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केंद्र में भाजपा सरकार के 8 साल पूरे होने पर संपादकीय टिप्पणी
संदर्भ - Maharashtra News : 'सुप्रिया सुले घर जाकर खाना पकाएं', महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष ने की अशोभनीय टिप्पणी, एनसीपी ने किया पलटवार
देशबन्धु में संपादकीय आज (Editorial in Deshbandhu today)
भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (BJP led National Democratic Alliance) ने 26 मई को सत्ता में आठ साल पूरे कर लिए। मीडिया में इसे मोदी सरकार के आठ साल (Eight years of Modi government) को प्रचारित किया जा रहा है। व्यावहारिक तौर पर ये सही भी है, क्योंकि इन आठ सालों में केंद्र सरकार या भाजपा की नहीं नरेन्द्र मोदी का बोलबाला रहा है। व्यक्तिपूजक भारतीय समाज में यह अस्वाभाविक नहीं है कि नरेन्द्र मोदी को लोगों ने देश का उद्धारक मान लिया है।
श्री मोदी ऐसे मौकों पर अपनी तकरीरों से जनता तक यही संदेश पहुंचाते हैं कि वे प्रधानमंत्री के पद पर केवल जनता की सेवा के लिए बैठे हैं। तभी तो उन्होंने अपने लिए प्रधानसेवक शब्द का इस्तेमाल भी किया है।
मोदीजी के विकास, न्याय और सुरक्षा में महिलाओं की स्थिति क्या है?
सत्ता के आठ साल पूरा करने के इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि उनका अब तक का कार्यकाल देश के संतुलित विकास, सामाजिक न्याय और सामाजिक सुरक्षा के लिए समर्पित रहा है।
पता नहीं विकास, न्याय और सुरक्षा की इस अवधारणा में महिलाओं के लिए कितनी जगह है। क्योंकि आठ सालों में महिलाओं पर अत्याचार कम हुए हों, ऐसा नहीं है।
बलात्कार और छेड़खानी जैसे अपराध होते ही हैं और कठुआ, हाथरस, उन्नाव, हैदराबाद जैसे मामलों के बाद भी लड़कियों की सुरक्षा के लिए मोदी सरकार की ओर से कोई फिक्र या संवेदनशीलता नजर नहीं आई। नतीजा ये है कि जगहों के नाम बदलते जा रहे हैं और महिलाएं, बच्चियां पहले की तरह ही अपराधियों की निगाहों में हैं। महिलाएं शारीरिक तौर पर ही नहीं, मानसिक तौर पर भी प्रताड़ित की जा रही हैं।
घर और दफ्तर दोनों जगह कोरोना लॉकडाउन में शिकार बनीं महिलाएं
कोरोना में लगाए गए लॉकडाउन के बाद घरेलू और कामकाजी, दोनों तरह की महिलाएं घर और दफ्तर के दबावों का शिकार बनी हैं। मोदी सरकार के आठ सालों में सवा करोड़ महिलाओं की नौकरियां चली गई हैं। इस दौरान महंगाई भी लगभग 15 प्रतिशत तक बढ़ी है, जिससे सबसे अधिक महिलाएं ही प्रभावित हुई हैं। इस तरह सरकार महिलाओं के विकास, न्याय और सुरक्षा तीनों मोर्चों पर विफल नजर आ रही है।
हालांकि सरकार ने देश की आधी आबादी को लुभाने के लिए कई किस्म के नारे गढ़े हैं, कई योजनाएं चलाई हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का जुमला तो खूब चला। उज्ज्वला योजना के तहत महिलाओं को गैस सिलेंडर मुफ्त में देने का प्रचार भी भाजपा सरकार ने खूब किया है।
जनधन खातों को लेकर भी सरकार का दावा है कि इससे महिलाओं के खाते में रकम सीधे पहुंच रही है और वे आर्थिक तौर पर सशक्त हो रही हैं।
इस आठ मार्च को भी 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' पर ट्वीट्स की एक श्रृंखला में, प्रधानमंत्री ने कहा था कि, 'महिला दिवस पर, मैं अपनी नारी शक्ति और विविध क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियों को सलाम करता हूं। भारत सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित करती रहेगी। गरिमा के साथ-साथ अवसर पर भी जोर दिया जाएगा।'
पता नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किन अवसरों की बात कर रहे हैं और उनकी राय में गरिमा की परिभाषा क्या है?
श्री मोदी को और समूची भाजपा को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे मनुस्मृति में महिलाओं के लिए बताए गए नियमों के हिमायती हैं या संविधान में वर्णित बराबरी के अधिकार के पक्षधर हैं।
भाजपा के लिए स्पष्टीकरण का यह माकूल वक्त है, क्योंकि महाराष्ट्र की भाजपा इकाई के अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले पर एक अभद्र टिप्पणी की है।
दरअसल मध्यप्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनावों में ओबीसी को आरक्षण देने की उच्चतम न्यायालय की मंजूरी पर सुप्रिया सुले ने एक बैठक में कहा कि उन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की दिल्ली यात्रा के दौरान उनसे संपर्क किया था, लेकिन उन्होंने यह जानकारी नहीं दी कि आरक्षण के लिए मंजूरी हासिल करने के लिए उन्होंने क्या किया। इस पर भाजपा अध्यक्ष ने टिप्पणी की कि 'आप राजनीति में क्यों हैं, घर जाकर बस खाना बनाइए। दिल्ली जाइए या कब्रिस्तान में, लेकिन हमें ओबीसी आरक्षण दिला दें। लोकसभा सदस्य होने के बावजूद, आपको इसकी जानकारी कैसे नहीं है कि मुख्यमंत्री से मिलने का समय कैसे लिया जाता है।'
आपको बता दें कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थानीय निकायों में ओबीसी के लिए राजनीतिक आरक्षण पर रोक (Ban on political reservation for OBCs in local bodies) लगाने के बाद पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र की राजनीति तेज हो गई है। भाजपा ने अदालतों में ओबीसी आरक्षण की लड़ाई हारने के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया है, वहीं सत्तारूढ़ महाविकास अघाडी ने केंद्र पर आंकड़े उपलब्ध नहीं कराने का आरोप लगाया है।
ओबीसी आरक्षण पर उठा यह विवाद घूम फिर कर महिला विरोधी टिप्पणी तक जा पहुंचा, क्योंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में बहुत से राजनेता अब भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि कोई महिला उनकी बराबरी पर आकर राजनीति में हिस्सा ले। महिलाओं को दोयम दर्जे का समझने की यह मानसिकता ही इस तरह की टिप्पणियों को जन्म देती है।
श्री पाटिल चाहते तो सुप्रिया सुले के लिए किसी और तरह की विरोधात्मक टिप्पणी कर सकते थे, जिसमें लैंगिक भेदभाव की बात नहीं आती। मगर उनके दिल-दिमाग में यह बात कहीं न कहीं दर्ज है कि महिलाओं का काम घर संभालना, खाना बनाना, बच्चे पालना ही है। उन्हें भी यह बात खटकती होगी कि एक स्त्री चूल्हे-चौके से परे जाकर भी अपना जीवन कैसे जी रही है।
जब सुप्रिया सुले जैसी कद्दावर महिला, जिनके साथ परिवार का राजनैतिक रसूख भी जुड़ा है, उनके लिए ऐसी ओछी टिप्पणी हो सकती है, तो कल्पना की जा सकती है कि एक आम महिला के लिए भाजपा नेता किस तरह के विचार रखते होंगे।
सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले ट्वीट
वैसे सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले (Sadanand Bhalchandra Sule) ने इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना करने के साथ अपनी पत्नी का पक्ष लिया है। उन्होंने ट्वीट (Supriya Sule's husband Sadanand Sule tweet) किया, 'यह महाराष्ट्र बीजेपी अध्यक्ष सुप्रिया के बारे में बोल रहे हैं। मैंने हमेशा यह कहा है कि वे (भाजपा) महिला द्वेषी हैं और जब भी संभव हो महिलाओं को नीचा दिखाते हैं।' 'मुझे अपनी पत्नी पर गर्व है जो एक गृहिणी, मां और एक सफल राजनीतिज्ञ हैं, जो भारत में कई अन्य मेहनती और प्रतिभाशाली महिलाओं में से एक हैं। यह सभी महिलाओं का अपमान है।'
एनसीपी की महिला शाखा ने भी भाजपा अध्यक्ष की इस टिप्पणी का विरोध किया है। मगर इस विरोध को राजनैतिक दलों की सीमाओं से परे जाने की जरूरत है। एक महिला को, एक नागरिक की तरह देखने और समझने की जरूरत है, फिर वह चाहे किसी भी पार्टी, जाति, धर्म या आर्थिक स्थिति की हो।
श्री पाटिल की बात जितनी सुप्रिया सुले के परिजनों या एनसीपी के लोगों को चुभी, उतनी ही नागवार यह बाकी दलों की महिलाओं को भी होनी चाहिए, क्योंकि यहां सभी के राजनैतिक अधिकारों को चुनौती दी गई है।
आठ सालों में मोदी सरकार ने बहुमत होते हुए भी संसद में महिला आरक्षण के लिए कानून नहीं बनाया, न ही बाकी दो सालों में ऐसा कोई कमाल होने की संभावना है। इसलिए बेहतर यही है कि महिलाएं अपने हक के लिए खुद उठें और दैवीय दर्जे की जगह सामान्य इंसान की गरिमा की मांग अपने लिए करें।
आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार.