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दुनिया बचाने का अंतिम अवसर : 2030 तक आधे करने होंगे उत्सर्जन

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hastakshep
05 Apr 2022
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जलवायु परिवर्तन भारत की कृषि को कैसे प्रभावित कर रहा है..?

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Last chance to save the world: emissions to be halved by 2030

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नई दिल्ली, 05 अप्रैल 2022 : पृथ्वी के बीते 2000 सालों के इतिहास की तुलना में अब, बीते कुछ दशकों में, धरती का तापमान (Earth's temperature) बेहद तेज़ी से बढ़ रहा है। इसके पीछे साफ़ तौर पर, इन्सानी गतिविधियों की वजह से होने वाला ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन (greenhouse gas emissions) ज़िम्मेदार है।

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To stop climate change, we have to bring our emissions to zero : IPCC

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2010-2019 में औसत वार्षिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर था। वैज्ञानिकों ने कल जारी नवीनतम इंटरगवर्नमेनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को जीरो पर लाना होगा। उत्सर्जन में कटौती के बिना, ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना पहुंच से बाहर है। इस काम के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की आवश्यकता है और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कमी लानी होगी।

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रिपोर्ट जारी करते हुए आईपीसीसी के अध्यक्ष होसुंग ली (IPCC President Hoesung Lee) ने कहा कि- "हम एक दोराहे पर हैं। अब हम जो निर्णय लेते हैं, वे एक जीवंत भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं।

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तमाम वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद न तो जीवाश्म ईंधन कंपनियों और सरकारों की जवाबदेही तय हो पा रही है, और न ही उनके विरुद्ध कोई ख़ास निषेधात्मक कार्यवाई की जाती है।

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इस उदासीनता के चलते, आज जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट (AR6) की तीसरी किस्त (WG3) "Climate Change 2022: Mitigation of Climate Change," बताती है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब शायद बस एक आखिरी मौका ही बचा है और इस मौके का फायदा अगले आठ सालों में ही उठाया जा सकता है। इस काम के लिए इस दशक के अंत तक उत्सर्जन को कम से कम आधा करने के लिए तेजी से नीतियों और उपायों को लागू करना पड़ेगा।

IPCC की इस WG3 रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि दुनिया अपने जलवायु लक्ष्यों को कैसे पूरा कर सकती है।

रिपोर्ट से साफ़ है कि 2050 तक 'नेट-जीरो' तक पहुंचना दुनिया को सबसे खराब स्थिति से बचने में मदद करेगा। हालांकि रिपोर्ट यह भी कहती है कि मौजूदा हालात ऐसे हैं कि 1.5 या 2 डिग्री तो दूर, हम 2.7 डिग्रीज़ कि तापमान वृद्धि की ओर अग्रसर हैं। एक और महत्वपूर्ण बात जो यह रिपोर्ट सामने लाती है कि नेट ज़ीरो के नाम पर अमूमन पौधारोपण या कार्बन ओफसेटिंग कि बातें की जाती हैं। मगर असल ज़रूरत है कार्बन उत्सर्जन को ही कम करना। न कि हो रहे उत्सर्जन को बैलेंस करने कि गतिविधियों को बढ़ावा देना।

अब ये जानना महत्वपूर्ण होगा कि इस ताज़ा रिपोर्ट में विज्ञान कि नज़र से क्या ख़ास संदेश हैं।

तो चलिये अब एक नज़र ऐसे पाँच महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संदेशों पर डालते हैं।

1. स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा की शक्ति (Power of clean and renewable energy) और भंडारण से चलने वाली एक वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था दुनिया के देशों को एक बेहतरीन मौका देगी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए। जिन देशों में निम्न कार्बन नीतियां अपनाई गई वहाँ उत्सर्जन में गिरावट देखी जा रही हैं। अक्षय ऊर्जा में भारी प्रगति हुई है। साल 2020 में 280 गीगावाट नई क्षमता जोड़ी गई, जो पिछले वर्ष की तुलना में 45% अधिक है और 1999 के बाद से साल-दर-साल सबसे बड़ी वृद्धि है। साथ ही, उसकी लागत में तेजी से गिरावट जारी है।

2. दुनिया को जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे (fossil fuel infrastructure) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शुरू करना चाहिए। मौजूदा बुनियादी ढांचा अकेले ही 1.5°C लक्ष्य तक पहुंचना असंभव बना देगा। अगर कोई नया जीवाश्म ईंधन विस्तार न भी किया जाए, फिर भी मौजूदा ढांचे की वजह से 2025 तक वैश्विक उत्सर्जन 22% अधिक होगा और 2030 तक 66% अधिक होगा। साथ ही, मौजूदा ढांचे के चलते दुनिया में 846 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन (carbon dioxide emissions) होना तय है। फिलहाल हालात ऐसे हैं कि कोयले में नए निवेश न करने के साथ ही सभी कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को 2040 तक बंद करने की आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का कहना है कि जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2040 तक एक वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र का नेट ज़ीरो होना ज़रूरी है।

3. वैज्ञानिकों का कहना है कि महत्वाकांक्षी पेरिस तापमान लक्ष्यों को पूरा करना संभव है, लेकिन इसके लिए एक की आवश्यकता होगी और वो है बढ़े हुए वित्तीय निवेश। पेरिस के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मीथेन और अन्य अल्पकालिक गैसों सहित ग्रीनहाउस गैसों की पूरी श्रृंखला में तेजी से शमन की आवश्यकता है। जलवायु शमन और अनुकूलन के लिए तमाम देशों द्वारा वादा की गयी धनराशि पेरिस में वादा किए गए प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर से काफी कम है। जलवायु परिवर्तन की तैयारी और रोकथाम के लिए इस वित्त प्रवाह में वृद्धि होनी चाहिए।

4. जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना होगा। यही वजह है कि IPCC के नेट-जीरो पाथवे तीव्र और गहन उत्सर्जन कटौती पर जोर देते हैं। अधिकांश मौजूदा कार्बन निष्कासन प्रौद्योगिकियां अभी भी या तो अत्यधिक अविश्वासनीय हैं, या फिर जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा से समझौता करने पर सफल होते हैं। बात अगर केवल वृक्षारोपण के माध्यम से 2050 तक नेट ज़ीरो तक पहुंचने की हो तो कम से कम 1.6bn हेक्टेयर ज़मीन चाहिए होगी। फिलहाल उत्सर्जन में कटौती का कोई विकल्प नहीं इसलिए कार्बन हटाने की बात करने पर कार्बन उत्सर्जन को ही रोकने पर ही ध्यान देना होगा क्योंकि कार्बन हटाने की मौजूदा प्रौद्योगिकी ऐसी नहीं जो जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार सिद्ध हों।

5. वर्तमान में हम वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक भी सीमित करने से बहुत दूर हैं। मौजूदा नीतियां सफल भी होती हैं तो वो हमें सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक वार्मिंग की ओर ले जाएंगी। पेरिस समझौते को पूरा करने के लिए, हमें और अधिक करना होगा।

दुनिया के सबसे अमीर 10% अकेले दुनिया के कुल उत्सर्जन के आधे के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि दुनिया के सबसे गरीब लोगों का हिस्सा सिर्फ 12% है। नीतिगत निर्णय लेने वालों को वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए हर संभव प्रयास करने की आवश्यकता है।

ध्यान रहे कि 2030 तक उत्सर्जन में कटौती में देरी करने से 1.5°C का लक्ष्य पहुंच से बाहर हो जाएगा और हमारा ग्रह स्थायी और अपरिवर्तनीय जलवायु क्षति भोगेगा। अगले आठ साल महत्वपूर्ण हैं और साथ ही महत्वपूर्ण है अंतरराष्ट्रीय सहयोग।

बात भारत की –

फ़िलहाल भारत की स्थिति-

भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्‍सर्जन में से 6.8 प्रतिशत का हिस्‍सेदार है।

वर्ष 1990 से 2018 के बीच भारत के ग्रीनहाउस गैसों के उत्‍सर्जन में 172 प्रतिशत की बढ़ोत्‍तरी हुई है

वर्ष 2013 से 2018 के बीच देश में प्रतिव्‍यक्ति उत्‍सर्जन भी 17 फीसद बढ़ा है।

हालांकि अभी भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी20 देशों के औसत स्‍तर से बहुत नीचे है।

देश में ऊर्जा क्षेत्र अब भी ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्‍सर्जनकारी क्षेत्र है।

भारत की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्‍म ईंधन आधारित प्‍लांट्स का योगदान 74 प्रतिशत जबकि अक्षय ऊर्जा की हिस्‍सेदारी 11 फीसद है।

देश की वर्तमान नीतियां वैश्विक तापमान में वृद्धि को तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के अनुरूप फिलहाल नहीं हैं।

इसके लिए भारत को वर्ष 2030 तक अपने उत्‍सर्जन को 1603 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्‍साइड के बराबर (एमटीसीओ2ई) (या वर्ष 2005 के स्‍तरों से 16 प्रतिशत नीचे) रखना होगा।

क्या कदम उठा रही है भारत सरकार?

भारत सरकार का लक्ष्य वर्ष 2027 तक 275 गीगावाट तथा 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का है। अगस्त 2021 तक भारत में 100 गीगावाट स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता है। एक और 50 गीगावाट क्षमता अभी निर्माणाधीन है और 27 गीगावाट क्षमता के संयंत्र अभी निविदा के दौर में हैं।

भारतीय रेलवे वर्ष 2023 तक अपने नेटवर्क के विद्युतीकरण की योजना बना रही है और वह वर्ष 2030 तक नेट शून्‍य कार्बन उत्‍सर्जक बनने की राह पर आगे बढ़ रही है।

पेट्रोल में 20 प्रतिशत एथेनॉल मिलाने सम्‍बन्‍धी वर्ष 2030 तक के लिये निर्धारित लक्ष्‍य को अब 2025 तक के लिये कर दिया गया है।

कार्बन प्राइसिंग : सरकार ने 400 रुपये प्रति टन की दर से कोयला उत्पादन पर जीएसटी मुआवजा उपकर की शुरुआत की है।

जलवायु वित्‍त : भारत औपचारिक रूप से जलवायु वित्त प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है। फिर भी उसने वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) ट्रस्ट फंड के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त प्रदान करना जारी रखा है।

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