभाजित भारत में ढाका के पास सुआपुर गांव में एक जमींदार परिवार में जन्मे बिमल रॉय ने साल 1935 में महज़ 26 साल की उम्र में 'न्यू थियेटर्स' से अपना फ़िल्मी करियर शुरू किया। वे नामी निर्देशक नितिन बोस के सहायक कैमरामैन रहे। ज़ल्द ही उन्हें स्वतंत्र कैमरामैन के तौर पर प्रमथेश चन्द्र बरुआ की फिल्म 'मुक्ति' (Pramathesh Chandra Barua's film 'Mukti') मिल गई। सिनेमेटोग्राफ़र से डायरेक्टर बनने का सफ़र पूरा करने के लिए उन्हें नौ साल लगे।

बिमल रॉय निर्देशित पहली फिल्म

साल 1944 में बिमल रॉय ने अपनी पहली फ़िल्म 'उदयेर पथे' का निर्देशन किया, जो कामयाब रही। उसके एक साल बाद साल 1945 में 'न्यू थियेटर्स' ने इस फ़िल्म को हिंदी में 'हमराही' नाम से बनाया, जिसका निर्देशन भी बिमल रॉय ने ही किया।

बलराज साहनी द्वारा अभिनीत यह रोमांटिक यथार्थवादी फ़िल्म,अपने एक अलग सब्जेक्ट की वजह से उस वक़्त काफ़ी चर्चा में रही। सिनेमा के कुछ विशेषज्ञों का ख़याल है कि 'हमराही' भारतीय सिनेमा में नवयथार्थवाद का प्रारंभ थी।

दरअसल, बिमल रॉय यथार्थवाद और समाजवादी विचारधारा से शुरू से ही बेहद मुतासिर थे। इप्टा से जुड़े रहे वामपंथी ख़यालों के गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार सलिल चौधरी के साथ उन्होंने कई फ़िल्में कीं। ज़ाहिर है इसका असर उनकी फ़िल्मों पर भी दिखाई देता है।

दो बीघा ज़मीन से शुरू हुई फ़िल्म कंपनी 'बिमल रॉय प्रॉडक्शन'

बिमल रॉय की सबसे चर्चित फ़िल्म (Bimal Roy's most popular film) 'दो बीघा ज़मीन', इटली के नवयथार्थवादी सिनेमा ख़ास तौर से विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक वित्तोरियो द सिका की फिल्म 'बाइसिकिल थीव्स' से प्रभावित थी। यह बिमल रॉय की तीसरी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के साथ उन्होंने अपनी फ़िल्म कंपनी 'बिमल रॉय प्रॉडक्शन' भी शुरू की।

साल 1953 में प्रदर्शित 'दो बीघा ज़मीन' एक यथार्थवादी फ़िल्म थी, जो व्यावसायिक तौर पर कामयाब नहीं हुई। अलबत्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फ़िल्म की काफ़ी सराहना हुई। यहां तक कि रूस, चीन, फ्रांस, स्विटजरलैंड आदि देशों में इस फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ। फ़िल्म को कान्स और कार्लोवी वारी के अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म उत्सवों में पुरस्कृत किया गया।

'दो बीघा ज़मीन', राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी सम्मानित की गई। संगीतकार सलिल चौधरी की कहानी पर बनी इस फ़िल्म की पटकथा जाने-माने निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने लिखी थी। जबकि फ़िल्म का नामकरण, रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कविता 'दुई बीघा जोमी' पर किया गया। फ़िल्म के गीत जनवादी गीतकार शैलेन्द्र और संगीत सलिल चौधरी का था। संवाद पॉल महेन्द्र ने लिखे। फिल्म 'दो बीघा ज़मीन' एक गरीब किसान शंभू महतो की अपनी दो बीघा ज़मीन को जमींदार से बचाने के जद्दोजहद की कहानी है।

'दो बीघा ज़मीन' से हिंदी सिनेमा में एक नई धारा का उदय हुआ

'दो बीघा ज़मीन' एक तरफ़ किसान और उनकी ज़मीन के सवाल को प्रमुखता से उठाती है, तो दूसरी ओर औद्योगीकरण के बदनुमा चेहरे से पर्दा भी उठाती है। फ़िल्म बतलाती है कि विकास किस तरह से चंद लोगों के लिए समृद्धि लेकर आता है और लोगों की बड़ी तादाद हाशिए पर धकेल दी जाती है। सामंतवाद हो या फ़िर सरमायेदारी इनमें आख़िर में पिसती आम अवाम ही है। शोषण का दुष्चक्र उन्हें कहीं नहीं छोड़ता।

गांव से शहरों की ओर जो पलायन हो रहा है, उसके पीछे एक बड़ी मज़बूरी है। महानगरों में लोग बेहतर ज़िन्दगी और ज़्यादा कमाई की आस में जाते हैं, लेकिन वहां उनकी ज़िंदगी गांव से भी बदतर हो जाती है।

'दो बीघा ज़मीन', वाक़ई निर्देशक बिमल रॉय की एक शाहकार फ़िल्म है। सेल्युलाइड के पर्दे पर उन्होंने जैसे एक संवेदनशील कविता लिखी है। हिंदी सिनेमा में इस फ़िल्म का हमेशा ऑल टाइम क्लासिक का दर्जा़ रहेगा। 'दो बीघा ज़मीन', वह फ़िल्म है जिससे हिंदी सिनेमा में नई धारा का उदय हुआ।

बिमल रॉय, साहित्यकार शरतचंद्र चैटर्जी के साहित्य के बड़े प्रशंसक थे। उनके उपन्यास 'परिणीता', 'बिराज बहू' और 'देवदास' पर उन्होंने इसी नाम से तीन यादगार फ़िल्में बनाईं। जो बॉक्स ऑफिस पर बेहद कामयाब रहीं। बिमल रॉय ने पहली ही फ़िल्म से अपनी जो टीम बनाई, उसी के साथ फ़िल्में बनाना पसंद कीं। अपनी इस टीम पर उन्हें ज़्यादा एतबार था। उनकी ज़्यादातर फ़िल्मों के पटकथा लेखक नबेंदु घोष और संवाद लेखक पॉल महेन्द्र थे। अलबत्ता फ़िल्म 'देवदास' के संवाद उर्दू के एक बड़े अफ़साना निगार राजिंदर सिंह बेदी ने लिखे, तो वहीं 'यहूदी' फ़िल्म के डायलॉग वजाहत मिर्जा के थे। फ़िल्म 'मधुमति' के डायलॉग भी राजिंदर सिंह बेदी की कलम से निकले थे।

'मधुमति' की बात निकली है, तो यह बतलाना लाज़िमी होगा कि फ़िल्म की कहानी और पटकथा जाने-माने बांग्ला निर्देशक ऋत्विक घटक ने लिखी थी। फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद कामयाब साबित हुई।

'मधुमति' को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के पुरस्कार के साथ कुल सात फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिले। अभिनय सम्राट दिलीप कुमार ने बिमल रॉय के साथ तीन फ़िल्में 'देवदास', 'यहूदी' और 'मधुमति' की और तीनों ही सुपर हिट रहीं। 'बिराज बहू' और 'देवदास' वह फ़िल्में थीं, जिन्होंने बिमल रॉय को हिंदी सिनेमा में स्थापित कर दिया। ख़ास तौर से 'देवदास'। यह फ़िल्म टिकिट खिड़की पर तो सफल हुई ही, इसे कई पुरस्कार भी मिले। दर्शकों और फिल्म समीक्षकों दोनों ने इसे सराहा। इस फिल्म के बनने से पहले, उपन्यास 'देवदास' पर बांग्ला और हिंदी में दो फ़िल्म बन चुकी थीं। इत्तेफ़ाक की बात है कि इन दोनों ही फ़िल्मों के कैमरामैन बिमल रॉय रहे थे।

'सुजाता' और 'बंदिनी' वह फ़िल्में हैं, जिनसे बिमल रॉय भारतीय सिनेमा में हमेशा अमर रहेंगे। फ़िल्मी दुनिया में जब उस वक़्त पुरुष प्रधान फ़िल्मों का बोलबाला था, तब उन्होंने नारीप्रधान फ़िल्में बनाकर, निर्देशकों के लिए एक नई राह दिखलाई।

बिमल रॉय की एक फ़िल्म 'नौकरी' की अक्सर चर्चा नहीं होती। बेरोजगारी, ग़रीबी और ज़िंदगी के लिए संघर्ष फ़िल्म का आधार है। गायक किशोर कुमार, इस फ़िल्म के नायक थे। फ़िल्म के गीत शैलेंद्र और संगीत सलिल चौधरी ने दिया था। फ़िल्म चूंकि बॉक्स ऑफिस पर नाकामयाब रही, इसलिए इस फिल्म को भी लोगों ने भुला दिया।

साल 1961 में आई फिल्म 'काबुलीवाला' बिमल रॉय की उल्लेखनीय फ़िल्मों में गिनी जाती है। हालांकि, इस फिल्म का उन्होंने निर्देशन नहीं किया था, वे फिल्म के निर्माता थे। निर्देशक हेमेन गुप्ता ने इसका निर्देशन किया था, पर इस फिल्म में उनकी शैली साफ़ नज़र आती है।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी पर आधारित इस फिल्म में बलराज साहनी ने यादगार अभिनय किया है। इस फ़िल्म का ज़िक्र छिड़ते ही गीतकार प्रेम धवन का लिखा और गायक मन्ना डे द्वारा गाया दर्द भरा गीत 'ये मेरे प्यारे वतन तुझपे दिल कु़र्बान..' याद आ जाता है।

अपने शानदार निर्देशन के लिए बिमल रॉय को सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफे़यर अवार्ड मिला, तो चार बार सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार। साल 2007 में सरकार ने उन पर एक डाक टिकिट जारी किया।

बहुत कम ज़िन्दगी मिली बिमल रॉय को

हिंदी सिनेमा के आधार स्तंभ निर्माता-निर्देशक बिमल रॉय को बहुत कम ज़िन्दगी मिली। महज़ 55 साल की उम्र में 8 जनवरी, 1965 को उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। सात दशक पहले, अपनी इस फ़िल्म के ज़रिए उन्होंने जो किसानों और उनकी ज़मीन के सवाल उठाए थे, उनका जवाब आज भी मुल्क के कर्णधारों के पास नहीं है। ख़ेती-किसानी, किसानों के लिए दिन-पे-दिन घाटे का सौदा बनती जा रही है। ज़्यादातर जगह वह किसान से ख़ेतिहर मज़दूर बनकर रह गया है। आज गांवों में भले ही पहले की तरह साहूकार और जमींदार नहीं हैं, लेकिन उनकी जगह जिस कॉर्पोरेट फार्मिंग और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ने ली है, वह उनसे भी ख़तरनाक हैं। उनके इरादे और भी ज़्यादा ख़तरनाक। किसानों से उनकी ज़मीन और उपज को बेचने का अधिकार छीनकर, ये अदृश्य ताकतें किसानों को अपना बंधुआ मज़दूर बनाना चाहती हैं।

ज़ाहिद ख़ान

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