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सीएए और दक्षिण एशिया में धार्मिक अल्पसंख्यक

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hastakshep
12 Jan 2020
सीएए-एनपीआर-एनआरसी का विरोध और हिन्दू की नई संघी परिभाषा

Citizenship Amendment Act and Religious Minorities in South Asia

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नए साल की शुरुआत में, सीमा के पार पाकिस्तान से दो व्यथित करने वाली घटनाओं की खबरें आईं. पहली थी गुरु नानक के जन्मस्थान ननकाना साहिब गुरूद्वारे पर हुआ हमला (attack on Nankana Sahib). एक रपट में कहा गया था कि हमलावरों का लक्ष्य इस पवित्र स्थल को अपवित्र करना था वहीं दूसरी रपट के अनुसार वहां मुसलमानों के ही दो गुटों के बीच हिंसा हुई थी. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने घटना की निंदा की और मुख्य आरोपी इमरान चिश्ती को गिरफ्तार कर लिया गया. यह मामला गुरूद्वारे के पंथी (पवित्र गुरुग्रन्थ साहिब का पाठ करने वाला व्यक्ति) की लड़की जगजीत कौर के अपहरण और उसके जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन से जुड़ा हुआ था. दूसरी घटना थी पेशावर में रविंदर सिंह नामक सिक्ख युवक की हत्या. उसे तब गोली मार दी गई जब वह अपनी शादी के लिए खरीददारी कर रहा था.

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक सिक्ख समुदाय पर इन दो अत्यंत निंदनीय हमलों का राजनैतिक लाभ उठाने से भाजपा भला कैसे चूक सकती थी. पार्टी ने तुरंत कहा कि इसी तरह की घटनाओं के चलते ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) ज़रूरी है.

सीएए, भेदभाव पर आधारित कानून है और नागरिकता को धर्म से जोड़ता है, जो हमारे संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है. सीएए के मुद्दे पर देश भर में बहस चल रही है. इस बीच यह जम कर प्रचार किया जा रहा है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं की आबादी में भारी गिरावट आई है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि देश के विभाजन के समय पाकिस्तान की आबादी में हिन्दुओं का प्रतिशत 23 जो अब घट कर 3.7 रह गया है. बांग्लादेश की हिन्दू आबादी भी 22 प्रतिशत से घट कर 8 प्रतिशत पर आ गयी है.

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इसमें कोई संदेह नहीं कि इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के साथ उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं हो रहा है परन्तु जो आंकड़े बताये जा रहे हैं, वे भी सही नहीं हैं. यह नहीं बताया जा रहा है कि विभाजन के दौरान हुए पलायन और बांग्लादेश के निर्माण का पाकिस्तान की हिन्दू आबादी पर क्या प्रभाव पड़ा. पाकिस्तान में पहली जनगणना 1951 में हुई थी. इस जनगणना के अनुसार, पूरे देश (पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान को मिलकर) में गैर-मुसलमानों का प्रतिशत 14.2 था. पश्चिमी पाकिस्तान (आज के पाकिस्तान) में यह प्रतिशत 3.44 और पूर्वी पाकिस्तान (आज के बांग्लादेश) में यह 23.2 था. पाकिस्तान की 1998 की जनगणना में वहां गैर-मुसलमानों का प्रतिशत 3.72 पाया गया. जहाँ तक बांग्लादेश का प्रश्न है, वहां गैर-मुसलमानों की आबादी 23.2 प्रतिशत (1951) से गिर कर 9.6 प्रतिशत (2011) रह गई.

पाकिस्तान का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय अहमदिया है. देश में करीब 40 लाख अहमदिया हैं और पाकिस्तान में उन्हें मुसलमान नहीं माना जाता. जहाँ तक बांग्लादेश का प्रश्न है, पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों से परेशान हो कर वहां से भारी संख्या में हिन्दुओं का पलायन हुआ था. पाकिस्तान की सेना ने बांग्लादेश में उस समय तांडव मचाया था जब वह पाकिस्तान का हिस्सा था.

संयुक्त राष्ट्रसंघ के आंकड़ों के अनुसार, 2016 से 2019 के बीच भारत में शरणार्थियों की संख्या में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और इनमें सबसे ज्यादा संख्या तिब्बतियों और श्रीलंका के निवासियों की है.

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किसी भी देश में वहां के अल्पसंख्यकों की स्थिति, उस देश में प्रजातंत्र की मजबूती का पैमाना होती है. अधिकांश दक्षिण एशियाई देश प्रजातान्त्रिक मूल्यों के रक्षा करने में असफल सिद्ध हुए हैं. पाकिस्तान के निर्माण के समय जिन्ना ने अपने ऐतिहासिक भाषण में यह घोषणा की थी कि धर्मनिरपेक्षता नए गणराज्य का केंद्रीय तत्त्व होगा. पाकिस्तान की संविधान सभा को संबोधित करते हुए जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 को कहा था कि राज्य की नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें सभी धर्मों के लोगों को अपनी आस्था का पालन करने की स्वतंत्रता हो. परन्तु जल्दी ही वहां उस ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ का बोलबाला हो गया, जो पाकिस्तान के निर्माण का आधार था. देश में फौज़ ने अपना जबरदस्त दबदबा कायम कर लिया और वहां तानाशाहों का राज हो गया. प्रजातंत्र का समर्थन करने वालों का दमन किया जाना लगा. पाकिस्तान का सबसे ख़राब दौर था ज़िया-उल-हक का शासनकाल. ज़िया ने मुल्लाओं के साथ मिलकर देश का इस्लामीकरण किया. सेना वहां पहले से ही शक्तिशाली थी. यह आम तौर पर कहा जाता है कि पाकिस्तान में तीन ‘ए’ का शासन है - आर्मी, अमेरिका और अल्लाह (मुल्ला).

बांग्लादेश ने एक दूसरी राह पकड़ी. उसका निर्माण द्विराष्ट्र सिद्धांत के ताबूत में आखिरी कील था. उससे यह साबित हो गया कि धर्म कभी राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता. बांग्लादेश का गठन एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में हुआ था. वहां सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच निरंतर संघर्ष चलता रहा और अंततः 1988 में, वह एक इस्लामिक गणराज्य बन गया. म्यांमार फौज़ी तानाशाही के चंगुल में फंसा हुआ है और वहां की प्रजातान्त्रिक ताकतें एक कठिन संघर्ष के दौर से गुज़र रहीं हैं. वहां भी सेना और (बौद्ध) संघों का राज है और इसी के नतीजे में रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है.

श्रीलंका में भी ऐसे ही कुछ हालात हैं. वहां भी बौद्ध संघ और सेना राजनीति में दखल देते रहे हैं. मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यक तो परेशान हैं हीं, तमिलों (जो हिन्दू, ईसाई आदि हैं) का भी नस्लीय आधार पर दमन किया जा रहा है. इन देशों के मुकाबले भारत में स्थितियां बहुत बेहतर हैं. यहाँ प्रजातंत्र, बहुवाद और धर्मनिरपेक्षता के फलने-फूलने के लिए अनुकूल स्थितियां हैं. गांधीजी और नेहरु के नेतृत्व और स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों से प्रेरित हमारे संविधान ने देश में धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र की जडें मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.

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दक्षिण एशिया के देशों में से भारत में प्रजातंत्र सबसे ज्यादा मज़बूत है. यहाँ अल्पसंख्यकों की आबादी में वृद्धि हुई है परन्तु उसका मुख्य कारण उनमें व्याप्त गरीबी और अशिक्षा है.

समय के साथ, सांप्रदायिक ताकतों ने पहचान से जुड़े मुद्दे उछालने शुरू कर दिए और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दुष्प्रचार शुरू कर दिया. इससे अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण होने लगा.

अन्य दक्षिण एशियाई देशों को भारत की राह पर चलना चाहिए था और अपने-अपने देशों में सहिष्णुता और उदारता की संस्कृति को मजबूती देनी चाहिए था. परन्तु दुर्भाग्यवश, आज भारत, पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चल रहा है. भारत पतन की फिसलन भरी राह पर जा रहा है इसका सबूत वे मुद्दे हैं जो पिछले कुछ वर्षों से देश पर छाए रहे हैं जैसे राममंदिर, घरवापसी, लव जिहाद, बीफ-गौ माता और अब सीएए.

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भारत में धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दों के राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आने पर पाकिस्तानी कवयित्री फहमिदा रियाज़ ने अपनी कविता, ‘तुम भी हम जैसे निकले’ में अत्यंत सटीक टिपण्णी की थी. सांप्रदायिक ताकतों का प्रतिरोध करना हमेशा से एक कठिन काम रहा है और यह दिन-प्रतिदिन और कठिन होता जा रहा है. इस परिघटना को कट्टरवाद, साम्प्रदायिकता, धार्मिक राष्ट्रवाद आदि कहा जाता है. परन्तु यह साफ़ है कि इसका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. असली धर्म तो वह है जिसका पालन हमारे सूफी और भक्ति संत करते थे. आज भारत में जो हो रहा है वह तो केवल धर्म का राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल है.

-राम पुनियानी

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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