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Capital investment needs to be accelerated to tackle climate change
फ़िलहाल फिज़ाओं में दो सवाल ही तैर रहे हैं। पहला, आखिर जलवायु वित्त की किस हद तक जरूरत है? और दूसरा, कैसे कदम उठाने से जलवायु वित्त के रास्ते खुलेंगे जिससे भारत में तेज़ी से ऊर्जा संक्रमण (Rapid energy transition in India) को सहयोग मिले?
तो इन सवालों का जवाब है कि दुनिया को अगर मिलकर ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने में कामयाबी हासिल करनी है तो जलवायु वित्त के पैमाने को बढ़ाना होगा और उसके प्रवाह में तेजी लानी होगी।
जलवायु परिवर्तन व जलवायु वित्त का संबंध (The relationship between climate change and climate finance)
यह कहना गलत नहीं होगा कि जलवायु वित्त की झोली में एक सुरक्षित दुनिया की चाभी है। और यह बात आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में एक मुख्य निष्कर्ष के तौर पर भी शामिल है।
अच्छी बात यह है कि काफ़ी हद तक नीति निर्माता जाने हैं कि जलवायु वित्त का पैमाना बढ़ाना बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तंत्र में बड़े पैमाने पर बदलाव के लिये बड़े स्तर की फायनेंसिंग की जरूरत है। जीवाश्म ईंधन पर आधारित प्रणालियों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों में तब्दील करने का काम (Conversion of fossil fuel based systems to alternative energy sources) बहुत बड़े पैमाने पर सतत फायनेंस के बगैर मुमकिन नहीं है। इसके अलावा इलेक्ट्रिक वाहनों तथा कम उत्सर्जन वाले परिवहन को अपनाने, अपने शहरों का अलग तरह से निर्माण करने, हमारे खाद्य उत्पादन और भूमि उपयोग का सतत उपयोग करने, हमारी औद्योगिक प्रौद्योगिकियों को बदलने और हमारी वायु, जल, वन और महासागरों का बेहतर प्रबंधन किये बगैर भी यह सम्भव नहीं है।
आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में कई डेटा स्रोतों, मॉडलिंग परिदृश्यों और मार्गों को देखा गया है जो जलवायु, प्रौद्योगिकियों और सामाजिक और आर्थिक चालकों के संयुक्त प्रभावों को पकड़ते हैं। ऐसा इस बात को समझने के लिये किया गया कि अगर हम ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस या उससे कम स्तर (जैसा कि पैरिस समझौते के तहत सभी देशों ने सहमति जतायी है) तक सीमित रखना चाहते हैं तो उसके लिये जरूरी न्यूनतम वैश्विक निवेश का पैमाना कितना होगा।
रिपोर्ट का जवाब यह है कि वैश्विक सालाना जलवायु फायनेंस के प्रवाह (Global annual climate finance flows) को प्रतिवर्ष तीन से छह गुना, या फिर मौजूदा 700-750 बिलियन डॉलर से अभी बढ़ाकर 3-4 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा तक बढ़ाना होगा।
रिपोर्ट भारत जैसे विकासशील देशों में इस तरह की निवेश निधि की जरूरतों में सबसे बड़े (सापेक्ष) अंतराल की ओर इशारा करती है।
विकासशील देशों में जलवायु निवेश की जरूरतों का पैमाना क्या है?
विकासशील देशों में जलवायु निवेश आवश्यकताओं का पैमाना उनके सकल घरेलू उत्पाद का सालाना 4-9 प्रतिशत है, जबकि विकसित देशों में यह आधा है। भारत और अन्य विकासशील देशों को भी कई कारणों से विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में इस तरह के वित्त की बहुत अधिक लागत का सामना करना पड़ता है। वैश्विक पूंजी बाजार और संचित वित्तीय बचत मुख्य रूप से विकसित क्षेत्रों में स्थित हैं। घरेलू पूर्वाग्रह, जोखिम धारणा और मैक्रोइकॉनॉमिक हेडविंड कुछ ऐसे कारक हैं जो स्थिर और दीर्घकालिक पूंजी के प्रवाह को सीमित करते हैं। इस सबके ऊपर, ऐतिहासिक जिम्मेदारी और ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) के प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन के संदर्भ में विकासशील देशों की ओर जलवायु फायनेंस के ऐसे स्थानांतरण में इक्विटी का न्यायसंगत रूपांतरण होने की जरूरत होती है।
इसलिये हम जानते हैं कि हमें किस समस्या का समाधान करना है। यह सभी देशों के संयुक्त हित में है कि वे इन वित्तीय खामियों को जल्द से जल्द भरें, क्योंकि वक्त तेजी से निकलता जा रहा है। यह स्थिति हमें अगले सवाल पर ले जाती है। व्यक्तिगत स्वार्थ और सामूहिक कार्रवाई के बीच अंतर्निहित दुविधा को देखते हुए, हम सामूहिक कार्रवाई की समस्या को कैसे हल कर सकते हैं? रिपोर्ट दो समानांतर रास्ते सुझाती है।
सबसे पहले, विकसित देशों से वित्तीय सहायता को विकासशील देशों तक पहुंचाने में तेजी लानी होगी ताकि प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर के मौजूदा लक्ष्य को हासिल किया जा सके जो अब भी पहुंच से दूर है। साथ ही पैरिस समझौते के तहत वर्ष 2025 के बाद के लिये एक नया, विश्वसनीय और ज्यादा ऊंचा लक्ष्य तय करना होगा। कई व्यावहारिक विकल्प संभव हैं। सबसे पहले, कम आय वाले और सबसे कमजोर क्षेत्रों जैसे कि अफ्रीका और अन्य जगहों के लिए अपनी बुनियादी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए त्वरित सार्वजनिक अनुदान (और अनुकूलन के लिए बहुत अधिक राशि आवंटित करना) लागत के लिहाज से किफायती होगा और इससे उच्च सामाजिक लाभ भी प्राप्त होगा। दूसरा, जहां सार्वजनिक बजट सीमित है वहां विकसित देश जोखिम को कम करने के लिए गारंटी तंत्र स्थापित कर सकते हैं और निजी पूंजी के कई गुना अधिक सीमा पार प्रवाह को काफी कम लागत पर जुटा सकते हैं। तीसरा, स्पष्ट परिचालन परिभाषाएं और प्रक्रियाएं मददगार साबित होंगी। यह फ़्लो की ट्रैकिंग और माप में सुधार करेगा, अधिक आत्मविश्वास प्रदान करेगा और प्रवाह को प्रोत्साहित करेगा। चौथा, स्थानीय पूंजी बाजारों को बढ़ावा देने और विशेष रूप से संस्थागत निवेशकों को आकर्षित करने के लिए लंबी अवधि की पूंजी तक पहुंच और कम लागत का विस्तार करना। पांचवां, संस्थागत और नीतिगत ढांचे को बढ़ावा देना जो भागीदारों के बीच विश्वास का निर्माण करते हैं। वर्तमान गतिरोध के बजाय जीत के बड़े सहकारी परिणाम पाना संभव है। हमें बेहतर पुल बनाने की जरूरत है। भारत ऐसी साझेदारियों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभा सकता है।
दूसरा यह है कि वित्तीय क्षेत्र को वैश्विक के साथ-साथ घरेलू स्तर पर फिर से कायम करना होगा ताकि जलवायु सम्बन्धी बढ़ते जोखिमों को बेहतर तरीके से पहचाना जा सके। वैश्विक फायनेंस प्रणाली की संसाधनों पर जबर्दस्त पकड़ है। इस प्रणाली का आकार करीब 400 ट्रिलियन डॉलर (वैश्विक जीडीपी का चार गुना) है और यह हर साल बढ़ रहा है। निम्न कार्बन निवेशों की तरफ इन्हें फिर से संरेखित करने से जलवायु फायनेंस प्रवाहों की खामियों को दूर किया जा सकता है। वैश्विक वित्तीय प्रणाली का गलत संरेखण जारी है। इसकी एक वजह यह है कि जीवाश्म-ईंधन को मदद दिया जाना जारी है जो न्यून कार्बन जलवायु निवेश के वित्तपोषण से काफी अधिक है। हालांकि कुछ प्रगति हो रही है, जैसे कि ग्रीन बॉन्ड बाजार और ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) निवेश, वहीं, 'ग्रीन-वाशिंग' को टालने के लिए पारदर्शिता और मानकों को लेकर अलग ही चिंताएं हैं। केंद्रीय बैंकों और नियामकों को भी और अधिक सहभागी बनाने की जरूरत हो सकती है। साथ ही जलवायु संरेखित विवेकपूर्ण नियम स्थापित करने, प्रणालीगत जलवायु जोखिमों को पहचानने और निम्न-कार्बन वित्त साधनों को स्थापित करने में मदद करने की भी आवश्यकता है। बहुपक्षीय संस्थानों और विशिष्ट जलवायु वित्त संस्थानों ने अपनी गतिविधियों में तेजी लाई है लेकिन उनके व्यवस्थापन में सुधार लाने की जरूरत है। अन्य कदमों में कमजोर समूहों, महिलाओं और स्थानीय समुदायों के लिए वित्त की पहुंच और लागत में सुधार के लिए विशेष बैंक और जलवायु निधि शामिल हैं। भारत ऐसे सुधारों को प्रदर्शित करने के लिए सही जगह हो सकता है। अन्य कदमों में यह भी शामिल है कि विशेषीकृत बैंक और जलवायु कोष खतरे से घिरे समूहों, महिलाओं तथा स्थानीय समुदायों के लिये अपनी पहुंच और फायनेंस की लागत में सुधार किया जाए। भारत ऐसे सुधार दिखाने के लिये सही स्थान साबित हो सकता है।
हालांकि अभी काफी कुछ किया जाना है। प्रगति हो तो रही है लेकिन उसकी रफ्तार और पैमाना इतना कम है कि सुरक्षित दुनिया बनाने के लिये फायनेंस का लक्ष्य पहुंच से दूर बना हुआ है। खासतौर पर महामारी के बाद की क्षतिपूर्ति को ‘हरित बनाने’ के लिये। जलवायु फायनेंस का ‘विज्ञान’ बहुत स्पष्ट है: विश्वसनीय सामूहिक संकल्प और कार्रवाइयां वैश्विक स्तर पर विध्वंसकारी परिणामों को टालने के कहीं ज्यादा बड़े लाभ हासिल करने की बहुत छोटी सी ‘कीमत’ हैं। भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है।
दीपक दासगुप्ता
(लेखक आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप III मिटिगेशन रिपोर्ट 2022 के लिए वित्त पर प्रमुख लेखक और टेरी में विशिष्ट फेलो हैं। इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं, सिवाय इसके कि जहां उद्धृत किया गया हो)।