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कांग्रेस चिंतन शिविर : राहुल राजनीतिक समझदारी से एक बार फिर दूर दिखे

BREAKING : राहुल गांधी के काफ़िले पर यूपी पुलिस का लाठी चार्ज, कार्यकर्ताओं के साथ धक्का-मुक्की

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कांग्रेस चिंतन शिविर और राहुल गांधी का संकट

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क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस (Country's oldest party Congress) में अपने अतीत की गलतियों से सबक लेने की तमीज और निराशा से उबरने की इच्छा शक्ति है? क्या कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को नकार दिया है ? क्या राहुल गांधी फिर एक बार अपरिपक्व नेता साबित हुए हैंचर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन

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आजादी के बाद अपने इतिहास की सर्वाधिक दारुण अवस्था से गुजर रही कांग्रेस पार्टी ने तीन दिनों तक अपनी मौजूदा दशा और दिशा पर चिंतन करने के बाद जो संकल्प पत्र जारी किया है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे नया अथवा मौलिक कहा जा सके। मोटे तौर पर संकल्प पत्र का सार यही है कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी में अपनी मौजूदा दुर्दशा के कारणों की शिनाख्त करने, इतिहास से सबक लेने और मौजूदा राजनीति की जमीनी हकीकत को समझने की न तो तमीज है और न ही अपनी दर्दनाक हालत से उबरने की इच्छाशक्ति। सबसे ज्यादा निराशाजनक रहा कांग्रेस के भूतपूर्व और भावी अध्यक्ष राहुल गांधी का दंभ भरा यह ऐलान (conceit announcement of former and future Congress President Rahul Gandhi) कि कांग्रेस पार्टी अकेले ही भाजपा से लड़ेगी, क्योंकि क्षेत्रीय दलों में भाजपा से लड़ने की कूबत नहीं है।

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गठबंधन की राजनीति पर राहुल गांधी के ऐलान और पार्टी के पारित संकल्प में विरोधाभास है क्यों है?

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चिंतन शिविर के आखिरी दिन राहुल गांधी ने समापन भाषण देते हुए कहा, ''हमें जनता को बताना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं है, वे सिर्फ जाति की राजनीति करती हैं। इसलिए वे कभी भी भाजपा को नहीं हरा सकतीं और यह काम सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है।''

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राहुल का यह बयान साफ तौर पर इस बात का संकेत है कि कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को एक बार फिर नकार दिया है, लेकिन उनके इस ऐलान और गठबंधन की राजनीति पर पार्टी द्वारा गठबंधन की राजनीति पर पारित संकल्प में काफी विरोधाभास है।

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राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडगे की अध्यक्षता वाली एम्पावर्ड कमेटी की सिफारिश के आधार पर गठबंधन की राजनीति को लेकर पारित हुआ संकल्प राहुल के बयान से बिल्कुल अलग है।

इस संकल्प में कहा गया है, ''कोई भी क्षेत्रीय दल अकेले भाजपा को नहीं हरा सकता, इसलिए राष्ट्रीयता की भावना और लोकतंत्र की रक्षा के लिए कांग्रेस सभी समान विचारधारा वाले दलों से संवाद और संपर्क स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप उनसे जरूरी गठबंधन के रास्ते खुले रखेगी।''

गठबंधन की राजनीति को लेकर पार्टी के इस संकल्प और राहुल गांधी के भाषण की भाषा और ध्वनि बिल्कुल अलग है।

जाहिर है कि या तो राहुल ने भाषण देने के पहले अपनी पार्टी के संकल्प को ठीक से न तो पढ़ा और न ही सुना या फिर उनके भाषण के नोट्स तैयार करने वाले किसी सलाहकार ने अपनी अतिरिक्त अक्ल का इस्तेमाल करते हुए संकल्प से हटकर गठबंधन की राजनीति को खारिज करने वाली बात उनके भाषण में डाल दी हो।

जो भी हो, दोनों ही बातें राहुल को एक अपरिपक्व नेता के तौर पर पेश करती हैं और उनकी उस छवि को पुष्ट करती हैं जो भाजपा ने भारी-भरकम पैसा खर्च करके अपने आईटी सेल और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया के जरिए बनाई है।

कोई नई बात नहीं कांग्रेस का गठबंधन की राजनीति को नकारना

कांग्रेस नेतृत्व के तौर पर राहुल का गठबंधन की राजनीति को नकारना कोई नई बात नहीं है। इससे पहले 1998 में पचमढ़ी के चिंतन शिविर (Congress's contemplation camp of Pachmarhi) में भी उन्होंने गठबंधन की राजनीति को नकारकर 'एकला चलो' की राह पर चलने का फैसला किया था। हालांकि उस समय तक देश में गठबंधन की राजनीति का युग शुरू हो चुका था और केंद्र में गठबंधन की पांचवीं सरकार चल रही थी। उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी लेकिन उसने गठबंधन की राजनीति को कुबूल नहीं किया और 1999 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा जिसमें उसे फिर हार का मुंह देखना पड़ा था।

गठबंधन की राजनीति को कांग्रेस ने कब स्वीकार किया?

विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस को फिर अपने भविष्य की चिंता सताने लगी तो उसने शिमला में चिंतन शिविर आयोजित किया। उस शिविर में उसने 'एकला चलो' का रास्ता छोड़ गठबंधन की राजनीति (coalition politics) को स्वीकार किया। 1998 में 24 छोटे-बड़े दलों के गठबंधन के बूते प्रधानमंत्री बनने के बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और मजबूत होकर उभरे थे।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का गठन कब हुआ?

उस समय कांग्रेस के नेताओं को लगने लगा था कि अब अगर कांग्रेस ने भी गठबंधन राजनीति को नहीं अपनाया तो पार्टी कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी। लिहाजा कांग्रेस ने नीति बदली। इसका उसे फायदा भी हुआ और उसने 2004 में सत्ता में वापसी की। हालांकि हकीकत यह है कि 2004 में एक-दो राज्यों में हुए गठबंधनों को छोड़ दें तो कांग्रेस लगभग अकेले ही लड़ी थी और बहुमत से दूर रही थी। फिर भी, चुनाव के बाद भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की अगुवाई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (United Progressive Alliance -यूपीए) का गठन हुआ था, जो एक दशक बाद 2014 का चुनाव आते-आते कांग्रेस की तंगदिली के चलते काफी हद तक बिखर गया था।

देश की राजनीति में गठबंधन का इतिहास

दरअसल देश की राजनीति में गठबंधन का युग (The era of coalition in Indian politics) शुरू हुए तीन दशक से ज्यादा समय हो चुका है और उसमें दस साल तक कांग्रेस खुद भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है, इसके बावजूद पिछले आठ वर्षों के दौरान जीर्ण-शीर्ण हो चुकी कांग्रेस का नेतृत्व और उसके सलाहकार अभी भी इस जमीनी हकीकत को हजम नहीं कर पा रहे हैं कि केंद्र में उसके अकेले राज करने के दिन अब लद चुके हैं। वे इस बारे में उस भाजपा से भी सीखने को तैयार नहीं हैं, जिसने पिछले तीन दशकों में अपने प्रभाव क्षेत्र का व्यापक विस्तार कर लेने के बावजूद गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है।

चुनाव में सीटों का बंटवारा हो या सत्ता में साझेदारी, किसी भी मामले में भाजपा अपने गठबंधन के साझेदारों के प्रति उदारता दिखाने में पीछे नहीं रहती है। अपनी इसी उदारता और राजनीतिक समझदारी के बूते ही अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में दो दर्जन से भी ज्यादा दलों के गठबंधन के साथ छह वर्षों तक उसकी सरकार चलती रही। पिछले दो चुनाव में तो पूर्ण बहुमत मिल जाने के बावजूद उसने अपने गठबंधन के सहयोगियों को सत्ता में साझेदार बनाने में कोई संकोच नहीं किया।

क्या क्षेत्रीय दल भाजपा से लड़ने में अक्षम हैं? | Are regional parties incapable of fighting the BJP?

चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने अपने भाषण में क्षेत्रीय दलों को भाजपा से लड़ने में अक्षम बताया है। राहुल गांधी का यह बयान भी तथ्यों से परे है। हकीकत तो यह है कि पिछले आठ वर्षों के दौरान भाजपा को चुनौती देने या अपने प्रदेशों में रोकने का काम क्षेत्रीय दलों ने ही किया है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड आदि राज्य अगर आज भाजपा के कब्जे में नहीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ क्षेत्रीय दलों की बदौलत ही।

यही नहीं, बिहार में भी अगर भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है तो इसका श्रेय वहां की क्षेत्रीय पार्टियों को ही जाता है। इनमें से कई राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव रहा है, जिसे राहुल ने अपने अहंकारी बयान से खोया ही है।

पिछले दिनों पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव तो कांग्रेस ने अपने ही बूते पर लड़े थे और उनमें उसकी क्या गत हुई है, यह भी राहुल गांधी को नहीं भूलना चाहिए।

क्या भाजपा सरकार के खिलाफ कोई खास चुनौती पेश कर पाई है कांग्रेस?

जहां तक भाजपा और उसकी सरकार की विभाजनकारी एवं जनविरोधी नीतियों (Divisive and anti-people policies of BJP and its government) के खिलाफ संघर्ष की बात है, इस मोर्चे पर भी कांग्रेस का पिछले आठ साल का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। इस दौरान अनगिनत मौके आए जब कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन के जरिए अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतार आम जनता से खुद को जोड़कर इस सरकार को चुनौती दे सकती थी, परन्तु किसी भी मुद्दे पर वह न तो संसद में और न ही सड़क पर प्रभावी विपक्ष के रूप में अपनी छाप छोड़ पाई।

नोटबंदी और जीएसटी से उपजी दुश्वारियां हों या पेट्रोल-डीजल के दामों में रिकार्ड तोड़ बढ़ोतरी से लोगों में मचा हाहाकार, बेरोजगारी तथा खेती-किसानी का संकट हो या जातीय और सांप्रदायिक टकराव की बढ़ती घटनाएं या फिर किसी राज्य में जनादेश के अपहरण का मामला, याद नहीं आता कि ऐसे किसी भी मुद्दे पर कांग्रेस ने कोई व्यापक जनांदोलन की पहल की हो। उसके नेताओं और प्रवक्ताओं की सारी सक्रियता और वाक शौर्य सिर्फ टीवी कैमरों के सामने या ट्वीटर पर ही दिखाई देता है।

ऐसी स्थिति में राहुल गांधी का अकेले भाजपा का मुकाबला करने का इरादा जताना उन्हें अपरिपक्व नेता साबित करता है और साथ ही यह भी साबित करता है कि उनके करीबी सलाहकार कहीं और से निर्देशित होकर कांग्रेस को आगे भी लंबे समय तक विपक्ष में बैठाए रखने की योजना का हिस्सा बने हुए हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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