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मुसलमानों को यहां से देखो

मुसलमानों को यहां से देखो

Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में मुसलमान लेखकों के योगदान के बारे में जानिए (Know about the contribution of Muslim writers to the cultural traditions of India)

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मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादियों के द्वारा जिस तरह का घृणा अभियान चलाया जा रहा है उसकी जितनी निंदा की जाय, कम है, वे मुसलमानों को सामाजिक जहर के रुप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे अनेक युवाओं में इस जहरीले प्रचार का सीधे असर हो रहा है, युवाओं को भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और मुसलमान लेखकों के योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है, और इसी अज्ञान का हिन्दुत्ववादी लाभ उठा रहे हैं।

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धार्मिक संकीर्णता के कट्टर शत्रु सिंधी भाषा के समर्थ कवि अब्दुल बहाव उर्फ़ सचल सरमस्त

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     मुझे सिंधी भाषा के समर्थ कवि अब्दुल बहाव उर्फ़ सचल सरमस्त याद आ रहे हैं, ये धार्मिक संकीर्णता के कट्टर शत्रु थे और इनको पूरी कुरान कंठस्थ थी। उन्होंने लिखा- "मज़हब नि मुल्क में माण हूं मूँझाया। शेख़ी बुजुर्गी बेहद भुलाया।।"

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इसी तरह बंगला में संस्कृत के विद्वान् थे दौलत काज़ी। उनके काव्य में कालिदास की उपमाओं के अनेक प्रयोग मिलते हैं।

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जयदेव के असर में लिखी कविता में चंद पंक्तियां बानगी के रुप में  देखें- "श्यामल अंबर श्यामल खेती। श्यामल दश दिशा दिवसक जोती।।"

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मलिक मोहम्मद जायसी ने मुहर्रम के दिनों में ईरान की शहजादी, हजरत इमाम हुसेन की पत्नी बानो पर जो कविता लिखी उसकी चंद पंक्तियां देखें -

    "मैं तो दूधन धार नहाय रही, मैं तो पूतन भाग सुहाय रही।

     मैं तो लाख सिंगार बनाय रही, मेरा साईं सिंगार बिगार गयो।

     मोरे साह के तन पर घाव लगो, मोरा अकबर रन मां जूझ गयो।

     कोऊ साह नज़फ़ से जाए कहो,तुम्हरे पूत का बैरी मार गयो।।"

देश में हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर बहुत सारा सांस्कृतिक कचरा फेंका जा रहा है। हिन्दीभाषी क्षेत्र में इस तरह के विभाजन को न मानने वाले कवियों -लेखकों की विशाल परंपरा है।

The dividing line of Hindu-Muslim culture in culture was drawn by the British rulers

दिलचस्प बात यह है कि जो मुगल शासक भारत में बाहर से आए वे इस्लाम, फारसीपन आदि के उतने दीवाने नहीं थे जितने वे भारत की परंपराओं और भाषाओं के दीवाने थे। संस्कृति में हिन्दू-मुसलिम संस्कृति की विभाजन रेखा अंग्रेज शासकों ने खींची, उनकी खींची रेखा का आज भी साम्प्रदायिक संगठन इस्तेमाल कर रहे हैं।

अधिकांश मुस्लिम शासक तुर्कभाषी थे. बाबर ने अपनी आत्मकथा किस भाषा में लिखी?

सच यह है कि अधिकांश शासक तुर्कभाषी थे न कि फारसीभाषी। स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा तुर्की में लिखी थी। गाँवों में मुसलमानों के लिए तुरक शब्द का प्रचलन था। दिल्ली के राजसिंहासन पर पश्तोभाषी जरूर बैठे, लेकिन जिनकी मातृभाषा फारसी थी उनको यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ।

भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाओं पर फारसी का प्रभाव

फारसी का भारतीय साहित्य और भाषाओं पर असर मुगल साम्राज्य के पतनकाल में पड़ना शुरू हुआ और बाद में अंग्रेजों ने इसका इस्तेमाल किया। यही वह दौर था जिसमें संस्कृत को देववाणी कहकर प्रतिष्ठित करने की कोशिश हुई, जिसका तुलसीदास ने विरोध किया और लिखा, "का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच। काम जो आवै कामरी, का लै करे कमाच।।"

जगदीश्वर चतुर्वेदी

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