now hindi has been converted into the language of 'hate' and 'war'.
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शोहदों की भाषा बन गयी है अब हिंदी
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हिंदी का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है, खड़ी बोली हिंदी अब साइबर जगत और राजनीतिक जगत के संप्रेषण में "पत्थर हिंदी" में तब्दील हो गयी है। अब हम भाषा में नहीं बोलते बल्कि शब्दों के जरिए पत्थर मारते हैं। गालियाँ देते हैं। हिंदी अब शोहदों की भाषा बन गयी है। अब हिंदी को 'घृणा' और 'युद्ध ' की भाषा में रूपान्तरित कर दिया गया है। भाजपा संचालित साइबर सैल यह काम सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों के जरिए और टीवी पर उनके प्रवक्ता अपने बयानों के जरिए रोज कर रहे हैं, इसका आम जनता के भाषिक आचरण पर गहरा और व्यापक असर हो रहा है।
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भाषा को शोहदों की भाषा बनाना सबसे बड़ा अपराध है और हम सब चुपचाप इस भाषायी पतन को देख रहे हैं। आश्चर्य की बात है भाषा के इस पतन पर हिंदी के प्रोफेसर-लेखक-हिन्दीसेवी चुप्पी लगाए बैठे हैं। इनमें एक बडा वर्ग ऐसे लोगों का है जो आरएसएस और भाजपा से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं, वहीं दूसरी ओर प्रगतिशील और जनवादी लेखक संघ और उनसे जुडे लेखकों की इस मसले पर चुप्पी मुझे तकलीफ दे रही है।
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हिंदीभाषी होने के नाते हमारी जिम्मेदारी क्या है?
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मोदी के सत्ता में आने के पहले से भाषा को आक्रामक भाषा, घृणा की भाषा बनाने का काम शुरू हो चुका था, साइबर सैल के गठन के बाद से इसने व्यापक संगठित हमले और संगठित कम्युनिकेशन की शक्ल अख़्तियार कर ली है।
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हिंदीभाषी होने के नाते हम सबकी यह जिम्मेदारी बनती है कि हिंदी के इस पतन के खिलाफ हर स्तर पर लिखकर विरोध करें। आरएसएस और भाजपा जैसे संगठनों से दूर रहें जिनके जरिए हिंदी को नष्ट करने के प्रयास हो रहे हैं।
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घृणा की भाषा केसाइड इफ़ेक्ट
side effects of hate speech
घृणा की भाषाका पहला साइड इफ़ेक्ट है कि आप भाषाविहीन हो जाते हैं, असभ्य भाषिक प्रयोगों का इस्तेमाल करने लगते हैं, असभ्यता और सामाजिक बर्बरता को वैध और नॉर्मल मानकर चलते हैं।
घृणा की भाषाका दूसरा साइड इफ़ेक्ट यह होता है कि हर क्षण उन्माद और कुतर्क में जीते हैं, विवेकवाद और नीतिसंगत संवाद को एक सिरे से खारिज करने लगते हैं, अब भाषा का मतलब सोचना-विचारना नहीं बल्कि एक्शन मात्र होता है।
घृणा की भाषाका तीसरा साइड इफ़ेक्ट यह होता है कि आपको हमेशा किसी न किसी शत्रु की तलाश रहती है, शत्रु ,घृणा और शत्रुता ही इसका स्थायी भाव है।
घृणा की भाषा की शुरूआत कैसे हुई
घृणा की भाषा की शुरूआत शीतयुद्ध के दौरान सबसे पहले अमेरिकी संस्थानों ने की, खासकर , मार्क्सवादियों-क्रांतिकारियों और साम्यवादी सरकारों के खिलाफ इसके मुहावरे और भाषिक रूपों को गढ़ा गया। जमीनी स्तर पर मैकार्थीवाद और यहूदी विस्तारवादी संगठनों ने इसका स्थानीय स्तर पर, स्थानीय राजनीति में अमेरिका, इस्रायल और मध्यपूर्व के देशों में इस्तेमाल किया गया। बाद में अमेरिका में 9/11की घटना के बाद सारी दुनिया में नई आक्रामक मुद्रा में "घृणा" की भाषा का व्यापक पैमाने पर मीडिया तंत्र के जरिए प्रचार प्रसार किया गया। मुसलमान मुख्य शत्रु, मुसलमान आतंकवादी, मुसलमान बर्बर, इस्लाम बर्बर धर्म आदि के प्रौपेगैंडा के जरिए घृणा की भाषा को नए सिरे से सजाया-सँवारा गया।
भारत में कैसे फैली घृणा की भाषा
दिलचस्प बात यह है कि हमारे यहां घृणा की भाषा सरकारी जाँच एजेंसियों के जरिए सबसे पहले दाखिल होती है। खासकर नक्सलवाड़ी आंदोलन, उग्रवाद, पंजाब में आतंकवाद आदि समस्याओं के जरिए घृणा की भाषा दाखिल होती है। लेकिन यह भाषा मूलत: सरकारी काग़ज़ों, कानूनी बयानों आदि तक ही सीमित थी, लेकिन पहली बार राममंदिर आंदोलन और 1984 के सिख नरसंहार और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की घटना के साथ यह सार्वजनिक वाद-विवाद और विमर्श की भाषा बन जाती है, राजनीतिक लामबंदी की भाषा बन जाती है।
इस समस्या को सबसे ज्यादा व्यापक शक्ल मिली है मोदी सरकार के आने के बाद भाजपा के साइबर सैल और संघ आदि संगठनों द्वारा संचालित वेबसाइट के जन्म के बाद। इसने संगठित ढंग से घृणा की भाषा का पूरा नया भाषिकतंत्र और मुहावरा ही पैदा कर दिया है। सवाल यह है क्या आप इस खतरे को महसूस करते हैं ? यदि हां तो फिर चुप क्यों हैं ?
जगदीश्वर चतुर्वेदी
https://youtube.com/shorts/WTG_hUC_pPY
भाषा और विमर्श का स्तर नरेंद्र मोदी ने गिराया है | hastakshep | Bharat jodo yatra | breaking news
BJP cyber cell converted Hindi into the language of hate