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देश में माइक, कैमरा और कलमधारी बहुत से पत्रकारों का आत्मसम्मान एकदम से जाग गया है। उन्हें “हवा निकल गई” वाली बात तीर की तरह चुभ गई है। कबीरदास जी होते तो पूछते कि-
“करता था सो क्यों किया, अब करी क्यों पछताय।
बोवे पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय॥“
अब लुप्त हो रही है गलत को गलत कहने की हिम्मत दिखाने वालों की बिरादरी
कौन जाने तब कबीरदास को अयोग्य जुलाहा घोषित कर दिया जाता, क्योंकि वे अपना काम करने के साथ-साथ गलत को गलत कहने की हिम्मत दिखा रहे थे। कबीर जैसी खरी-खरी सुनाने वालों की बिरादरी अब लुप्तप्राय है। लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात रखते हैं। जो सवाल उठाने की हिम्मत दिखाते हैं। राहुल गांधी को ऐसे ही कुछ लोगों में गिना जा सकता है।
पाठक जानते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी के कारण पिछले कुछ वक्त से भारत की राजनीति में कैसी उथल-पुथल मची हुई है। जब तक राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर नहीं निकले थे। तब तक सब कुछ ठीक था। आसमान नीला था, घास हरी थी, संसद सत्र लगते थे, जहां भारी बहुमत से बैठा सत्तारूढ़ दल विपक्ष को कमजोरी का एहसास कराता था, बिना किसी चर्चा के विधेयक पारित होते थे, महंगाई या बेरोजगारी के किसी सवाल पर जवाब देने की जरूरत सत्तारूढ़ दल नहीं समझता था, विपक्ष सत्र में व्यवधान डाले, तो सांसदों पर निलंबन की कार्रवाई या सत्र को अचानक खत्म कर देने के फैसले लिए जाते थे और सारा ठीकरा विपक्ष पर फोड़ दिया जाता था। लेकिन फिर आसमान में सवालों के काले बादल भाजपा को दिखाई देने लगे।
भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी ने बार-बार अडानी-मोदी रिश्तों पर सवाल उठाए। और उसके बाद हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद समूचे अर्थतंत्र में जो तहलका मचा, उसने इन सवालों की पृष्ठभूमि को और मजबूत कर दिया। संसद के बजट सत्र में इन सवालों पर जवाब की मांग मोदी सरकार से की जा रही है। इससे पहले की सवालों की आंधी से ज्यादा नुकसान होता, अचानक चार साल पुराने एक मामले पर अदालत में सुनवाई हुई। राहुल गांधी दोषी करार दिए गए। अगले ही दिन संसद की सदस्यता खत्म हो गई। अब सरकारी घर छोड़ने का नोटिस भी आ ही चुका है। यह सब कूनो में दौड़ने वाले चीतों की फुर्ती से भी तेज गति से हो गया। हालांकि अब एक चीते की मौत की खबर आई है।
लगातार प्रेस से मुखातिब हो रहे हैं राहुल गांधी
बहरहाल, राहुल गांधी ने इस तमाम उथल-पुथल के बीच भी प्रेस कांफ्रेंस करने का सिलसिला नहीं छोड़ा। पत्रकारों ने भले अपना काम करना छोड़ दिया हो, राहुल गांधी ने एक जननेता की भूमिका को ईमानदारी से निभाया है। वे लगभग हर महीने पत्रकारों से मुखातिब होते ही हैं। उनकी प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकार उनसे आम कैसे खाते हैं, इतना काम कैसे कर लेते हैं, थकते नहीं, जैसे आसान सवाल नहीं पूछते। बल्कि पत्रकार होने के सारे तेवर राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस में ही दिखाए जाते हैं।
संसद सदस्यता के खत्म होने के बाद राहुल गांधी की पहली प्रेस काँफ्रेंस
संसद सदस्यता खत्म होने के बाद राहुल गांधी एक बार फिर पत्रकारों के बीच उपस्थित हुए। यह देश के लोकतंत्र में एक अभूतपूर्व घटना है, जब चार बार से किसी सांसद की सदस्यता मानहानि के मामले में हुई सजा के लिए गई। इस प्रकरण पर दुनिया भर के अखबारों ने लिखा, लिहाजा इसका राजनैतिक महत्व भी भारत के पत्रकारों को समझ आ ही रहा होगा कि किस तरह अब देश की राजनीति बदल सकती है, इसका असर लोकतंत्र की सेहत पर कैसा होगा, विपक्ष के सबसे मुखर और दमदार माने जाने वाले नेता को ही सदन से बाहर कर दिया जाएगा, तो क्या सत्ता के निरंकुश होने के खतरे नहीं बढ़ेंगे, क्या यह भारत जोड़ो यात्रा का असर है, जिससे भाजपा दबाव में दिख रही है, इस तरह के कई सवाल राहुल गांधी से किए जा सकते थे, और उन तमाम भाजपा नेताओं से भी, जो राहुल गांधी की आलोचना करने के लिए बार-बार पत्रकारों के सामने आ रहे हैं। इन भाजपा नेताओं से ये पत्रकार यह भी पूछ सकते थे कि प्रधानमंत्री खुद कभी कोई प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करते, ताकि हम उनसे भी इस प्रकरण पर सवाल पूछ सकें, क्योंकि आखिर तो बात मोदी उपनाम पर टिप्पणी और मोदी-अदानी संबंध से ही शुरु हुई है। लेकिन भारतीय मीडिया में ऐसे सवाल प्रमुखता से सुनाई नहीं दिए।
अगर किसी पत्रकार ने ऐसे सवाल किए भी होंगे, तो वह नजर नहीं आए। अगर हमारे देखने में कोई चूक हुई हो, तो उसके लिए अग्रिम खेद प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन हमें तो यही नजर आया कि राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस में बार-बार उनसे एक ही तरह के सवाल को घुमा-फिरा कर किया जा रहा था। जिस ओबीसी के अपमान का आरोप भाजपा लगा रही है, पत्रकार उसी को पूछे जा रहे थे। लिहाजा राहुल गांधी ने दो टूक कह दिया कि सीधे-सीधे भाजपा के लिए काम न करो और बाद में तंज में कस दिया कि हवा निकल गई।
यह तंज मौके पर भले एक पत्रकार की ओर देखकर किया गया होगा, लेकिन हकीकत तो ये है कि राहुल गांधी उन सारे लोगों के लिए ये बात कह रहे थे जो पत्रकारिता के नाम पर सरेआम सत्ता की चापलूसी करते हैं। इस चापलूसी में इन पत्रकारों ने राहुल गांधी समेत विपक्ष के कई नेताओं पर अभद्र टिप्पणियां कीं, उनकी राजनैतिक विचारधारा से अलग उनके निजी जीवन को लेकर आधारहीन बातें कहीं। यह प्रवृत्ति पिछले 9 सालों में बढ़ी है, लेकिन काफी पहले से शुरु हो चुकी थी। तब इस मर्ज का इलाज नहीं किया गया और देश के बड़े मीडिया घराने, स्वनामधन्य पत्रकार इस पर चुप रहे। अब राहुल गांधी ने हवा निकल गई कह दिया, तो अचानक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाने लगी।
पत्रकारों के आत्मसम्मान को ठेस लग गई। राहुल गांधी को ऐसा नहीं कहना चाहिए, ऐसे उलाहने दिए जाने लगे।
राहुल गांधी जब तक सारे अपमान को चुपचाप सह रहे थे, सब सही था। लेकिन उन्होंने पलट कर कुछ कह दिया तो शराफत याद दिलाई जाने लगी है।
ये याद रखना चाहिए कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कई बार पत्रकारों को चेतावनी दी कि आपका रिमोट कहीं और है, आप को कठपुतली की तरह नचाया जा रहा है। अब इसी बात को कुछ और तल्खी के साथ उन्होंने कहा है। अब इस पर कहीं निंदा प्रस्ताव पेश हो या उनके बयान की आलोचना हो, इससे हालात बदल नहीं जाएंगे।
जब पत्रकारों को सवाल पूछने के लिए, सत्ता के खिलाफ खड़े होने के लिए गंभीर अपराधों का आरोपी बनाया गया, कई पत्रकारों को जेल भेजा गया, जब प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत के नीचे गिरा, तब निंदा प्रस्ताव पेश किए जाते तो पत्रकारिता की हवा ऐसी नहीं निकलती।
अब तो आलम ये है कि पत्रकार एक मुख्यमंत्री से सीधे-सीधे सवाल कर रहे हैं कि आरोपी को ले जा रही गाड़ी पलटेगी या नहीं, और मुख्यमंत्री जवाब दे रहे हैं कि दुर्घटना तो कहीं भी हो सकती है। ये पुलिस मुठभेड़ों को स्वीकृति दिलाने की कोशिश है और अदालत का अपमान है। एक आरोपी के मूत्र विसर्जन को टीवी स्क्रीन पर दिखाया जा रहा है कि ये सबसे तेज कवरेज है। किसी की निजता, मानवाधिकारों का कोई ख्याल नहीं है। पत्रकारिता को रसातल में पहुंचा कर अब पत्रकारों के सम्मान की दुहाई देना बेकार है। राहुल गांधी ने तो आईना ही दिखा दिया, जिनमें हिम्मत है वे सच्चाई देख लें। बाकी आम खाने की कला सीखें।
- सर्वमित्रा सुरजन
(लेखिका देशबन्धु की संपादिका हैं।)