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बादल सरोज संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा सम्पादक लोकजतन
किसान आंदोलन में शहादत देने वाले (Martyrs in the Peasant Movement) तो इतने सबल थे कि निरंकुश हठ का अहंकार तोड़ गए। बाकी सब भी ध्वस्त करेंगे।
कृषि मंत्री के चुनिंदा स्मृति-लोप की क्रोनोलॉजी
Chronology of selected amnesia of Agriculture Minister
तीन कृषि कानूनों की वापसी (withdrawal of three agricultural laws) के लिए लड़ते-लड़ते किसान आंदोलन में शहीद (Martyr in peasant movement) हुए सातेक सौ किसानों के बारे में संसद में दिए जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा है कि; "कृषि मंत्रालय के पास इस बारे में कोई रिकॉर्ड नहीं है. ऐसे में वित्तीय सहायता देने का सवाल नहीं उठता।"
यह उस सरकार के मंत्री का बयान है जिसके पास पक्की जानकारी थी कि "सारे किसान नहीं बल्कि कुछ मुट्ठी भर गुमराह किसान आंदोलनरत हैं।" जिसके प्रधानमंत्री से लेकर मोबाइल पर व्हाट्सप्प दीक्षांत कार्यकर्ता तक के पास पुख्ता सूचना थी कि आंदोलन करने वाले किसान "खालिस्तानी" हैं, पाकिस्तान से प्रायोजित हैं, चीन से पैसा लेते हैं, इंटरनेशनल एजेंडा चलाते हैं। भाई जी और उनकी सरकार को इस बात की भी एकदम पुष्ट जानकारी थी कि ये सब के सब देशद्रोही हैं।
उनके पास इस बात की भी डेली अपडेट्स थीं कि किस दिन वे पिज़्ज़ा खा रहे हैं, किस दिन खीर और पूड़ी बनी है, किस दिन बिरियानी छकी जा रही है। कि कैसे-कैसे आरामदेह गद्दों पर सोया जा रहा है, कि कितनी कितनी गुदगुदी रजाईयाँ ओढ़ी जा रही हैं।
एक मोहतरमा मंत्राणी को तो यह भी पता था कि कितने रूपये रोज की दिहाड़ी पर उन्हें दिल्ली लाया जा रहा है - उनके पास तो ऐसे महिला पुरुषों की तस्वीरें तक थी।
हैरत की बात है कि जिस सरकार को यह सब पता था, सब कुच्छ पता था उसे यह नहीं पता कि कितने किसान इस आंदोलन में मारे गए।
किसान - कुल 689 किसान - नहीं मरे, वे तो देश की खेती और किसानी को कारपोरेट भेड़ियों के जबड़े से वापस छीनकर ले आने की देशभक्तिपूर्ण लड़ाई में शहीद हुए हैं; मरा तो कुछ और है।
मरा तो वह नैतिक, राजनैतिक, मानवीय उत्तरदायित्व है जो किसी भी निर्वाचित सरकार के होने की पहली पहचान होती है।
मरी हैं सहानुभूति और संवेदनायें, मरी हैं इंसानियत, मरी है सभ्यता की पहचान।
अपने नागरिकों की दुःख तकलीफों के प्रति संवेदना, उनकी पीड़ादायी मौतों के समय उनके प्रति सहानुभूति रखना सरकार की ही नहीं सभ्य समाज की पहचान है। मौजूदा सरकार इस मानवीय गुण से पूरी तरह वंचित है।
कृषि मंत्री उसी समुदाय के हैं जिसके मुखिया ने पूरी साल भर, यहां तक कि 19 नवम्बर के अपने 18 मिनट के "एक तपस्वी की आत्मरति" वाले भाषण तक में इन शहीद हुए हिन्दुस्तानियों के प्रति सहानुभूति का एक भाव, उनके परिजनों के प्रति संवेदना का एक शब्द भी नहीं बोला। यह अनायास नहीं है; यह वह निर्लज्ज धूर्तता है जिसे मौजूदा हुक्मरान अपनी चतुराई मानते हैं।
किसान आंदोलन में मारे गए शहीदों की सूची
किसान आंदोलन में मारे गए शहीदों की बाकायदा एक सूची (List of martyrs killed in peasant movement) है। पंजाब के विश्वविद्यालय के दो नामचीन प्रोफेसर्स इनमे से एक-एक किसान के परिवार से बात करके उनकी माली और समाजी हैसियत का पूरा ब्यौरा इकट्ठा कर चुके हैं; मगर कृषिमंत्री और उनकी सरकार को कोई जानकारी नहीं है।
ठेठ राजधानी में सरकार की नाक के नीचे हुए हादसों की उस सरकार को खबर तक नहीं जिसके मुखिया "कार के नीचे आये कुत्ते के पिल्ले" तक की मौत से विचलित होने का दावा भरते हैं - जो हर आड़े टेड़े समय कुसमय में अपनी आँखों से टसुए बहाते हैं; उन्हें नहीं पता कि उनके राज में, उनकी वजह से कितने मनुष्यों ने अपना बलिदान दे दिया है।
यह सेलेक्टिवनेस सिर्फ किसानो के बारे में नहीं है। यही क्रूर चुनिंदा स्मृतिलोप (सेलेक्टिव एमनीसिय- selective amnesia) पिछली वर्ष इसी सरकार ने इसी संसद में दिखाया था जब उसने कहा था कि "कोरोना की मौतों के बारे में उसके पास कोई आँकड़ा नहीं है। इस देश में जिस बीमारी से 40 से 50 लाख तक मौतों की आशंका दुनिया जता रही थी उस देश की सरकार पूरी निष्ठुर दीदादिलेरी के साथ ऐसी किसी भी मौत की जानकारी न होने का दावा कर रही थी।
यही स्मृति लोप बेरोजगारी, भुखमरी, जीडीपी और नोटबंदी के समय भी उजागर हुआ था।
किसान आंदोलन में शहीद भाजपा कार्यकर्ता (BJP workers martyred in farmers' movement)
विडम्बना की बात यह है कि इस झांसेबाज़ी की झक्क में कृषिमंत्री अपने ही कार्यकर्ताओं की मौतों को भी दरकिनार कर जाते हैं। दिल्ली की पलवल बॉर्डर पर भीषण ठण्ड में अगुआई करने वाले सरदार सुरेंदर सिंह कृषि मंत्री के गृह जिले ग्वालियर के चीनोर के भाजपा के बड़े नेता थे। पिछली लोकसभा में जब कृषि मंत्री तोमर ने ग्वालियर लोकसभा सीट से मामूली मतों से जीत हासिल की थी उस वक़्त चीनोर के सारे पोलिंग बूथ्स से चुनाव जितवाने वाले यही सुरेंदर सिंह थे। वे नए भाजपाई नहीं थे।
इन पंक्तियों के लेखक ने जब 1989 में लोकसभा चुनाव लड़ा था तब भी सुरेंदर सिंह भाजपा के लिए काम करते थे। तोमर भले उनकी मौत पर मातमपुर्सी करने नहीं गए हों, ग्वालियर के भाजपा सांसद विवेक नारायण शेजवलकर और पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा हो आये थे।
किसान आंदोलन में शहीद हुए ऐसे ही एक और भाजपा कार्यकर्ता ग्वालियर के ही सिगौरा ग्राम के शौकत हुसैन थे। क्या इन दोनों की मौतों का भी कोई आंकड़ा या सूचना भाजपा सरकार के पास नहीं है ?
कृषिमंत्री और उनके ऊपर वालों को यह पता होना चाहिये कि तीन कृषि कानूनों के बाद एमएसपी के बाध्यकारी क़ानून के बारे में एसकेएम से परामर्श के जरिये निश्चित समय सीमा में फैसला करने वाली एक समिति बन सकती है, बिजली क़ानून रुक सकता है और बातचीत जारी रह सकती है लेकिन ....... और यह लेकिन अत्यंत निर्णायक तथा नॉन-नेगोशिएबल है .... शहीदों के बारे राहत और मुआवजे, झूठे मुकदमों की वापसी एवं सिंघु बॉर्डर पर शहीदों का स्मारक बनाये बिना किसान घर वापस नहीं लौटने वाले।
पता नहीं जिस सरकार को कुछ भी नहीं पता उसे यह सच भी पता है कि नहीं पता कि कबीर बाबा कह गए हैं कि;
"दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय |
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय |"
किसान आंदोलन में शहादत देने वाले तो इतने सबल थे कि निरंकुश हठ का अहंकार तोड़ गए। बाकी सब भी ध्वस्त करेंगे।
बादल सरोज
संपादक लोकजतन