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दुनिया की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा चीन
China did not meet world expectations
जब चीन में क्रांति (Revolution in china) हो रही थी उस दौरान उसे विश्व की जनता का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था। उस समय चीन के बारे में कहा जाता था कि वहां के निवासी अफीम का नशा करके सुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। उस समय चीन की आर्थिक स्थिति (Economic status of china) इतनी जर्जर थी कि कहा जाता था कि वहां का नागरिक बोरे में भरकर नोट लेकर बाजार जाता था और उसके एवज में एक पुड़िया माल लेकर घर आता था। चीन को इस स्थिति से उबारने में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके महान नेता माओत्से तुंग का प्रमुख योगदान था।
अंततः 30 साल के सतत संघर्ष के बाद चीन बाहरी और भीतरी प्रतिक्रियावादी तत्वों के चंगुल से मुक्त हुआ। चीनी क्रांति का महत्त्व अकेले चीन के लिए नहीं था वरन् दुनिया की समस्त शोषित-पीड़ित जनता के लिए था। चीनी क्रांति क्या थी (What was the chinese revolution) और वह कैसे दुनिया और विशेषकर एशिया की शक्ल बदल देगी इस बात का संदेश एक अमेरिकी पत्रकार और लेखक ने पहुंचाया। उन्होंने एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था ‘‘रेड स्टार ओवर चाइना’’ (Red star over china)।
सन् 1948 में चीन आजाद हुआ। उसकी आजादी का जश्न हमने भी मनाया।
चीन के आजाद होने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक शिष्ट मंडल चीन भेजा था। इस शिष्ट मंडल का नेतृत्व तपस्वी सुंदरलाल ने किया था। इस शिष्ट मंडल में भोपाल के लोकप्रिय नेता शाकिर अली खान और ब्लिटज के संपादक आर. के. करांजिया भी शामिल थे। जब चीन में क्रांति हो रही थी उस दौरान भी हमने डॉक्टरों की एक टीम चीन भेजी थी। इस टीम के नेता डॉ कोटनिस थे। डॉ कोटनिस पर एक फिल्म भी बनी थी जिसका शीर्षक था Dr. Kotnis Ki Amar Kahani (डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी)।
कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बाद नेहरूजी ने चीन से दोस्ताना संबध बनाए। प्रगाढ़ संबंधों के चलते ‘‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’’ का नारा बहुत लोकप्रिय हुआ।
नेहरूजी का सपना था कि भारत और चीन मिलकर दुनिया की शोषित जनता को साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराएंगे। दोनो देशों ने मिलकर दुनिया के नव-आजाद देशों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इस प्रयास को औपचारिक रूप इंडोनेशिया के बांडुग नगर में दिया गया। नेहरूजी की पहल पर आयोजित हुए इस सम्मेलन में देशों के संबंध कैसे रहें इसके लिए एक रणनीति तैयार की गई। इस रणनीति को ‘पंचशील’ का नाम दिया गया।
इसी बीच भारत और चीन के बीच सीमा से जुड़े विवाद उभरने लगे। इन विवादों को सुलझाने के लिए वार्ताओं के अनेक दौर हुए परंतु मामले सुलझ नहीं सके। सीमा के सवाल पर चीन ने अत्यंत संकुचित रवैया अपनाया। इस दौरान चीन पूरी तरह एक अति राष्ट्रवादी देश बन गया। हम लोग जो चीन के आदर्शों से प्रभावित थे निराश होने लगे। हमें अपेक्षा थी कि चीन वैसी ही भूमिका अदा करेगा जैसी सोवियत संघ ने क्रांति के बाद अदा की थी। सोवियत संघ ने यूरोप के अलावा एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका महाद्वीपों के देशों की आजादी के आंदोलनों में मदद की थी। इसके अलावा सोवियत संघ ने उन देशों को आत्मनिर्भर बनने में भी मदद की थी जो साम्राज्यवाद के चंगुल से निकलकर आजाद हुए थे। इसके ठीक विपरीत चीन ने नव स्वतंत्र देशों से शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया। जैसे चीन ने भारत के अलावा वियतनाम से भी झगड़ा मोल ले लिया।
नेहरूजी को चीन की दोस्ती पर काफी भरोसा था।
नेहरूजी को विश्वास था कि चीन कभी भारत से युद्ध नहीं करेगा। मुझे कभी-कभी लगता है कि चीन से युद्ध जैसी स्थिति पैदा होने और सन् 1961 में जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुए भीषण साम्प्रदायिक दंगों से नेहरूजी को भारी मानसिक क्लेश हुआ। यदि ये दोनों घटनाएं नहीं हुई होतीं तो शायद देश को कई और वर्षों तक नेहरूजी का नेतृत्व प्राप्त रहता।
मैं इस लेख में सीमा विवाद के विभिन्न पहलुओं की चर्चा नहीं करूंगा। परंतु मेरी यह मान्यता है कि जिन उच्च आदर्शों को लेकर चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हुई थी उन्हें चीन ने पूरी तरह भुला दिया।
नेहरूजी ने हमारे देश की उच्च परंपराओं के अनुसार देश का नेतृत्व किया था। वे उन लोगों में से थे जा सारी दुनिया में शांति चाहते थे और इस खातिर कुछ हद तक राष्ट्र के हितों की कुर्बानी देने के लिए भी तैयार रहते थे।
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नेहरू जी को गांधी और पटेल सहित सभी लोग एक विजनरी नेता मानते थे। चीन से हुए युद्ध को लेकर नेहरूजी की भारी आलोचना की गई। उनकी आलोचना करते हुए कुछ लोगों ने अपमानजनक भाषा का उपयोग भी किया। लोकसभा में बहस के दौरान एक सांसद ने उन्हें गद्दार तक कह डाला। उन सासंद का नाम मुझे अब भी याद है किंतु चूंकि अब वे इस दुनिया में नहीं हैं इसलिए उनके नाम का उल्लेख करना उचित नहीं समझता। चीन ने हमें तो धोखा दिया ही, उसने पाकिस्तान, जो लगभग पूरी तरह से अमेरिका के गुलाम है, से भी हाथ मिलाया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी चीन से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के भरसक प्रयास किए। यदि चीन ने उन्हें भी धोखा दिया तो उनके विरूद्ध भी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए जो नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन के विरूद्ध की गई थी। एक कहावत है कि ‘‘धोखा देने से धोखा खाना बेहतर है।’’
इस समय आवश्यक यह है कि पूरा देश एक होकर इस चुनौती का सामना करे। स्थिति सामान्य होने पर ही उन कारणों का विश्लेषण किया जाए जिनके चलते सीमा पर विवाद उत्पन्न हुआ।
- एल. एस. हरदेनिया