संघर्ष और जीवन के बीच ग़ज़ब का तालमेल बैठाना हमने इलीना सेन से सीखा

hastakshep
10 Aug 2020
संघर्ष और जीवन के बीच ग़ज़ब का तालमेल बैठाना हमने इलीना सेन से सीखा

प्रोफेसर इलीना सेन के छात्र रहे पत्रकार दिलीप खान की टिप्पणी

Comment of journalist Dilip Khan, a student of Professor Ilina Sen

जब मैं वर्धा पहुंचा तो बिनायक सर (सेन) गिरफ़्तार हो चुके थे. यूपीए सरकार ने उन्हें नक्सलों का मददगार बताकर जेल में बंद कर रखा था. तब तक इलीना मैम से मेरा कोई परिचय नहीं था. इंटरव्यू बोर्ड में वो इकलौती थीं, जो पत्रकारिता के छात्र से मौजूदा दौर के बारे में कुरेद कर उसकी राय जानना चाह रही थीं.

जब छात्र बोर्ड को प्रभावित कर रहे होते हैं, ठीक उसी वक़्त बोर्ड के सदस्य भी छात्र-छात्राओं को प्रभावित कर रहे होते हैं.

पत्रकारिता की पढ़ाई में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में कई ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को काफ़ी विस्तार से सिलेबस में जगह मिली हुई है. मसलन, संपादक के गुण, शीर्षक के प्रकार वग़ैरह. ये सब पढ़ाने के लिए हुनर चाहिए, हम ऊबकर क्लास से भाग जाते थे.

हमारा डिपार्टमेंट छोटा था. वीमन स्टडीज़ का विभाग हमारी तुलना में काफी भरा-पूरा था. इलीना मैम के संपर्क से बाहर से कमाल के लोग पढ़ाने आते थे.

हमारा आधा वक़्त वहीं गुज़रने लगा. ख़ासकर सैद्धांतिकी और फ़लसफ़ा के लिए हम वहीं जाकर बैठ जाते थे. क्लास के बाद कुछ हासिल होने का एहसास होता था.

इन सबके बीच इलीना मैम बिनायक सर की रिहाई के लिए भी समानांतर अथक मेहनत करती रहीं, लेकिन क्या मजाल कि कैंपस में उनके चेहरे पर कोई परेशानी दिख जाएं!

वो ना होतीं तो शायद बिनायक सर को और लंबा वक़्त सलाखों के पीछे गुज़ारना पड़ता.

उनका असर हर डिपार्टमेंट के स्टूडेंट्स के ऊपर था. हालत ये हो गई कि हमसे दो बैच पहले वालों में से कई लोगों ने मास कॉम में MA करने के बाद वीमन स्टडीज़ में M.Phil में दाख़िला ले लिया.

हम पढ़ने के दौरान रायपुर जाकर प्रोटेस्ट भी कर आते थे. समाज-राजनीति-राष्ट्र इन सबको लेकर नज़रिया ठोस होने लगा था.

संयोग से हमारे 3BHK होस्टल की दीवार इलीना मैम के घर से मिलती थी. फुरसत होने पर कैंपस के बाहर भी दुनिया भर की चर्चा हो जाती थी, लेकिन मिलने-जुलने के मामले में अपनी हिचक की वजह से फ्रिक्वेंसी फिर भी कम होती.

वर्धा छूटे 10 साल हुए. इस दौरान उनसे मात्र दो मुलाक़ात रही दिल्ली में. वो लगातार हमारे बारे में कॉमन लोगों से पूछती रहतीं.

पिछले साल बाबा प्रशांत (प्रत्युष प्रशांत) से मैंने कहा था कि अबकी इत्तला करना, उनके साथ थोड़ा लंबी बैठकी करनी है. बाबा ने यही बताने के लिए फ़ोन किया था कि मैम पूछ रही थीं.

काफी समय से वो बीमार थीं. फिर भी लगातार सक्रिय बनी रहीं. उनसे संघर्ष और जीवन के बीच ग़ज़ब का तालमेल बैठाना हमने सीखा है. अलविदा प्रोफ़ेसर!!

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