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Communal politics of the Rashtriya Swayamsevak Sangh-Bharatiya Janata Party
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भारतीय जनता पार्टी की साम्प्रदायिक राजनीति, भले ही अंशकालिक ही, एक जाम में फंसी गई है। मतों के दोहन के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति (The politics of communal polarization) का बखूबी इस्तेमाल करना वे जानते हैं। यह तरीका गुजरात में काम आया और कुछ हद तक देश के पैमाने पर भी कामयाब रहा। उन्हें लगा कि यह पूर्वोत्तर व जम्मू-कश्मीर में भी काम करेगा। कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उन्हें इन इलाकों में भी सफलता मिल जाएगी और साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की आलोचना करने वालों के मुंह बंद हो गए। भाजपा ने असम में तो सरकार बना ली और जम्मू-कश्मीर में आश्चर्यजनक ढंग से उसने गठबंधन की सरकार बना ली थी। लेकिन जब इस राजनीति को उन्होंने एक हद से आगे ले जाने की कोशिश की तो उसके परिणाम प्रतिकूल निकले।
पूर्वोत्तर के बहु-अस्मिता वाले समाज में विभिन्न समुदायों की जनसंख्या छोटी होने के कारण उनको हमेशा बाहरी लोगों के बड़ी संख्या में आकर उनपर हावी होने की आशंका बनी रही है। उनकी चिंता स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने की रही है। भाजपा ने बाहरी लोगों के लिए इसी भय की भावना पर सवारी करते हुए असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की प्रकिया शुरू की। उसे लग रहा था कि बाहरी, यानी बंग्लादेश से आए, ज्यादातर मुस्लिम होंगे। किंतु उसने यह अपेक्षा नहीं की थी कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से छूटे लोगों में बहुसंख्क हिन्दू होंगे। ऐसी स्थिति में उसने एक साम्प्रदायिक हथकंडे का इस्तेमाल किया। वह नागरिकता संशोधन विधेयक (Citizenship Amendment Bill) का प्रस्ताव लेकर आई जिसमें मुसलमान को छोड़कर बंग्लादेश, अफगानिस्तान व पाकिस्तान से आए सभी को भारत के नागरिक बनने का अधिकार दिया गया। किंतु उसे यह अंदाजा नहीं था कि असम या पूर्वोत्तर व जम्मू-कश्मीर का समाज उस तरह से साम्प्रदायिक नहीं है जैसे कि हिन्दी भाषी इलाके, गुजरात या महाराष्ट्र का, जहां लोगों को सिर्फ धर्म के आधार पर बांटा जा सके। इन इलाकों में स्थानीय पहचान, उदाहरण के लिए कश्मीरियत, ज्यादा अहम है।
जो विरोध प्रदर्शन पूर्वोत्तर से शुरू हुए वे अब पूरे देश में फैल गए हैं।
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की प्रकिया से वे सभी भूमिहीन या सम्पत्तिविहीन लोग चिंतित हैं जिनके पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है कि वे साबित कर सकें कि उनके पूर्वज भारत के निवासी थे और नागरिकता संशोधन अधिनियम मुसलमान की गर्दन पर लटकती तलवार है कि यदि वह अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाया तो उसे अपराधी की तरह जेल में कैदी की तरह रखा जाएगा।
तीन देशों के मुसलमानों को देश की नागरिकता से वंचित करना एक साम्प्रदायिक औजार से हमारे संविधान में हरेक इंसान, सिर्फ नागरिक ही नहीं, को कानून के सामने जो बराबरी का अधिकार मिला हुआ है उसे ध्वस्त करना है। यह इस देश में विभिन्न स्तर की नागरिकताओं को स्थापित करने की प्रक्रिया की शुरुआत होगी। जैसे पाकिस्तान में लाहौर में रहने वाले पंजाबी को देश के प्रति सबसे वफादार माना जाता है, लाहौर के बाहर पंजाब में रहने वाले पंजाबियों की वफादारी थोड़ी कम मानी जाती है, गैर-पंजाबियों की वफादारी उससे और भी कम मानी जाती है और पंजाब व सिंध के बाहर रहने वाले पाकिस्तानियों की तो नागरिकता ही संदिग्ध मानी जाती है।
यदि रा.स्वं.सं. व भाजपा कुछ समय और भारत की राजनीतिक दिशा तय करते रहे तो धीरे-धीरे यह व्यवस्था कायम हो जाएगी कि नागपुर के ब्राह्मण देश के सबसे अव्वल दर्जे के नागरिक माने जाएंगे, नागपुर के बाहर रहने वाले ब्राह्मणों की वफादारी थोड़ी कम मानी जाएगी, महाराष्ट्र से बाहर रहने वाले ब्राह्मणों की नागरिकता का स्तर उससे भी कम होगा और सभी गैर-ब्राह्मणों, खासकर दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, उसमें भी मुसलमानों, की नागरिकता तो हमेशा संदेह के दायरे में रहेगी। न्यायालयों की इस तरह की व्यवस्था के लिए मौन सहमति रहेगी क्योंकि उन्हें हिन्दुत्व की विचारधारा से कोई खास दिक्कत नहीं दिखाई देती।
नागरिकता पर सरकार की इस पहल से संविधान की भावना व देश के सामाजिक ताने-बाने को अपूर्तिनीय क्षति पहुंचेगी। न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी व बंधुत्व के मूल्यों पर आधारित एक आदर्श समाज की रचना की दिशा में हमने जो भी प्रगति की है उस पर पानी फिर जाएगा। हिन्दुत्व की राजनीति को आगे बढ़ने से रोकने के लिए उनके ध्वजवाहकों को सत्ताच्युत करना होगा।
भारत नामक सभ्यता के इतिहास में पहली बार हो रहा है कि बाहर से आने वाले किसी को रोका जा रहा है। विश्व धर्म संसद के अपने प्रसिद्ध भाषण में स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म की यह खासियत बताई थी कि बाहर से आने वाले किसी को भी भारतीय समाज ने अपने में समाहित किया है। रोहिंग्या समुदाय पहले ऐसे लोग थे जिन्हें हिन्दुत्ववादी सरकार ने भारत में आने से रोका। और अब नागरिकता संशोधन अधिनियम के माध्यम से सरकार इस भेदभाव को संस्थागत रूप देना चाहती है।
अमित शाह कहते हैं कि चुन-चुन कर इस देश से घुसपैठियों को निकालेंगे। जरा गौर से देखने की जरूरत है कि हमारी व्यवस्था में सबसे बड़े घुसपैठिए कौन हैं?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या हिन्दुत्ववादी संगठनों का कोई भी कार्यकर्ता आजादी के आंदोलन में जेल नहीं गया सिवाय विनायक दामोदर सावरकर को छोड़कर, जो माफी मांग कर जेल से बाहर निकल आए और अंग्रेजों से पेंशन लेते थे। इन संगठनों ने राष्ट्र निर्माण के लिए कोई बलिदान नहीं दिया। न तो इनका देश के संविधान में विश्वास है और न ही लोकतंत्र में। इन्होंने भाजपा के माध्यम से तिकड़म और पैसे के बल पर भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया है। इस देश के बहुसंख्यक लोग अभी भी हिन्दुत्व की विचारधारा के समर्थक नहीं हैं लेकिन यह सरकार निर्णय तो ऐसे ले रही है जैसे देश की पूरी जनता ने उसे अधिकृत किया हो। हिन्दुत्व की विध्वंसकारी विचारधारा से बचने का एक ही तरीका है कि इनके लोग जो हमारी विधान सभाओं व संसद में घुस गए हैं उन्हें वहां से निकाला जाए।
इस देश की व्यवस्था में सबसे खतरनाक घुसपैठिए, जिनसे देश को बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है, रा.स्वं.सं.-भाजपा के लोग हैं।
अखिल गोगोई, जो कृषक मुक्ति संग्राम समिति के सलाहकार और असम के शायद सबसे लोकप्रिय जमीनी नेता हैं, को हाल में विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया है। उनके ऊपर आरोप है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने के अवसर का लाभ उठा विभिन्न समुदायों में धर्म, नस्ल, जन्मस्थान, निवास, भाषा के आधार पर विद्वेष पैदा किया, सद्भावना को बनाए रखने के लिए खतरा हैं, प्रतीकात्मक अथवा भाषण द्वारा देश की सुरक्षा व सम्प्रभुता को खतरे में डाला है जिससे राष्ट्रीय एकीकरण प्रभावित होगा। देश की वर्तमान परिस्थितियों में उपर्युक्त विवरण में अखिल गोगोई की जगह यदि भारत सरकार को रख दिया जाए तो सारे आरोप उसके ऊपर एकदम सही बैठते हैं। सरकार आज देश की दुश्मन बन गई है।
लेखकः संदीप पाण्डेय व राहुल पाण्डेय
(संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से सम्बद्ध हैं व राहुल प्रोफेसर, उद्यमी व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)