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चुनौती को अपने लिए राजनीतिक फायदे के अवसर में और खासतौर पर चुनावी फायदे अवसर में बदलने की कला के बहुत बड़े उस्ताद हैं- नरेंद्र मोदी।
वह न तो इसका कोई भी मौका चूकते हैं और न ऐसे मौके का फायदा उठाने में किसी संकोच या झिझक को आड़े आने देते हैं। उल्टे दीदादिलेरी तो उनकी इस कला का एक महत्वपूर्ण घटक है। पुलवामा और उससे भी बढ़कर बालाकोट को उन्होंने जिस तरह से 2019 के आम चुनाव में हाथ से फिसलती जीत को, 2014 से भी बड़ी जीत में बदलने के अवसर में बदला था, उसके बाद भी उनकी इस कला की उस्तादी के किसी और साक्ष्य की जरूरत रही हो, तो वह भी हाजिर है।
यह ताजा साक्ष्य है, नरेंद्र मोदी का लद्दाख में 15 जून को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुई खूनी फौजी झड़प से पैदा हुए भारत-चीन तनाव के संकट को, बिहार के चुनाव में अपने एनडीए गठजोड़ के लिए, उन्मत्त-राष्ट्रवादी छवि के लाभ में बदलने की कोशिश में जुट जाना।
बेशक, इसे संयोग ही कहा जाएगा कि गलवान में चीनी सैनिकों के साथ हुई ताजातरीन हिंसक झड़प में बिहार रेजीमेंट के एक कमांडिंग अफसर समेत 20 जवान मारे गए हैं। लेकिन, जिस तरह से इस मामले में बार-बार ‘बिहार रेजीमेंट’ नाम पर जोर दिया जाता रहा है, उसका अर्थ भी किसी से छुपा हुआ नहीं रहा है। बेशक, इस मामले में इस आम भ्रांति को दुहने में भी कोई संकोच नहीं किया गया कि बिहार रेजीमेंट और बिहारी रेजीमेंट में कोई अंतर नहीं है!
बहरहाल, अपनी ओर से किसी दुविधा की कसर नहीं छोड़ते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने गलवान की खूनी झड़प के पांचवे दिन ही अपना ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ शुरू करते हुए, अपने भाषण की शुरूआत बिहारियों के शौर्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने से तो की ही, गलवान में भारतीय सैनिकों की बहादुरी को, बिहारी सैनिकों की बहादुरी में घटा देने में भी संकोच नहीं किया। यह इसके बावजूद था कि कमांडिंग अफसर समेत शहादत पाने वाले बीस में से कम से कम पंद्रह जवान, बिहार से नहीं थे।
यहां से गलवान प्रकरण को बिहारी शौर्य गाथा बनाने के लिए सिर्फ एक नन्हें से कदम की ही जरूरत थी। यह दूरी, मोदी राज में सरकारी दूरदर्शन/ आकाशवाणी से भी ज्यादा सरकारी कृपाप्राप्त समाचार एजेंसी, एएनआइ ने उसी रोज गलवान में झगड़े की जगह की एक तस्वीर इस आशय के कैप्शन के साथ जारी कर के कर दी कि ‘बिहारियों की वीरता ने गलवान में चीनी पोस्ट हटा दी!’
कहने की जरूरत नहीं है कि क्षुद्र चुनावी लाभ के लिए, भारतीय सेना को ‘बिहारी सेना’ बनाने का यह खेल, उसी प्रकरण में आंध्र के कमांडिंग अफसर समेत, शेष भारत के सैनिकों के बलिदान को छुपाने का काम भी करता है।
बेशक, गरीब कल्याण रोजगार अभियान का बिहार में समस्तीपुर से लांच किया जाना, मोदी के अपने लिए एक और बड़ी चुनौती को, राजनीतिक/ चुनावी लाभ के अवसर में बदलने की ही गवाही दे रहा था। यह चुनौती है, अपने घर-गांव लौटे प्रवासी मजदूरों की। मोदी सरकार के अचानक तथा बिना किसी तैयारी के लगाए गए लॉकडाउन में, आम तौर पर मजदूरों पर तथा खासतौर पर प्रवासी मजदूरों पर जो गुजरी है और ये मजदूर जिस तरह की मुश्किलों तथा संघर्ष से गुजरकर अपने घरों तक पहुंचे हैं, वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। बिहार में, जहां ऐसे घर-गांव लौटे मजदूरों का अनुपात दूसरे ज्यादातर राज्यों से ज्यादा है, इस परिघटना का चंद महीनों में होने जा रहे चुनाव पर किस तरह का असर पड़ सकता है, इसका अनुमान लगाना भी बहुत मुश्किल नहीं है। वास्तव में, बिहार की जदयू-भाजपा सरकार, प्रवासी मजदूरों की घर वापसी में आखिर-आखिर तक जिस तरह से अड़ंगे लगाती रही थी, उसे देखते हुए यह प्रभाव और भी ज्यादा ही हो सकता है।
बहरहाल, अब प्रधानमंत्री मोदी, गरीब कल्याण रोजगार अभियान के जरिए, इस चुनौती को भी चुनावी लाभ के अवसर में बदलने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए, न सिर्फ इस योजना के समस्तीपुर से लॉच किए जाने में कुछ भी संयोग नहीं है, इसमें भी कोई अचरज की बात नहीं है कि 50,000 करोड़ रु0 के खर्च का प्रस्ताव करने वाली इस योजना के लिए, जिन 116 जिलों को चुना गया है, उनमें से सबसे ज्यादा, 32 जिले बिहार के ही हैं। वास्तव में यह संख्या, आबादी में बिहार से ढाई गुने उत्तर प्रदेश से भी, कुछ न कुछ ज्यादा ही है। इस योजना के मिशन मोड में रखे जाने का भी एक ही अर्थ है कि कम से कम चुनाव तक, इस योजना के तहत वास्तव में बिहार के अधिकांश जिलों तक कुछ न कुछ अतिरिक्त पैसा पहुंच रहा होगा। यह इसके बावजूद है कि जैसाकि मोदी सरकार में कायदा ही बन गया है, इस योजना में भी नयी पैकेजिंग का तत्व ही ज्यादा है, नयी योजना का कम। जैसाकि खुद वित्त मंत्री के इस योजना के खुलासे से साफ है, रोजगार से संबंधित पूरी 25 पहले से मौजूद योजनाओं को, इस योजना में मिला दिया गया है। यानी वास्तव में नया या अतिरिक्त खर्च, 50 हजार करोड़ रु0 से काफी कम ही रहने जा रहा है। इस योजना का जमीनी असर चाहे बहुत ज्यादा नहीं हो, फिर भी प्रधानमंत्री ने अपनी तरफ से तो बिहार के पिछले चुनाव की ही तरह, ‘कितने कर दूं’ की बोली शुरू कर ही दी है।
बेशक, गरीब कल्याण रोजगार अभियान की कल्पना, गलवान की झड़प से कम से कम हफ्ता-दस दिन पहले तो की ही गयी होगी। यानी यह योजना मूल रूप से बनायी तो गयी थी प्रवासी मजदूरों के संकट की चुनौती को, बिहार में विधानसभा चुनाव तथा मध्य प्रदेश में अति-महत्वपूर्ण उपचुनावों समेत, राजनीतिक/ चुनावी लाभ के अवसर में बदलने के लिए। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी कुशलता से इसके साथ, चीन के साथ सीमा पर तनाव के संकट को, बिहारियों को चुनाव की पूर्व-संध्या में अपनी राष्ट्रवादी मुद्राओं से लुभाने के अवसर में बदलने का, अपना दांव भी जोड़ दिया। बेशक, यही तो इस कला में मोदी जी की उस्तादी है। वह न कभी अपनी ओर आने वाली हरेक चुनौती में छिपे अवसर का लाभ उठाने में चूकते हैं और न नया अवसर सामने देखकर, वह चाहे जितना ही फलप्रद नजर क्यों नहीं आए, पहले वाले अवसर का दोहन करना छोड़ते हैं। उन्हें अलग-अलग अवसरों को, एक साथ दुहने में या अपने लिए राजनीतिक-चुनावी लाभ के अवसर में बदलने में महारत हासिल है।
लेकिन, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि चीन के साथ सीमा पर तनाव जैसी चुनौतियों को, राजनीतिक/ चुनावी लाभ के अवसर में बदलना, नरेंद्र मोदी के लिए भी बहुत आसान है।
सीमा तनाव के मौजूदा चक्र को ही ले लीजिए। इसके संबंध में तो सिर्फ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं कि जब मई के आरंभ से लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर रस्साकशी की खबरें आनी शुरू हो चुकी थीं और बातचीत के सामान्य सैन्य चैनलों से गतिरोध में कोई प्रगति होती नजर नहीं आ रही थी, भारत की ओर से जो कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी पक्ष द्वारा यथास्थिति बदलने की कोशिशें किए जाने की शिकायत कर रहा था, विदेश मंत्रालय या शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व जैसे उच्चतर स्तरों से हस्तक्षेप कर, उच्चतर चीनी समकक्षों से गतिरोध दूर करने का आग्रह क्यों नहीं किया गया?
सभी जानते हैं कि जमीनी स्तर पर सैन्य बलों के नेता, समाधान के लिए वस्तुस्थिति में किसी भी बदलाव को स्वीकार करने के प्रति ज्यादा अनिच्छुक होते हैं। उच्चतर नेतृत्व से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह वृहत्तर हितों व लक्ष्यों को ध्यान में रखकर, समाधान के लिए आवश्यक बदलावों की जरूरत पहचानेगा। लेकिन, ऐसी कोई पहल करने के बजाए, मोदी सरकार तो तब तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कोई समस्या ही होने से इंकार करती रही, जब तक कि विवाद तथा झगड़े ने हिंसक विस्फोट का रूप नहीं ले लिया।
कहना मुश्किल है कि क्या इस चुप्पी के पीछे यह समझ थी, जिसे आरएसएस से प्रभावित वैचारिक हलकों में पिछले कुछ समय से खासतौर पर प्रचारित किया जाता रहा है चीन, जिसकी कोरोना वाइरस से लेकर निर्यातों तक, विभिन्न पहलुओं से अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम के निशाने बना रहने के कारण कमजोर स्थिति पहले से कमजोर हो गयी है, भारत की ज्यादा नाराजगी मोल नहीं लेना चाहेगा और गतिरोध से पीछे हट जाएगा? या कहीं इसके पीछे, अमरीका तथा पश्चिम के साथ चीन के वर्तमान तनाव को, भारत के और घनिष्ठता से अमरीकी-पश्चिमी आलिंगन में कस जाने का अवसर बनाने की इच्छा तो नहीं थी, जिसकी मांगें 15 जून के हिंसक टकराव के बाद से स्वाभाविक रूप से बहुत तेज हो गयी हैं।
इस सिलसिले में एक बात गौरतलब है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर झड़प से महीनों पहले से, कोरोना से लेकर चीनी निर्यातों तक को लेकर, चीन-विरोधी अभियान को काफी हवा दी जा रही थी।
और यह अभियान सिर्फ आरएसएस से जुड़े तथाकथित स्वदेशीवादी संगठनों तक ही सीमित नहीं था। स्वाभाविक रूप से इस संदर्भ में नरेंद्र मोदी के ‘‘आत्मनिर्भर भारत’’ मिशन के एलान का अनुवाद, चीन के खिलाफ आर्थिक पाबंदियों की बढ़ती मांगों में किया जा रहा था। सीमा झड़प ने इन मांगों को नयी ऊंचाई पर पहुंचाने और उनसे खुलेआम सरकार के निर्णयों के भी संचालित होने का रास्ता बनाने का ही काम किया है।
रातों-रात पहले सरकारी और अब निजी भी ई-मार्केटिंग प्लेटफार्मों के लिए उत्पाद के मूल स्थान का प्रदर्शित करने की शर्त लगाया जाना, औपचारिक रूप से न भी हो, पर खुलेआम ‘चीनी मालों के बहिष्कार’ की संघ परिवार तथा उससे जुड़े व्यापारी संगठनों की पुकारों से संचालित है।
यह भी चुनौती को अवसर में बदलने का ही मामला है क्योंकि इस बीच आत्मनिर्भरता की परिभाषा में पिछले दरवाजे से ‘भारत अनुकूल’ की शर्त घुसा दी गयी, जो संघ-भाजपा नियंत्रित शासन के व्यवहार में, अमरीका-पश्चिम अनुकूलता की ही मांग बन जाती है।
जाहिर है कि चीन के साथ सीमा तनाव ने इस एजेंडा को आगे बढ़ाने का एक बड़ा अवसर दे दिया है।
बहरहाल, कारण जो भी हो हिंसक झड़प के चार दिन बाद, विपक्षी नेताओं के साथ बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने यह दावा कर के सब को चौंका दिया था कि, ‘‘हमारी सीमा में न तो कोई घुसा है, न बैठा हुआ है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी के कब्जे में है!’’
अचरज की बात नहीं है कि खुद भारत में ही व्यापक स्तर पर इस पर सवाल उठे कि अगर कोई हमारी सीमा में घुसा ही नहीं था, तो वह हिंसक टकराव क्या शून्य में हुआ था, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए?
नरेंद्र मोदी के लिए इससे भी बदतर यह था कि चीनी मीडिया में भी उनकी इस टिप्पणी को इसके प्रमाण के तौर पर व्यापक रूप से प्रचारित किया जा रहा था कि कम से कम चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का कोई उल्लंघन नहीं किया था!
जाहिर है कि खासतौर पर सुरक्षा के मामलों में झूठी शेखी दिखाने के तकाजों से ही सबसे बढ़कर संचालित मोदी सरकार, सचाई को नकारते-नकारते, तर्क की सारी सीमाओं से ही परे चली गयी थी। तुरंत प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर विदेश मंत्रालय तक के स्पष्टीकरणों के जरिए, प्रधानमंत्री के दावे को नकारते हुए यह कबूल किया गया कि चीनी पक्ष द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर किए गए परिवर्तनों को रोकने-हटाने के प्रयास में हिंसा हुई थी। लेकिन, जैसा कि मोदी सरकार का नियम ही बन चुका है, इन स्पष्टीकरणों में यह साबित करने की भी कोशिश की गयी कि प्रधानमंत्री ने भी वास्तव में यही कहा था! उल्टे प्रधानमंत्री के कथन की ‘दुष्ट-व्याख्याओं’ के आरोप भी लगाए गए।
बहरहाल, तब तक छप्पन इंच की छाती के गुब्बारे की कुछ हवा तो निकल चुकी थी।
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बेशक, दोनों पक्षों के उच्च सैन्य कमांडरों की मोल्दो बैठक में बनी सहमति दोनों पक्षों के सीमा टकराव से पीछे हटने की जरूरत को यथार्थवादी तरीके से पहचाने जाने का भरोसा दिलाती है। इसके बावजूद, इस पूरे मामले को संघ-भाजपा की छद्म-राष्ट्रवादी छवि को चमकाने के अवसर में तब्दील करने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं और कम से कम बिहार के चुनाव तक तो जरूर ही जारी रहेंगी।
आखिरकार, कोरोना संकट में मोदी सरकार और बिहार की एनडीए सरकार की घोर विफलता (NDA government of Bihar's gross failure) से ध्यान हटाने के लिए इससे कारगर हथियार और क्या होगा? बेशक, इसी खेल का हिस्सा था कि सीमा समस्या पर सर्वदलीय बैठक में, एनडीए की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी, राजद को इसके बावजूद नहीं बुलाया गया कि पिछले विधानसभा चुनाव में बिहार में सबसे ज्यादा मत फीसद उसी पार्टी का आया था। राजेंद्र शर्मा