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देशबन्धु में संपादकीय आज (Editorial in Deshbandhu today)
अग्निपथ योजना के विरोध में चल रहे युवाओं के आंदोलन पर संपादकीय टिप्पणी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) सोमवार को दो दिन के कर्नाटक प्रवास पर हैं। जहां वे सेंटर फॉर ब्रेन रिसर्च का उद्घाटन (Center for Brain Research) करेंगे, डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण करेंगे, एक मल्टी-स्पेशियलिटी अस्पताल की आधारशिला रखेंगे और इसके अलावा भी इसी तरह के कुछ और कार्यक्रमों में शामिल होंगे।
मंगलवार को आठवें अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर श्री मोदी मैसूर पैलेस मैदान में सामूहिक योग प्रदर्शन में हिस्सा लेंगे।
हर साल अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री अलग-अलग शहरों में इसी तरह सामूहिक योग आयोजन में हिस्सेदारी करते हैं।
हर साल योग करने का महाआयोजन प्रधानमंत्री के लिए क्यों जरूरी है?
स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसके लिए योग करना अच्छी बात है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के योग के ज्ञान को पहचान मिलना भी बड़ी उपलब्धि है। लेकिन हर साल प्रधानमंत्री के लिए योग करने का महाआयोजन क्यों जरूरी है, योग करने-कराने में सरकार की भूमिका कितनी होनी चाहिए, इस पर अब जनता को विचार करना चाहिए।
देश के उद्वेलित युवाओं को शांत कराने के लिए कौन सा योग?
जब देश के करोड़ों युवा मानसिक रूप से उद्वेलित हों, उन्हें शांत करना एक बड़ी चुनौती बन गया है, तब किस तरह योग, ध्यान और प्राणायाम प्रधानमंत्री की प्राथमिकताएं हो सकती हैं।
उद्घाटन, अनावरण जैसे कामों को भी, प्रधानमंत्री के अलावा सरकार का कोई और वरिष्ठ मंत्री या भाजपा का कद्दावर नेता करता, तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
जब देश में हालात सामान्य हों तो उद्घाटन और योग उत्सव में शिरकत समझ में आती है। लेकिन जब देश का बड़ा हिस्सा विरोध-प्रदर्शनों के कारण प्रभावित हो, क्या तब भी प्रधानमंत्री के लिए कहीं जाकर फीता काटना या आसन लगाना इतना जरूरी है?
घर के बच्चे जब किसी बात से बहुत अधिक परेशान हों, उनके जीवन में उथल-पुथल मची हो, तब घर के मुखिया उनकी पीड़ा सुनने की जगह कानों में रूई डालकर नहीं रहते, न ही वे इधर-उधर के कामों में अपना समय देते हैं। बल्कि वे ये समझने की कोशिश करते हैं कि बच्चे किस बात से तकलीफ में हैं और ऐसा क्या किया जाए कि उनकी तकलीफ कम हो। संवादहीनता और मनमानी से न घर चलाया जा सकता है, न देश। लेकिन इस वक्त भारत में ऐसे अजीब हालात बन गए हैं, जहां नयी पीढ़ी की न पीड़ा समझी जा रही है, न उनकी बात सुनने में सरकार की दिलचस्पी है।
14 जून को अग्निपथ योजना की घोषणा के बाद से ही युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा था और विरोध-प्रदर्शन का जो सिलसिला शुरु हुआ है, वो अब तक थमा नहीं है। सोमवार को इस योजना के विरोध में 20 संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया, जिसका व्यापक असर देखने को मिल रहा है। बिहार, उत्तरप्रदेश, प.बंगाल, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, दिल्ली जैसे कई राज्यों में बंद का असर देखने मिला। दिल्ली-एनसीआर की कई सड़कों पर लंबे-लंबे जाम लगे हैं। रेलयात्रियों को भी इस प्रदर्शन से मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। 5 सौ से अधिक ट्रेनों का संचालन बंद और विरोध के कारण प्रभावित हुआ है, जिससे रेलवे को करोड़ों रुपए का नुकसान हो रहा है। विरोध की व्यापकता और उग्रता के बावजूद सरकार अपने रुख पर कायम दिख रही है।
रविवार को ही तीनों सेना प्रमुखों ने एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस की ओर स्पष्ट संदेश दे दिया कि अग्निपथ योजना वापस नहीं ली जाएगी। यह एक प्रगतिशील कदम है और देश की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है।
प्रेस कांफ्रेंस में ये भी बताया गया कि दशकों से सैन्य सुधारों की कवायद चल रही थी।
अब सवाल ये है कि अगर बहुत बरसों से सैन्य सुधार करने की कोशिशें चल रही थीं, तो एक झटके में इतना बड़ा फैसला युवाओं को क्यों सुनाया गया?
सरकार को अग्निवीर तैयार ही करने थे, तो उसकी छोटे-छोटे हिस्सों से इसकी शुरुआत हो सकती थी। जिस तरह स्कूल-कॉलेज में एनसीसी के जरिए नौजवानों को विभिन्न तरीके का सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता है, वैसी ही कोई योजना अग्निवीर बनाने के लिए भी हो सकती थी। आठ बरसों तक देश के युवाओं को कोई भनक नहीं लगने दी कि सेना में भर्ती के लिए इतना बड़ा बदलाव होगा और अब एकदम से उन्हें कहा जा रहा है कि हम जो कह रहे हैं, वो मान लो। और ये कैसा प्रगतिशील कदम है, जिसकी आहट से ही देश में पहिए थम गए हैं।
चीन से युद्ध के अलावा भारत ने अब तक कोई भी लड़ाई नहीं हारी, तो केवल इसलिए कि यहां समर्पित और जोशीले सिपाहियों की जानदार-शानदार सेना है, एक मजबूत और परखा गया विकसित सैन्य तंत्र है। मौजूदा सरकार केवल इस तंत्र को यथावत संभाले रखे, तब भी देश की सुरक्षा अच्छे से होगी। लेकिन सरकार ने अचानक तंत्र में बड़े बदलाव की योजना बना ली, और उस योजना का बचाव करने के लिए तीनों अंगों के प्रमुख प्रेस कांफ्रेंस करने उपस्थित हुए।
ये भी 70 सालों में पहली बार
सत्तर सालों में ऐसा कभी शायद ही हुआ हो कि किसी फैसले पर तर्क और पक्ष रखने के लिए सैन्य प्रमुखों को एक साथ आना पड़ा हो। ये सरकार और क्या-क्या मुमकिन करवाएगी, पता नहीं।
वैसे 4 साल की सेना की नौकरी के बाद भूतपूर्व सैनिक बने अग्निवीर भावी जीवन के लिए क्या करेंगे, इस पर कई सवाल उठ रहे थे और अब उनके एक से बढ़कर एक जवाब आना शुरू हो गए हैं। भाजपा के एक दिग्गज नेता उन्हें भाजपा कार्यालय का सुरक्षाकर्मी बनने के लिए उपयुक्त पाते हैं, एक बड़े उद्योगपति अग्निवीरों को नौकरी में प्राथमिकता देने की बात कह रहे हैं, अग्निवीरों के लिए अलग-अलग मंत्रालयों में नौकरियों के प्रावधान भी तलाशे जा रहे हैं। ये सारे काम बेरोजगार युवाओं के लिए अलग से भी हो सकते हैं, उन्हें अग्निवीर बनकर अग्निपरीक्षा से गुजरने क्यों कहा जा रहा है?
सैनिकों को आजीवन सैनिक होने के सम्मान के साथ ही रहने देना चाहिए। वैसे भी जांबाजी में मोल-तोल की गुंजाइश नहीं रहती है।
आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार.
The country has stopped on Agneepath