मनुज सभ्यता दहल उठी मां सुनकर के यह चीत्कार।
सुनो कालिके अपने बच्चों की अब यह करुण पुकार।।
चीनी वृत्तासुर कोरोना रक्तबीज रूप ले फिर आया है।
मनुभूमि पर चहुंदिश हे मां काल का ही साया छाया है।।
सिंदूर मिटे, गोदें हुईं सूनी, सर के साए उजड़े फिरते हैं।
अब बुढ़पन की लाठी को कंधा खुद बूढ़े देते दिखते हैं।।
तपती शमशानें, रोती गंगा, छाती फटते यह कब्रिस्तान।
हे मां ! करो अब शांत तबाही दया का देकर के वरदान।।
चीनी धरती पर सात रोज़ में अस्पताल बन सकते हैं।
हम भारतवासी डेढ़ साल में बचाव नहीं कर सकते हैं।।
हमको तो विश्वगुरु बनना है, संविधान सुदृढ़ करना है।
इतिहास-भूगोल, धर्म-जाति रथ पर शासन करना है।।
लचर व्यवस्था-अंधे शासक हो गए जनता की लाचारी।
ऑक्सीजन, वैक्सीन, दवा पर होती है कालाबाजारी।।
ईर्ष्या, स्वार्थ, धन लोलुपता में मनुज दनुज हो जाएंगे।
संस्कार नहीं जब दशरथ से तो श्रीराम कहां से आयेंगे।।
बहुत हुईं मन की बातें अब होंगी सब अमल में लानी।
कर्म-चुनाव, धर्म-कुंभ, ध्येय-शासन दे आत्मग्लानि।।
रामराज्य का स्वप्न नहीं मां अब हमको खुशहाली दो।
हे काली ! होकर प्रसन्न अब देश से यह बाधा हर लो।।
डॉ अनुज कुमार

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