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5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम-मंदिर के भूमि-पूजन की घटना बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की राजनीतिक-सामाजिक स्वीकृति पर मुहर कही जा सकती है. इस घटना पर संविधान और भारतीय गणतंत्र के हवाले से जितने लेख/ न्यूज़-स्टोरी/ सम्पादकीय/ पार्टी-विज्ञप्तियां/ टिप्पणियां आदि देखने में आए, उनमें एक बात समान रूप से मिलती है. वह यह कि किसी भी बुद्धिजीवी अथवा नेता ने भारतीय राजनीति (पोलिटी) और समाज की इस चिंताजनक परिघटना के लिए करीब तीन दशक के कारपोरेट पूंजीवाद की गौण भूमिका भी स्वीकार नहीं की है. वे मानते प्रतीत होते हैं कि सांप्रदायिकता की लगभग सर्वग्रासी पैठ 'नए भारत' की आर्थिक नीतियों और विकास के मॉडल से असम्पृक्त है और आगे भी ऐसा ही रहेगा.

धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने 5 अगस्त की घटना को ठीक ही धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र का ध्वंस कहा है. उनमें से किसी ने तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हुए आरएसएस/भाजपा को कोसा है; किसी ने इंग्लिश इलीट को दोष दिया है; किसी ने कांग्रेस समेत धर्मनिरपेक्षतावादी पार्टियां को दोषी बताया है; किसी ने हिंदी पट्टी की साम्प्रदायिक जनता के मत्थे ठीकरा फोड़ा है; किसी ने मध्यवर्गीय भारत को कटघरे में खड़ा किया है, जहां परिवारों में सांप्रदायिकता फूली-फली है. लेकिन इनमें किसी ने अपने विश्लेषण में परोक्ष रूप से भी नवउदारवादी नीतियों की भूमिका का जिक्र नहीं किया है. कुछ भले लोगों ने माना है कि प्रधानमंत्री के हाथों मंदिर का  भूमि-पूजन संपन्न होने के बाद एक पुराना विवाद ख़त्म हुआ. अब विवाद पर मिट्टी डाल कर देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने का काम तेजी से आगे बढ़ाना चाहिए. ऐसे लोगों ने नवउदारवादी नीतियों के तहत ही देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने की वकालत की है.

यह कहने वालों ने कि प्रधानमंत्री ने भूमि-पूजन के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होकर संविधान के प्रति ली गई शपथ का उल्लंघन किया है, यह कतई ध्यान नहीं दिलाया कि अंधाधुंध निगमीकरण/निजीकरण भी संविधान के प्रति ली गई शपथ का उल्लंघन है. कांग्रेस के कतिपय संजीदा नेताओं ने साथी-कांग्रेसियों द्वारा 5 अगस्त को ऐतिहासिक दिन बताने और उस दिन को लाने में कांग्रेस की पहल और भूमिका याद दिलाने की आलोचना की है. ऐसा करते वक्त उन्होंने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष धरोहर का वास्ता तो दिया है, लेकिन उस धरोहर से कांग्रेस के विचलन के कारणों पर कोई रोशनी नहीं डाली है. कांग्रेस के संजीदा नेता ही यह कहते तो बेहतर होता कि 1991 में, जब नई आर्थिक नीतियां थोपी गई थीं, भारतीय गणतंत्र का वैसा ही ध्वंस हुआ था.

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यह परिदृश्य साफ़ तौर पर दर्शाता है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी और नेता पिछले तीन दशक के नवउदारवादी अनुभव से कोई सीख लेने को तैयार नहीं हैं, जिस दौरान बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का उभार उत्तरोत्तर मजबूत होता गया है. 5 अगस्त की भूमि-पूजन की घटना मौजूदा आक्रामक बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की ही एक परिणति है.

साम्प्रदायिक राजनीति के रास्ते का यह पड़ाव कारपोरेट-परस्त नीतियों के चलते आया है, इसे समझने के लिए बहुत ब्यौरों में जाने की जरूरत नहीं है. एक उदाहरण से ही सच्चाई समझी जा सकती है - नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गुजरात में हिंदुत्व और कारपोरेट की संयुक्त प्रयोगशाला कायम की गई थी. अब पूरा  देश वैसी प्रयोगशाला बन रहा है. यह अकारण नहीं है कि कमंडलवादी राजनीति की काट बताई जाने वाली मंडलवादी राजनीति आरएसएस/भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद के सामने नतमस्तक है. अति पिछड़े प्रधानमंत्री और दलित राष्ट्रपति के होते, पहले प्राय: शहरों तक सीमित रहने वाली साम्प्रदायिकता देश के गांव-गांव तक पहुच गई है. ऐसे में लगता यही है कि 5 अगस्त की घटना पूर्णाहुति नहीं है.

ज़ाहिर है, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी और नेता इस विश्वास से परिचालित हैं कि निगमीकरण/निजीकरण की नीतियों के साथ संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता बनाए रखी जा सकती है. नवउदारवाद के समर्थक बुद्धिजीवी तो शुरू से ही यह मानते हैं, लेकिन समाजवादी/ सामाजिक न्यायवादी बुद्धिजीवियों का पतनाला भी घुमा-फिर कर वहीँ गिरता है. फर्क इतना है कि नवउदारवाद के सीधे समर्थक बुद्धिजीवी यह जताते हैं कि उनका  अभिजात मन एक साफ़-सुथरा नया भारत चाहता है. उसमें साम्प्रदायिक तत्वों का हुड़दंग उन्हें पसंद नहीं है. जबकि समाजवादी/सामाजिक न्यायवादी बुद्धिजीवी अल्पसंख्यकों, ख़ास कर मुसलमानों और ईसाईयों के मन में यह भ्रम बनाए रखना चाहते हैं कि भारत निगमीकरण/निजीकरण की नीतियों के बावजूद धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बना रह सकता है. जरूरत धर्मनिरपेक्ष नेताओं को शऊर सीखने की है. इसीलिए उनका तर्क है कि 5 अगस्त को आरएसएस/भाजपा की जीत नहीं, धर्मनिरपेक्ष राजनीति की हार हुई है. इसका निहितार्थ है कि नए भारत, यानी समाजवाद/सामाजिक न्याय की संवैधानिक प्रतिबद्धता से रहित भारत में, धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने का शऊर नेताओं में नहीं है. अगर वे यह शऊर सीख लें तो आरएसएस/भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति वे नहीं चलने देंगे. उन्होंने ने आम आदमी पार्टी (आप) की स्थापना और उसकी 'क्रांतिकारी' राजनीति के रूप में शऊर की एक बानगी पेश भी की है.

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5 अगस्त की घटना पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया इस सच्चाई को एक बार फिर सामने ले आती है कि उनकी नज़र में निगमीकरण/ निजीकरण की नीतियां संविधान और भारतीय गणतंत्र, जिसे उद्देशिका में 'समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक' कहा गया है, के विरोध में नहीं हैं. उन्हें थोपने से संविधान का मूल ढांचा (बेसिक स्ट्रक्चर) नहीं बदला है. यह सब देख कर कहा जा सकता है कि भारत में संविधानवाद नाम का रह गया हैं.

डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria

दरअसल, संविधानवादियों को पिछले तीन दशकों में निगमीकरण/ निजीकरण के तहत बनने वाली दुनिया में विचरने की लत लग चुकी है. वे धर्मनिरपेक्षता के प्रतिनिधि प्रवक्ता के रूप में फोर्ड फाउंडेशन व अन्य विदेशी स्रोतों से धन लेते हैं, बड़ी रकम वाले इनाम-इकराम लेते हैं, विश्व समाज मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) से लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) जैसे आंदोलन चलाते हैं, नया भारत बनाने के लिए स्थापित किए जाने वाले सरकारी ज्ञान आयोग और सलाहकार समितियों के सदस्य बनते हैं, स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक की नियामक संस्थाओं को शिक्षा के नवउदारवादी अजेंडे के अनुकूल बनाने का काम करते हैं, नवउदारवादी नीतियों से तबाह होने वाले समूहों की दशा पर बतौर विशेषज्ञ रपट/किताब तैयार करते हैं, देश में तेजी से स्थापित हो रहे निजी विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर और वाईस चांसलर बनते हैं, अखबारों/ पत्रिकाओं/ चैनलों में लेख और वक्तव्य देते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि वे यह सब न करके नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई का आगाज़ भी कर सकते थे. लेकिन वह उन्हें जरूरी कर्म नहीं लगा.

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बहरहाल, उपनिवेशवादी दौर से चली आ रही साम्प्रदायिकता की जटिल समस्या नवउदारवादी दौर में और अधिक जटिल हुई है. बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के साथ अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकताओं का जटिल सवाल भी जुड़ा हुआ है. बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के इस कदर हावी होने से अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकताएं दबी नहीं रह सकतीं. खालिस्तान समर्थकों की खबरें देश और विदेश में लगातार आती रहती हैं. ऐसी खबरें भी आईं कि विदेश में रहने वाले खालिस्तान समर्थकों ने पंजाब की राजनीति में कांग्रेस और अकालियों का वर्चस्व तोड़ने के लिए आम आदमी पार्टी का समर्थन किया. अगर देश के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक-बौद्धिक नेतृत्व के बीच यह आम सहमती है कि निगमीकरण/ निजीकरण की नीतियों के साथ संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता बनाए रखी जा सकती है, तो उनकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे गंभीरता पूर्वक बताएं कि यह कैसे संभव होगा?

प्रेम सिंह

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)   

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