चल ना वहाँ ...
उम्र जहाँ से शुरू की थी
उसी मोड़ पर रूक कर देखेंगे
कितने ? मोड़ आवाज़ देते हैं
पीठ के पीछे
चल ना वहाँ
जहाँ गया वक्त
छलावे सा छलेगा
उन दिनों की बातें
सुनता करता
इक चाँद साथ चलेगा
चल ना वहाँ
वो गाँव
वो मुहल्ला
वो कच्चा मकान
नुक्कड़ पर
छोटी सी
चाय की दुकान
मालूम है
सब बदल चुके होंगे
वहाँ के दरख़्त
बिल्डिंगों की शक्ल में
ढल चुके होंगे
चल ना वहाँ
जहां अमलतास खिला था
गुलमोहर के सुर्ख़ रंग में
इश्क़ में मिला था
चल ना वहाँ
मंज़र बदल गया होगा
शहर का जादू चल गया होगा
हर साल तरक़्क़ी
जाती होंगी
छतों के सर पर
इक और छत उग जाती होगी
चल ना वहाँ
सुना है
उन बिल्डिंगों की
गरदनों पे असमान रुका है
ज़मीन से ऊँचा था
आज छतों पे झुका है
सीढ़ियों के रस्ते
फेंक स्कूल के बस्ते
हम इन बिल्डिंगों के
कंधों पर
उचक कर
फलक पर
पर पाँव धरेंगे
धम्म से कूदेंगे
तो तारे डरेंगे
चल ना वहाँ ....
डॉ. कविता अरोरा
(पैबंद की हँसी काव्य संग्रह से)