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Climate change: Coastal cities in danger | Can India's coastal cities adapt to a warming world?
एक के बाद एक घटनाएं, घनघोर समस्याएं : क्या भारत के तटीय शहर गर्म हो रही दुनिया के प्रति एडाप्ट हो सकते हैं?
जब हम तटीय शहरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में बात करते हैं, तो ओवरराइडिंग इमेजरी ( तस्वीर / कल्पना) पानी में डूबते शहरों, समुद्र का बढ़ते स्तर, और आबादी या यहां तक कि पूरे शहरों के स्थानांतरित होने की है। लेकिन क्या यह तस्वीर भारतीय शहरों में जलवायु परिवर्तन के अनुभव को सही ढंग से दर्शाती है?
तटीय शहर ख़तरे में हैं
इम्पैक्टस्, एडाप्टेशन एंड वल्नेरेबिलिटी (प्रभाव, एडाप्टेशन और भेद्यता) पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) (IPCC) की नवीनतम रिपोर्ट तटीय शहरों पर बहुत विस्तार से चर्चा की गई है। यह तो हम निश्चित रूप से जानते हैं कि विश्व स्तर पर तटीय शहर और बस्तियां जलवायु परिवर्तन की अग्रिम पंक्ति पर हैं, जिसका प्रभाव सीधे लोगों और बुनियादी ढांचे पर पड़ेगा। वे समुद्र के स्तर में वृद्धि का तो सामना करते ही हैं, लेकिन साथ ही कई अन्य जलवायु जोखिमों का भी सामना करते हैं जैसे कि बढ़ते खारे पानी की घुसपैठ जो भूजल और मिट्टी को अनुपयोगी बना सकती है; अधिक गंभीर चक्रवात जो पहले से ही बुनियादी ढांचे और जीवन पर विनाशकारी प्रभाव डाल रहे हैं; भारी वर्षा की घटनाओं के कारण अधिक बार बाढ़ आना; और कुछ स्थानों पर, पानी की बढ़ती कमी और अधिक लगातार हीटवेव / हीटवेव्स (गर्मी की लहरें)। अवलोकन-आधारित आकलनों से हम जो जानते हैं, वह यह है कि इनमें से कई जोखिम तटीय शहरों में समवर्ती रूप से होते हैं - जैसे, उष्णकटिबंधीय चक्रवात और स्टॉर्म सर्ज (तूफानी लहरें) जो गर्मी की लहरों या अर्बन ड्रॉउट (शहरी सूखे) के साथ मेल खाते हैं - यह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम्पाउंड करते हैं। इसके अलावा, ये जलवायु जोखिम अनसस्टेनेबल (अटिकाऊ) और असमान शहरीकरण के साथ प्रतिच्छेद करते हैं, और तटीय शहरों के भीतर कम आय वाले और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए जोखिम को बढ़ाते हैं।
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि तटीय शहरों में जो कुछ भी होता है, उसका रिप्पल इफ़ेक्ट (बार बार पुनर्वृत्ति से प्रभाव का तीव्र होने ) उनसे कहीं परे होता है क्योंकि ये स्थान वैश्विक व्यापार, खाद्य आपूर्ति श्रृंखला, घर के महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण नोड हैं, और अक्सर अद्भुत सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व वाले स्थल होते हैं।
कोलकाता, मुंबई और चेन्नई के महानगरों से लेकर कोच्चि और विशाखापत्तनम तक भारत के तटीय शहरों में बढ़ते जलवायु जोखिम को देखने की अपेक्षा है, और जबकि अध्ययनों में इस पर चर्चा की गई है कि बाढ़, गर्मी और चक्रवात या SLR (एसएलआर) जोखिम कैसे बदलने जा रहे हैं, इस के अपेक्षाकृत नगण्य सबूत हैं कि इन प्रतिष्ठित शहरों की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक-आर्थिक बनावट जलवायु परिवर्तन के कारण कैसे बदलने वाली हैं।
तटीय शहर कैसे एडाप्ट कर सकते हैं? | How can coastal cities adapt?
यदि, अभी, स्थानीय रूप से प्रासंगिक, हाइब्रिड (संकर) हस्तक्षेप किए जाते हैं, तटीय शहर जलवायु जोखिमों का अनुमान लगाने और उनसे बचने का एक जबरदस्त अवसर भी प्रस्तुत करते हैं। अभ्यास में इसका क्या मतलब है? हाल की आईपीसीसी (IPCC) की रिपोर्ट में, हम देखते हैं कि कई मुमकिन एडाप्टेशन विकल्प मौजूद हैं: भूमि को पुनः प्राप्त करके शहर'आगे बढ़ना' चुन सकते हैं या समुद्र की दीवारों का निर्माण करके या तूफान बाधाओं के रूप में कार्य करने वाले मैंग्रोव की रक्षा करके खुद की 'रक्षा' कर सकते हैं। इस तरह के सुरक्षा उपायों को पिछले दो दशकों में सरकार और नागरिक समाज की भागीदारी के साथ बायो-शील्ड्स (जैव-ढाल), जिओटेक्सटाइल ट्यूब (भू टेक्सटाइल ट्यूब) और अन्य साइट-विशिष्ट डिजाइन जैसी, प्रभावशीलता के विभिन्न डिग्री वाली, तकनीकों का उपयोग करके पूरे भारत में लागू किया गया है।
जलवायु जोखिम को प्रबंधित करने और होने से पहले रोकने के अन्य विकल्पों में 'अकोमोडेशन' ('आवास') उपाय शामिल हैं जैसे इमारतों की फ्लड प्रूफिंग (बाढ़-प्रूफिंग) या वेंटिलेशन में सुधार और अत्यधिक गर्मी के प्रभावों को कम करने के लिए पैसिव कूलिंग (निष्क्रिय शीतलन) में निवेश करना। आख़िर में, तटीय शहर और बस्तियां 'रिट्रीट' कर (पीछे हट') सकती हैं, या तो विशिष्ट जनसंख्या समूहों को खतरनाक क्षेत्रों से स्थानांतरित कर या क्षति से बचने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को स्थानांतरित कर।
यहां मुख्य बात यह है कि तटीय शहरों में व्यवहार्य एडाप्टेशन विकल्प मौजूद हैं और भारतीय शहरों का इन उपायों में निवेश करने और उन्हें लागू करने का एक ट्रैक रिकॉर्ड भी है। हालाँकि, एक प्रश्न बना हुआ है, जलवायु परिवर्तन की स्थिति में ये एडाप्टेशन विकल्प कितने प्रभावी होंगे? और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय शहरों का विस्तार (क्षेत्रों और जनसंख्या के अनुसार) जैसे हो रहा है, उसके मद्देनज़र हम यह कैसे सुनिश्चित करें कि ये उपाय पर्याप्त हैं?
तटीय शहरों को एडाप्ट के लिए सक्षम करना
विज्ञान स्पष्ट रूप से दिखाता है कि हाइब्रिड दृष्टिकोण जो समुद्र की दीवारों और प्रकृति-आधारित समाधान जैसे कि मैंग्रोव संरक्षण जैसे बुनियादी ढांचे के समाधानों को जोड़ते हैं, जोखिम को कम करने में सबसे प्रभावी हैं। विशेष रूप से प्रकृति-आधारित समाधानों में कई SDGs (एसडीजी) के लिए सह-लाभ होते हैं। यह आवश्यक है कि ये हाइब्रिड दृष्टिकोण परिवर्तन के तीन अन्य महत्वपूर्ण लेवेरों (उत्तोलकों) द्वारा सक्षम हों - पर्याप्त वित्त, मजबूत लेकिन लचीला अभिशासन, और स्थानीय भागीदारी और व्यवहार परिवर्तन।
तटीय एडाप्टेशन की कुंजी कार्रवाई की तात्कालिकता है। तटीय शहरों में, जहां जोखिम अधिक हैं और बढ़ रहे हैं, कार्रवाई में देरी करने से हमारे द्वारा एडाप्ट करने के विकल्प कम हो जाते हैं। जैसे-जैसे शहरों का विस्तार होता है और नए बुनियादी ढांचे का निर्माण होता है, मैंग्रोव के संरक्षण और अधिक बार आने वाली बाढ़ या तूफान को समायोजित करने की जगह तंग हो जाती है। भारतीय शहर विशिष्ट रूप से स्थित हैं क्योंकि यह अनुमान है कि 2030 में इसके लगभग 80 प्रतिशत निर्मित बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाना बाकी है। यह ये सुनिश्चित करने का एक जबरदस्त अवसर प्रदान करता है कि यह बुनियादी ढांचा जलवायु के प्रति लचीला है और हमारे शहरों को अनसस्टेनेबल (अटिकाऊ) और जोखिम-भरे मार्गों पर लॉक-इन नहीं करता है।
अब हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि भारतीय शहरों में कई जलवायु जोखिम एक साथ आ रहे हैं, कि विभिन्न व्यवहार्य एडाप्टेशन विकल्प मौजूद हैं और विकल्पों के संयोजन अधिक प्रभावी हैं, उन्हें लागू करने के लिए मजबूत शासन और पर्याप्त वित्त की आवश्यकता है, और आखिर में, अभी कार्य करना अनिवार्य है।
डॉ चांदनी सिंह
(लेखिका इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स में पर्यावरण और सस्टेनेबिलिटी के स्कूल में जलवायु परिवर्तन एडाप्टेशन और ग्रामीण और शहरी विकास पर वरिष्ठ शोधकर्ता हैं। वह आईपीसीसी (IPCC) वर्किंग ग्रुप II असेसमेंट रिपोर्ट की लेखिका भी हैं ।)