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क्यों कांग्रेस के शीर्ष पर 'गांधी' परिवार का कोई विकल्प दूर-दूर तक नजर नहीं आता?

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hastakshep
30 Oct 2021
भाजपा के गुंडों ने पत्रकार को बेरहमी से पीटा, राहुल ने पूछा कुछ चुनिंदा पत्रकारों के लिए ही अधिकार याद आएँगे क्या ?

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गंभीर अनिश्चितताओं को खुद न्यौत लिया है कांग्रेस ने | Congress itself has invited serious uncertainties

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अचरज की बात नहीं है कि पंजाब सरकार में पिछले ही महीने हुए उलट-फेर पर कई टिप्पणीकारों ने अपनी इस धारणा को दोहराया था कि कांग्रेस, आत्मघात की प्रवृत्ति से ग्रस्त नजर आती है। विधान सभाई चुनाव से चंद महीने पहले, मुख्यमंत्री बदलने और पंजाब में पहली बार एक दलित को मुख्यमंत्री बनाने के पैंतरे (Mantras to make Dalit Chief Minister) से, कांग्रेस पंजाब में अपनी सरकार बचा पाती है या एक और राज्य में सरकार उसके हाथ से निकल जाती है, यह तो आने वाले वक्त ही बताएगा। लेकिन, इतना तो तय है कि इस कदम से कांग्रेस ने, ऐतिहासिक किसान आंदोलन के पृष्ठभूमि में, कम से कम प्रकटत: जीती नजर आती बाजी में, गंभीर अनिश्चितताओं को न्यौत लिया है।

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कांग्रेस नेतृत्व की विफलताओं को दिखाता है छत्तीसगढ़, राजस्थान का संकट

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इतना ही नहीं, इस उलट-फेर ने जिस तरह से खुद कांग्रेस में चौतरफा असंतोष को तथा राज्य में पार्टी में एक गंभीर व संभावित रूप से घातक विभाजन को भड़काया है, उसे देखते हुए यह कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस का प्रभावी नेतृत्व, संगठन को संभालने के मामले में एकदम अनाड़ी साबित हो रहा है। इस सब के ऊपर से, पंजाब की हाल की उथल-पुथल ने, जिस तरह से राजस्थान और छत्तीसगढ़ की दोनों अन्य कांग्रेसी सरकारों में अंदरूनी उठा-पटक तथा खींच-तान को नये सिरे से हवा दे दी, वह भी कांग्रेस नेतृत्व की चुनौतियों को ही नहीं, विफलताओं को भी दिखाता है।

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फिर से हरकत में आ गया जी-23

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अचरज नहीं कि इस संकट के साथ ही, जी-23 कहलाने वाला, कांग्रेस नेताओं का वह ग्रुप भी फिर से हरकत में आ गया, जिसने पिछले साल सामूहिक रूप से एक पत्र लिखकर, कांग्रेस के प्रभावी नेतृत्व की कार्य-पद्घति पर कई सवाल उठाए थे। इस सब के साथ अगर हम मिसाल के तौर पर गोवा में कांग्रेस में बड़ी टूट को और जोड़ लें तो, एक कमोबेश बिखरती हुई पार्टी की ही तस्वीर नजर आती है।

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राहुल गांधी की समस्याएं बढ़ाने का ही काम किया उनके इस्तीफे ने

इस सब को देखते हुए, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में सब कुछ ठीक होना तो दूर, संकट ही संकट हैं। जाहिर है कि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते हुए, राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद, कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर पैदा हुई अनिश्चितता ने, उसकी समस्याएं बढ़ाने का ही काम किया है।

बेशक, इस सब की पृष्ठभूमि में और ज्ञात असंतुष्टों के बार-बार मांग करने के बाद बुलाई गई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में, एक ओर श्रीमती सोनिया गांधी के जोर देकर इसकी याद दिलाने कि 'वह पूर्णकालिक अध्यक्ष' हैं और पार्टी में चुनाव के अगले साल भर चलने वाले कार्यक्रम की घोषणा किए जाने के बाद, असंतोष कुछ थमा जरूर है। लेकिन, इसे कांग्रेस के लिए अस्थायी राहत से ज्यादा नहीं माना जा सकता है।

वास्तव में अगले साल के शुरू में होने जा रहे विधानसभाई चुनावों के बाद, राहुल गांधी के दोबारा अध्यक्ष पद संभालने से भी, जिसकी काफी संभावनाएं नजर आती हैं, कांग्रेस के संकट का कोई टिकाऊ हल निकल आएगा, यह मानना मुश्किल है।

तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि कांग्रेस का वर्तमान संकट केवल या मुख्यत: उसके वर्तमान नेतृत्व की और उसमें भी खासतौर पर ''गांधी परिवार'' परिवार कहलाने वाले नेतृत्व कुल की, सीमाओं-विफलताओं का ही नतीजा है। ऐसा मानने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या भी कम नहीं है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा जैसे कई बुद्धिजीवी तो गांधी परिवार की मौजूदगी को ही कांग्रेस की सारी समस्याओं की जड़ और उसकी विदाई को सारी समस्याओं का समाधान बताते भी रहे हैं। जी-23 द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे भी घुमा-फिराकर इसी ओर इशारा करते हैं, हालांकि प्रकटत: उनकी मांगें एक व्यवस्थित, कहीं ज्यादा औपचारिक सांगठनिक व्यवस्था की ही लगती हैं, जिन्हें अपने आप में जनतांत्रिक मांगें भी कहा जा सकता है। वास्तव में इनमें कई मांगें ऐसी हैं जिन पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है और इन्हें पूरा किए जाने के जरिए सांगठनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने से कांग्रेस को कुछ लाभ भी मिल सकता है। निर्णय प्रक्रियाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी व जनतांत्रिक बनाने की तो, खासतौर पर ज्यादा जरूरत है।

लेकिन, अगर कोई यह सोचता है कि जी-23 की मांगें स्वीकार करने से ही या एक प्रभावी नेतृत्व जुटाने समेत, संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने से ही, कांग्रेस की मौजूदा समस्याएं हल हो सकती हैं, तो यह उसकी भारी भूल होगी। यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस आज जिन समस्याओं का सामना कर रही है, उनका संबंध उसके नेतृत्व तथा संगठन की कमजोरियों से उतना नहीं है, जितना उसके जनाधार के घटने और उसके सत्ता से दूर से दूर खिसकते जाने से है। शासक वर्ग से जुड़ी पार्टी के नाते, एक पार्टी के रूप में ही नहीं बल्कि नेतृत्व के साथ भी जो गोंद कांग्रेसियों को चिपकाए रहता था, वह सत्ता से दूरी की इस धूप में सूखता जा रहा है। ऐसे में नेतृत्व से कुछ जायज तो ज्यादा झूठी शिकायतों समेत, तरह-तरह के बहानों से, बिखराव का सिलसिला बढ़ता जा रहा है।

इस संदर्भ में सिंधिया, पायलट, सुष्मिता देब, जतिन प्रसाद आदि आदि, राहुल गांधी के नजदीकी माने जाने वाले, अपेक्षाकृत युवा नेताओं का कांग्रेस से अलग होना, विशेष रूप से अर्थपूर्ण है, जिसने कांग्रेस पार्टी के ढांचे को जनतांत्रिक बनाने के राहुल गांधी के बहुचर्चित मिशन को, जो अपनी सारी नेकनीयती के बावजूद, काफी हद तक किताबीपन का मारा हुआ था, अब पूरी तरह अप्रसांगिक ही बना दिया है। इस सिलसिले में इसका जिक्र करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि जी-23 द्वारा दर्ज कराई गई आपत्तियों में, राहुल गांधी के खासतौर पर युवाओं के संगठनों के नेतृत्व के लिए जनतांत्रिक तरीके से चुनाव कराने पर आपत्तियां भी शामिल थीं।

कहने का आशय यह कि सत्ता से दूरी के चलते कांग्रेस में बढ़ते बिखराव को, जनतांत्रिक चुनाव या युवतर नेतृत्व को आगे बढ़ाने जैसे किसी सरल फार्मूले को तो छोड़ें, तमाम सांगठनिक उपायों से भी हल नहीं किया जा सकता है।

कांग्रेस के बढ़ते बिखराव का समाधान, उसके जनाधार में बढ़ती गिरावट को रोकने, इस गिरावट को पलटने तथा उसके जन-समर्थन को और बढ़ाने के रास्ते से ही निकल सकता है। और इसका एक ही तरीका है कि जनता के बढ़ते हिस्से, उसे मौजूदा मोदी-शाह निजाम के विकल्प के रूप में देखें, उस पर मौजूदा हालात में बदलाव लाने के लिए भरोसा करने के लिए तैयार हों। बेशक, कांग्रेस का वर्तमान प्रभावी नेतृत्व इस बात को समझता है और खासतौर पर राहुल तथा प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लड़ाकू तेवर देने के अपने प्रयासों के जरिए, अपनी ओर से इसके लिए सचेत रूप से प्रयास भी कर रहा है। इस पहलू से वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व, जी-23 की आलोचनाओं न सिर्फ झुठलाता नजर आता है बल्कि खुद जी-23 को अपने जमीनी गतिविधियों व संघर्षों से कटे होने की आलोचनाओं का, जवाब देना पड़ रहा है। इसीलिए, सारे संकटों के बावजूद, कांग्रेस के शीर्ष पर 'गांधी' परिवार का कोई विकल्प दूर-दूर तक नजर नहीं आता है।

लेकिन, सिर्फ नेतृत्व के इस लड़ाकू तेवर से भी कांग्रेस, जनता के बढ़ते हिस्से को अपने पीछे लामबंद करने में कामयाब होती नजर नहीं आती है। सत्ताधारी भाजपा से बढ़ते जन-असंतोष के बावजूद, भाजपा से जहां सीधे मुकाबला है वहां भी कांग्रेस, उसे पछाड़ने में समर्थ होती नजर नहीं आती है। विधानसभाई चुनाव के पिछले चक्र में असम का नतीजा, इसका सबूत है। इसकी मुख्य वजह यह है कि अपने नेतृत्व के सारे लड़ाकू तेवर के बावजूद, कांग्रेस नीतियों के स्तर पर मोदी राज का कोई सुसंगत, जनहितकारी विकल्प पेश नहीं कर पा रही है। ऐसा सुसंगत विकल्प तो वह मोदी राज द्वारा लागू की जा रही, अमीरपरस्त नवउदारवादी नीतियों से अलग, एक मेहनतकश-गरीब हितकारी नीतियों के मंच को अपनाने के जरिए ही पेश कर सकती है।

लेकिन, जनहित के पहलू से पूरी तरह से दिवालिया हो चुकी नवउदारवादी नीतियों का मोह, इन नीतियों के दीवालियापन को पहचानने और कई ठोस मुद्दों पर इन नीतियों के विरोध में आवाज उठाने के बावजूद, ऐसा मूलगामी नीतिगत मंच अपनाने से कांग्रेस को रोकता है। कांग्रेस की यही दुविधा उसकी असली कमजोरी है। और इस कमजोरी को और भी घातक बनाती है संघ-भाजपा की बहुसंख्यकवाद की तुरुप की काट के लिए हड़बड़ी में कांग्रेस की नरम हिंदुत्व को हथियार बनाने की कोशिशें। ये कोशिशें, मोटे तौर पर सर्वधर्म समभाव की परंपरा में बने रहने के कारण, धर्मनिरपेक्षता का सीधे-सीधे उतना नुकसान नहीं करती हैं, जितना नुकसान संघ-भाजपा के ज्यादा से ज्यादा उग्र होते सांप्रदायिक तेवर की आलोचनाओं को भोंथरा करने तथा उसे वैचारिक वैधता ही प्रदान करने के जरिए करता है।

सब कुछ के बावजूद चूंकि कांग्रेस ही देश के पैमाने पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, उसकी यह कमजोरी देश के पैमाने पर किसी विश्वसनीय विकल्प की संभावनाओं को भी कमजोर करती है। इसलिए, सिर्फ कांग्रेस के अपने हित में ही नहीं, देश के हित में भी यह जरूरी है कि वह नवउदारवाद की वैकल्पिक नीतियों के मंच की ओर बढ़े। ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने और उसके गिर्द, मेहनतकशों के बढ़ते धु्रवीकरण करने इसकी जरूरत और संभावनाओं, दोनों को ही गाढ़े रंग से रेखांकित कर दिया है।

दूसरी ओर, कांग्रेस को अपने अब तक के अनुभव से इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि मोदी राज को, उसके ही खेल में हराना मुश्किल है।

राजेंद्र शर्मा

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

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