मंजुल भारद्वाज का नया नाटक ‘लोक-शास्त्र सावित्री’ समता का यलगार ! मेरे पुराने मित्र मंजुल भारद्वाज का जब फोन आया कि २७ मार्च २०२१ को सुबह ११:३० थाना के गडकरी रंगायतन में ‘लोक-शास्त्र सावित्री’ का मंचन है, तुम्हें आना है। मैं उलझन में थी कि कोरोना काल में पब्लिक की भीड़ में जाना सही होगा कि नहीं? पता नहीं नाटक …
Read More »साहित्यिक कलरव
ज्ञान की खोज में : महापंडित राहुल सांकृत्यायन
राहुल सांकृत्यायन की जयंती पर विशेष | Special on Mahapandit Rahul Sankrityayan’s birth anniversary (जन्म : 9 अप्रैल 1893) 9 अप्रैल – इतिहास में आज का दिन 9 April | Taarikh Gawah Hai इतिहास में आज का दिन | Today’s History | Today’s day in history | आज का इतिहास 9 अप्रैल मैं जब इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र था …
Read More »कृषक चेतना के अनूठे कवि केदारनाथ अग्रवाल
केदारनाथ अग्रवाल के जन्मदिवस : 1 अप्रैल पर विशेष | केदारनाथ अग्रवाल की काव्यगत विशेषताएँ केदारनाथ अग्रवाल के जन्म दिवस 1 अप्रैल पर केदारनाथ अग्रवाल की प्रमुख रचनाएँ से केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं उद्धृत कर केदारनाथ अग्रवाल की भाषा शैली, केदारनाथ अग्रवाल का व्यक्तित्व और कृतित्व, केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में प्रकृति, केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में प्रकृति सुंदर पर …
Read More »बुरा न मानो होली है/ ये हुक्काम बहुत सयाना है/ यूं कद दरमियाना है
मौसम बहुत सुहाना है तो आ जाओ कि भेड़ॊं के बाल मूंड़ कर ऊन बनाना है धुली हुई कमीज को लेवोजिन से चमकाना है शीशे की ऊंची-ऊंची इमारतों में कम्प्यूटरों से ढंक जाना है स्टॉक एक्सचेंज में छलांग लगाना है राजनीति को अंबानी-अडानी के चरणों में ले जाना है सोशल मीडिया पर सबको बहलाना है लोग अपने मसले खुद ही …
Read More »लोकप्रिय सिनेमा सिर्फ़ हिंसा और सैक्स पर ही निर्भर है : सागर सरहदी
Veteran Film Maker Writer Sagar Sarhadi Passes Away सागर सरहदी का असली नाम क्या था अलविदा मेरे भाई साहब सागर सरहदी! भाई साहब (सागर सरहदी जी को मैं आम तौर पर इसी नाम से संबोधित करता था, कई बार कॉमरेड भी) का मार्च 22-23, 2021 को मुंबई में देहांत हो गया। मई 11, 1933 के दिन सूबा सरहद के ज़िले …
Read More »सड़क किनारे नाचता बचपन… तू नादान सी एक रौशनी है, खुद को दरिया के हवाले मत कर
प्रियंका गुप्ता की दो कविताएँ 1) तू खुद को आबाद कर तू खुद को आबाद कर, मेरी कुरबत से खुद को आजाद कर। तेरा मसीहा तू खुद है, तू खुद पर विश्वास कर। जुड़ा तुझसे जरूर हूं मैं, पर मैं तेरी किसमत नहीं। तेरे वजूद तक को छू सकूं, मेरी अब वो शख्सियत नहीं। तू लौ है एक नए कल …
Read More »पुरस्कार, रचनाकर्म और व्यक्तिगत संबंध
Awards, creations and personal relationships सामान्यतः हमारे समय के वे रचनाकार जिन्हें बहुत इनाम-इकराम मिल जाते हैं, बहुत नाम हो जाता है उनकी रचनाएं पढ़ने पर यह लगता है कि अब वे सिर्फ लिखने के लिए लिख रहे हैं। उनकी रचनाओं में तमाम तरह की कलाबाजी, अतिशय संशय (कि रचना बहुत अलग और विशिष्ट बन पाई या नहीं), बासीपन और …
Read More »लोग अपने झूठ से हार जाते हैं, अक्सर
अपनी-अपनी जगह सही पता नहीं किसी बात पर दो झूठे, बहुत देर से अड़े हुए थे सही और सच के लिए पूरी ताकत से खड़े हुए थे मन से, दिमाग से, चुपचाप दोनों को अलग-अलग सुन रही थी आमतौर पर लोग सच से हारते नहीं हैं, क्योंकि वो इतने बहादुर नहीं होते, इसलिए लोग अपने झूठ से हार जाते …
Read More »अब जंगल से नहीं संसद से डर लगता है।।
गणेश कछवाहा की कलम से —- दो जनवादी कविताएं – चेहरा बुझा बुझा सा दर्पण टूटा टूटा सा लगता है अब जंगल से नहीं संसद से डर लगता है।। इंसानियत मोहब्बत की चर्चा करने दो मंदिर मस्जिद के मसलों से डर लगता है।। टेसू क्यों न दहके अंगारों सा मजहब सियासत सब बजारू सा लगता है। चिंता किसे है भूखों …
Read More »औरतों के हिस्से में/ आया / उड़ा-उड़ा/ एक अदद/ वुमन्स डे……!!!
Special on International Women’s Day आया, उड़ा-उड़ा, एक अदद वुमन्स डे……!!! अब ये लौट भी तो नहीं सकती ये खनकती हुयी तमाम दिलचस्प औरतें दरअसल बेहद खोखली हैं, जो बड़े शौक़ से ज़मीन छोड़ कर उड़ी थी, बदलाव की हवाओं संग, दूर आसमां तक हो आने को, नीलेपन से ऊबी ये औरतें सोचती थीं, इक सतरंगी आसमां हैं इस आसमान के …
Read More »नदियों में लहू घुल चुका है/ ज़हर हवा में नहीं/ अबकी ज़हर लहू में घुल चुका है
नित्यानंद गायेन पुलिस ने दंगाइयों को नहीं एक बूढ़ी औरत को मार दिया वो केवल बूढ़ी औरत नहीं थी पुलिस वालों ने उसे एक मुसलमान की माँ पहचान कर मारा था गलती उन सिपाहियों की नहीं थी उन्होंने सत्ता के आदेश का पालन किया उन्हें आदेश था कपड़े देखकर पहचान करो दुश्मनों की किंतु बूढ़ी माँ के कपड़े से कैसे …
Read More »अपनी लिपि तलाशती उत्तराखंड की दूधबोली
कुछ वर्ष पहले दिल्ली मेट्रो में सफ़र करते दो लोग आपस में बातचीत करते सुने। यह कुछ नया नहीं है। हमारे चारों ओर बहुत से लोग आपस में बतियाते हैं, पर मेरा ध्यान उनकी तरफ़ सिर्फ इसलिए गया क्योंकि वह मेरी दूधबोली में आपस में बात कर रहे थे। उन्हें कुमाऊँनी में बात करते सुन कुछ अपना सा लगा, जी …
Read More »आखिर फणीश्वर नाथ रेणु की पत्नी ने क्यों कहा था “चाहूँगी कि मेरे घर में और कभी कोई लेखक पैदा न हो”
पूर्व राज्यसभा सदस्य सरला माहेश्वरी द्वारा राज्यसभा में दिया गया वक्तव्य महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के जन्मदिवस 04 मार्च 2018 पर वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार अरुण माहेश्वरी ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर पोस्ट किया था। आज 04 मार्च 2021 से फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म शताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। इस अवसर पर पूर्व सांसद सरला माहेश्वरी का …
Read More »व्यथित कर गया पंजाब के बेहतरीन गायक ‘सरदूल सिकंदर’ का यूँ चले जाना
Punjabi Singer Sardool Sikander Dies At 60 पंजाब के एक बेहतरीन गायक ‘सरदूल सिकंदर’ का यूँ चले जाना व्यथित कर गया। 80 के दशक में सरदूल सिकंदर की आवाज और गीत पंजाब की फिजाओं में जोश और खुशियों के रंगों से लबरेज थे। अंताकवाद के दौर के बाद पंजाब का माहौल ज़ख्मों को भुलाने की कोशिश में नयी उमीदों को …
Read More »वे छद्म हिन्दू हैं
वर्तमान में हिंदुओं को एक ही compartment में रखने की प्रक्रिया चल रही है। विविधता को गायब किया जा रहा है। यदि आप जय श्री राम न कहेंगे, तो आप हिन्दू नहीं हैं? छद्म हिन्दू पर अनिल सोडानी की एक रचना … हिन्दू मैं हिन्दू हूँ… कर्म में , पूजा में साकार और निराकार में, विधि में, विधान में, राम में, …
Read More »और तब तुम विभीषण बन जाते हो/ और कुर्सी की निष्ठा से बँधे हुए भीष्म/ जहाँ द्रोपदी नंगी हो तो हो जाए/ तो क्या फ़र्क पड़ता है!
बहुत अच्छा लगता है, श्रीमंत के चरणों में लोटकर, फिर अपनों में जाकर शेखी बघारना। बहुत अच्छा लगता है, प्रभु वर्ग के साथ, सत्ता प्रतिष्ठान में बैठना। सत्ता के महाभोज में शामिल होना, सत्ता का चमचा होना, इनसे नज़दीकियाँ बनाकर, अपनों में आकर ऐंठना। बहुत अच्छा लगता है, छोटे-छोटे स्वार्थों में, प्रभुवर्ग की चारण वन्दना। बहुत अच्छा लगता है। रत्ती …
Read More »चंद इजारेदारों के कदमों में, नहीं देख सकते हम बंधक, अपने देश की संसद और सरकार
तीन काले कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में आंदोलनरत किसानों को समर्पित एक रचना :- ठण्ड मुझे भी लगती है, खुला आसमान, ठंडी हवाएँ, मुझे भी सताती हैं यह अलग बात है, जब मैं सृज़न करता हूँ मिट्टी से जाने क्या क्या रचता हूँ, तो मेरे लिए ठण्ड बेमानी हो जाती है, धरती मेरा कर्मक्षेत्र और आकाश मेरे कर्म का साक्षी …
Read More »मर जवान मर किसान/ फिर भी मेरी सरकार महान
ये भी तबाह, वो भी परेशान लगाओ सिर्फ नारा पूरी ताकत से, जय जवान, जय किसान। यह कड़ाके की ठंड, बॉर्डर पे जवान बॉर्डर पे किसान किसानों की ये बदहाली और देश मेरा कृषि प्रधान लगाओ सिर्फ नारा पूरी ताकत से, जय जवान ,जय किसान। रहनुमा हमारे बेजार हो कर सो गए कहते हैं फ़ला के कहने से किसान गुमराह …
Read More »एय बे उसूल ज़िंदगी/ फ़ाश कहाँ हुए तुझपे/अब तलक जन्नतों के राज़ …
एय बे उसूल ज़िंदगी फ़ाश कहाँ हुए तुझपे अब तलक जन्नतों के राज़ … सय्यारों के पार रहते हैं जो ज़मीन पर हमने तो नहीं देखे हज़ारों साल से लगी है तू अपनी पुरज़ोर कोशिशों में … मगर अब तक धूल तक ना पा सकी है वहाँ की … देखा …, कितने परदों में संभाल रखा है उन्होंने अपनी हर …
Read More »प्रेमचंद घर में – शिवरानी देवी | साहित्य से इतर प्रेमचंद | प्रो. सुधा सिंह का संवाद |hastakshep | हस्तक्षेप | उनकी ख़बरें जो ख़बर नहीं बनते
“Premchand: Ghar Mein by Shivrani Devi” review by Prof. Sudha Singh Shivrani Devi Premchand | Munshi Premchand wife Shivrani Devi लेखिका शिवरानी देवी का व्यक्तित्व कैसा था ? प्रेमचंद का निजी जीवन कैसा था? प्रेमचंद एक पति के रूप में कैसे थे ? प्रेमचंद एक पुरुष के रूप में कैसे थे ? घर गृहस्थी के लिहाज से प्रेमचंद कैसे थे …
Read More »तेरी संस्कृति के क़िस्से/ मुझसे और नहीं बाले जाते/ तुझसे दो कौड़ी के छोरे/ तलक नहीं संभाले जाते…
बड़े ही स्याह मंज़र हैं उनके फेंके… किसी रंग की रौशनी यहाँ तक पहुँचती ही नहीं मैं क्या करूँ..? कैसे दिखाऊँ…? यह मंज़र क्या ले जाऊँ.. इन मासूमों को घसीट कर.. लाल क़िले की प्राचीर तक.. या फिर एय लाल क़िले तुझे उठा कर ले आऊँ इस अंधे कुएँ की मुँडेर तलक कैसे चीख़ूँ कि तमाम ज़ख़्मी जिस्मों की चीख़ …
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