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लॉकडाउन में किताबें : क्या कबाब शाकाहारी भी होते हैं? जीवन के सरल सवालों से सब परेशान हैं

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hastakshep
15 Apr 2020
गांधी जी को पसंद थी डबल रोटी

कविताएं जीवन जीने का और मुश्किलों से लड़ने का सलीका सिखाती हैं

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नई दिल्ली, 15 अप्रैल 2020. घरबंदी की मियाद (Lockdown period) एक बार फिर बढ़ गई है। यह धैर्य, उम्मीद और एक-दूसरे का साथ देने का समय है। #StayAtHomeWithRajkamal के तहत फेसबुक लाइव के जरिए लॉकडाउन में किताबों, लेखकों और कलाकारों को घर बैठे लोगों जोड़ने की सकारात्मक पहल में राजकमल प्रकाशन समूह लगातार सक्रिय है। इस कड़ी में बुधवार का दिन पुरानी यादों को ताज़ा करने और देश के मजदूर वर्ग की व्यथा को गीतों के जरिए अपनी प्रार्थना में याद करने का था।

कश्मीरियत एक साझी विरासत है जो हमें पुरखों से मिली है | Kashmiriyat is a common heritage that we have inherited from ancestors

राजकमल प्रकाशन समूह के लाइव कार्यक्रम में बात करते हुए साहित्यकार चंद्रकान्ता ने लाइव बातचीत में कश्मीर के अपने घर की यादों को लोगों से साझा किया। उनके उपन्यास ‘एलान गली ज़िन्दा है’ और ‘कथा सतीसर’ कश्मीर पर आधारित उपन्यास हैं।

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उन्होंने लाइव बातचीत में बात करते हुए, कश्मीर के इतिहास और वर्तमान पर विस्तृत चर्चा की।

कश्मीरी पंडितों व वहाँ के मुसलमानों के दुख पर उन्होंने बात करते हुए कहा कि,

“कश्मीरियत एक साझी विरासत है जो हमें पुरखों से मिली है। शैव, बुद्ध और इस्लाम का मिला जुला रूप है ये। हमारे यहाँ सूफ़ी पीर और शैव भक्त एक साथ कश्मीर को प्यार करते हुए दिखते थे। कश्मीर को समझने के लिए कश्मीर के लोगों के दुख को समझना होगा। उनकी यातनाओं को समझना होगा। अगर, लिखने वाले ये नहीं समझते तो उन्हें कश्मीर पर नहीं लिखना चाहिए।“

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उन्होंने कहा कि, “मैं चाहूंगी कि हमारे बच्चे कश्मीर वापस जाएं वो अपनी नज़र से कश्मीर को देखें। उसे नए सिरे से बसाएं।“

लाइव कार्यक्रम में चन्द्रकान्ता ने ’अपने-अपने कोणार्क’ का सुंदर पाठ भी किया।

पाठकों के लिए डिजिटल माध्यम से किताबें (Books through digital) एवं उसपर चर्चा का सिलसिल लगातार जारी रखने के प्रयास में आज रवीश कुमार ने अकबर से पाठ किया।

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पाठक रवीश की आवाज़ में शाज़ी ज़मा के उपन्यास ‘अक़बर’ से एक छोटा अंश राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक पेज पर सुन सकते हैं।

कविताएं जीवन जीने का और मुश्किलों से लड़ने का सलीका सिखाती हैं

गर्मी की शांत दोपहरी। लॉकडाउन में घर का कॉलबेल भी नहीं बजता। रोज़ कानों में गूंजने वाली आवाज़े जैसे, फल या सब्ज़ी बेचने आए फेरी वाले की आवाज़ या घरों में काम करने वाले सहायकों की आवाज़, इसके लिए लोग तरस रहे हैं। पर, इसी समय इस महामारी की वजह से उन्हें होने वाली परेशानियों से दुखी भी हो रहे हैं। आज की दोपहर इन्हीं लोगों की आवाज़ को भोजपुरी गीतों के रास्ते हमारे घर लेकर आए कवि और आलोचक मृत्युंजय।

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राजकमल प्रकाशन समूह के फेसबुक लाइव में मृत्युंजय ने भोजपुरी-हिन्दी के कई कवियों की कविताएं बहुत सुंदर स्वर में गाकर कर सुनाईं। गोरख पाण्डेय, रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’, बंसी, अवधेश प्रधान, प्रकाश उदय की कविताएं जीवन के सहज धारा की कविताएं हैं।

मृत्युंजय ने कहा,

“आगे आने वाला समय अर्थव्यव्स्था के हिसाब से बहुत मुश्किल समय होने वाला है। जब मुश्किलें बढ़ती हैं तो सबसे निचले तबके के लोगों को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। ऐसे समय में कविताएं जीवन जीने का और मुश्किलों से लड़ने का सलीका सिखाती हैं। कविताएं निराशा में भी सामर्थ्य देती हैं। वो हमें लंबी दूरी तक देखने की कुव्वत देती हैं।“

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लोक में बसी ये कविताएं उम्मीद और धैर्य की बात करती हैं। ये कविताएं कहती हैं कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। लोक संस्कृति की ज़मीं पर रची-बसी ये कविताएं जीवन की सरलता से हमारा परिचय करवाती हैं। इंसान की फितरतों पर बात करती गोरख पाण्डेय की कविता कहती है कि बदलाव धीरे-धीरे आता है।

गीतों के साथ अपनी बात रखते हुए मृत्युंजय ने कहा,

“भोजपुरी परंपरा में महिलाओं की आवाज़ सबसे ताकतवर आवाज़ थी। भोजपुरी समाज के भीतर भी दो आवाज़ें हैं। एक दमन की आवाज़ और दूसरी संघर्ष की आवाज़। जाहिर है कि हम संघर्ष की आवाज़ के साथ खड़े हैं।“

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Prakash Udai's poems erase the distance between God and the general public.

राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कवि प्रकाश उदय की कविताओं के संबंध में बात करते हुए उन्होंने कहा, “प्रकाश उदय की कविताएं भगवान और आम जनता के बीच की दूरी को मिटा देती हैं। आम लोगों की परेशानियां ही भगवान की भी परेशानियां हैं। यहाँ, भगवान को भी इंसानों की तरह ठंड लगती है, वो परेशान हैं कि सावन आ रहा है और लोग पानी डाल-डाल कर उन्हें परेशान कर देंगे। उन्हें भी अपने बेटे –गणेश और कार्तिक की चिंता है। यह साधारणीकरण ही जीवन की सरलता है। जो किसी भी तरह के भेदभाव को नहीं मानती। यहाँ सब समान हैं। जीवन के सरल सवालों से सब परेशान हैं।“

क्या कबाब शाकाहारी भी होते हैं?

घरबंदी में पुरानी बातें ज्यादा याद आती हैं। रोज़ के कई सवालों में सबसे जरूरी सवाल होता है-आज क्या बनेगा? इसका सीधा और सरल जवाब लेकर रोज़ ग्यारह बजे राजकमल प्रकाशन के फेसबुक पेज पर लाइव आते हैं पुष्पेश पंत अपने ख़ास ‘स्वाद-सुख’ कार्यक्रम में। कल की बात भी जहाँ मांसाहारी कबाबों की सुगंधित और स्वादिष्ट दुनिया पर केन्द्रित थी तो आज कबाब के शाकाहारी पहलूओं पर लंबी बातचीत ने बता दिया कि खाना बनाना और खाना दोनों ही जीवन की मूलभूत जरूरत के साथ एक उच्च कला का भी प्रतीक है।

कैसे, समय-समय पर बनाने वालों ने और खाने वालों ने नए प्रयोग के साथ हरी भरी सब्ज़ियों को ज़ायकेदार व्यंजन में बदल दिया।

‘स्वाद-सुख’ कार्यक्रम में पुष्पेश पंत ने बताया कि,

“शाकाहारी कबाबों में कटहल के कबाब ने सबसे पहले एंट्री की थी। कटहल के टुकडे में बोटी जैसा रेशा होता है। जिससे इसे कबाब जैसा रूप और स्वाद मिलता है। इसके साथ कच्चे केले के कबाब को टिकिया समझकर लोग बड़े चाव से खाते हैं।“

सवाल यह है कि क्या टिकिया को कबाब कहा जा सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए पुष्पेश पंत ने कहा,

“अक्सर यह दुविधा होती है कि इसे टिकिया कहें या कबाब। तो अगर, शाब्दिक अर्थ में न जाएं तो टिकिया और कबाब में अंतर सिर्फ़ मसालों का है।“

शाकाहारी कबाबों में तीसरा कबाब है हरा-भरा कबाब जो आज भी बहुत प्रचलित है। किसी भी दावत में इससे छुटकारा पाना मुश्किल है। पुष्पेश पंत ने लाइव कार्यक्रम में बताया,

“पहले ये कबाब बड़ा सीधा-सादा बच्चा था जिसमें पालक, पुदीना या हरा चना शामिल होता है, लेकिन पाक कला का प्रदर्शन करने वालों ने इसमें पनीर, किसमिस और अन्य तरह की चीजें डालकर इसका रूप परिवर्तित कर दिया।“

स्वाद-सुख की गलियों में घूमते हुए उन्होंने अपने मित्र का जिक़्र किया जिन्होंने, ‘कुलथी की दाल जिसमें थोड़ा सा बिच्छू बूटी मिलाकर कबाब बनाया था जिसमें कुछ तो हरे कबाब औऱ कुछ दाल कबाब का स्वाद समाहित था।“

हाल फिलहाल में एक और कबाब मशहूर हो रहा है वो है भुट्टे का कबाब। स्वाद-सुख का यह कार्यक्रम ज़ायकों की मसालेदार दुनिया से रोज़ कुछ नया लेकर आता है। नितांत एकांत में स्वाद भरने।

लॉकडाउन में पाठक पढ़ रहें हैं ये किताबें-

डिजिटल दुनिया में जहाँ दृश्य और आवाज़ लोगों को जोड़ रहे हैं वहीं ई-बुक ने पढ़ने की आदत को नए ढंग से विकसित किया है। राजकमल प्रकाशन समूह की सीनियर पब्लिसिस्ट सुमन परमार ने बताया कि राजकमल प्रकाशन समूह की 10 किताबें जो आजकल सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही हैं - रश्मिरथी <रामधारी सिंह दिनकर>/ तरकश <जावेद अख्तर> / मेरे बाद <राहत इंदौरी> / साये में धूप < दुष्यन्त कुमार> / लावा <जावेद अख्तर> / हुंकार <रामधारी सिंह दिनकर> / कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया <पीयूष मिश्रा> / पाज़ी नज़्में <गुलज़ार>/ फिर मेरी याद <कुमार विश्वास> / उर्वशी <रामधारी सिंह दिनकर>

उन्होंने बताया कि राजकमल प्रकाशन लगातार यह कोशिश कर रहा है कि पाठकों के लिए ज्यादा से ज्यादा किताबें ऑनलाइन आसानी से उपलब्ध हो सके। हर रोज के कार्यक्रमों की सूची एक दिन पहले राजकमल प्रकाशन के फेसबुक, ट्वीटर व इंस्टाग्राम पेज पर जारी होती है।

राजकमल प्रकाशन समूह के फेसबुक पेज पर पूरे दिन चलने वाले साहित्यिक कार्यक्रम में लगातार लेखक एवं साहित्यप्रेमी लाइव आकर भिन्न तरह की बातचीत के साथ एकांतवाश के अकेलेपन को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।

राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव कार्यक्रम में अब तक शामिल हुए लेखक हैं - विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, हृषीकेश सुलभ, शिवमूर्ति, चन्द्रकान्ता, गीतांजलि श्री, वंदना राग, सविता सिंह, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मृदुला गर्ग, मृणाल पाण्डे, ज्ञान चतुर्वेदी, मैत्रेयी पुष्पा, उषा उथुप, ज़ावेद अख्तर, अनामिका, नमिता गोखले, अश्विनी कुमार पंकज, अशोक कुमार पांडेय, पुष्पेश पंत, प्रभात रंजन, राकेश तिवारी, कृष्ण कल्पित, सुजाता, प्रियदर्शन, यतीन्द्र मिश्र, अल्पना मिश्र, गिरीन्द्रनाथ झा, विनीत कुमार, हिमांशु बाजपेयी, अनुराधा बेनीवाल, सुधांशु फिरदौस, व्योमेश शुक्ल, अरूण देव, प्रत्यक्षा, त्रिलोकनाथ पांडेय, आकांक्षा पारे, आलोक श्रीवास्तव, विनय कुमार, दिलीप पांडे, अदनान कफ़ील दरवेश, गौरव सोलंकी, कैलाश वानखेड़े, अनघ शर्मा, नवीन चौधरी, सोपान जोशी, अभिषेक शुक्ला, रामकुमार सिंह, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी, तरूण भटनागर, उमेश पंत, निशान्त जैन, स्वानंद किरकिरे, सौरभ शुक्ला, प्रकृति करगेती, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पुष्पेश पंत, मालचंद तिवाड़ी, बद्रीनारायण, मृत्युंजय

राजकमल फेसबुक पेज से लाइव हुए कुछ ख़ास हिंदी साहित्य-प्रेमी : चिन्मयी त्रिपाठी (गायक), हरप्रीत सिंह (गायक), राजेंद्र धोड़पकर (कार्टूनिस्ट एवं पत्रकार), राजेश जोशी (पत्रकार), दारैन शाहिदी (दास्तानगो), अविनाश दास (फ़िल्म निर्देशक), रविकांत (इतिहासकार, सीएसडीएस), हिमांशु पंड्या (आलोचक/क्रिटिक), आनन्द प्रधान (मीडिया विशेषज्ञ), शिराज़ हुसैन (चित्रकार, पोस्टर आर्टिस्ट), हैदर रिज़वी, अंकिता आनंद, प्रेम मोदी, सुरेंद्र राजन, वाणी त्रिपाठी टीकू, राजशेखर।

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